Saturday 9 April 2022

शंभुनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (38) कैसे बना अपना कम्पू !

कानपुर के बारे में कई विरोधाभासी बातें हैं, जैसे इसे बसाया किसने। जो शहर 19वीं सदी के पहले दशक से बीसवीं सदी के आठवें दशक तक उद्योग, व्यापार और रोज़गार का केंद्र रहा, वह इतना पिछड़ कैसे गया कि आज कानपुर का नाम लेते ही या टीबी के मरीज़ याद आते हैं या झकरकटी, अफ़ीम कोठी और नौबस्ता के दुर्गंध से बजबजाते इलाक़े अथवा मूलगंज, करनैल गंज या बेकन गंज की संकरी गलियाँ। हटिया, चौक सर्राफ़ा, नारियल बाज़ार, इटावा बाज़ार और काहूकोठी के सीलन वाले घर। यह समझ न आने वाली बात है कि अंग्रेजों ने जिस कानपुर को बड़े लाड़ से बसाया उसे उन्होंने समग्र रूप से विकसित क्यों नहीं किया। संभव है, ब्रिटिश सरकार को सिवाय माल रोड या सिविल लाइंस को विकसित करने के अलावा बाक़ी शहर से कोई वास्ता न रहा हो। लेकिन आज़ादी के बाद की सरकारों ने भी तो कानपुर के प्रति कहाँ कोई समदर्शी नीति अपनाई। 

आमतौर पर कानपुर के इतिहास लेखकों ने भी कानपुर का वैभव देखा किंतु उसका समग्रता पूर्वक विवेचन नहीं किया। इसकी वजह यह भी रही, कि कानपुर का इतिहास लिखने वालों ने सिर्फ़ सुनी-सुनाई बातों पर भरोसा कर लिया। वे बस एक कथा पर भरोसा करते हैं कि कानपुर को सचेंडी के चंदेल राजा हिंदू सिंह ने बसाया था। लेकिन हिंदू सिंह एक छोटे-से भू-भाग के जागीरदार थे। वे गंगा किनारे घाट तो बनवा सकते थे, कोई पुरवा या मज़रा बसा सकते थे पर एक शहर की कल्पना उनके वश के बाहर की बात थी। और अगर उन्हें शहर बसाना होता तो वे संचेडी को विकसित करते। उसके समीप से एक सड़क पहले से थी। जो अवध को दक्षिण से जोड़ती थी। ख़ुद संचेडी पांडु नदी के किनारे हैं और उनका क़िला एक विशाल पोखर के ऊपर आज भी ध्वस्त स्थिति में देखा जा सकता है। शहर बसाने के पूर्व कुछ बातें प्रमुख होती हैं। एक तो वह इलाक़ा समतल हो, मुख्य मार्गों से जुड़ा हो, पानी की कमी न हो, डूब क्षेत्र में न आता हो और वहाँ की क़ानून व्यवस्था चौकस हो। इसके लिए राज्य कर्मचारी नियुक्त हों। इसके अलावा वहाँ कोई कारीगर जाति रहती हो अथवा उसे बाहर से लाकर बसाया जाए। व्यापार को फलने-फूलने के लिए वहाँ का शासक व्यापार के लिए करों में छूट दे। ऐसे स्थान पर स्थानीय मज़दूर काफ़ी होने चाहिए। राजा हिंदू सिंह ने इस दिशा में कुछ किया हो, ऐसा नहीं पता चलता न इसके कोई प्रमाण मिलते हैं। 

दरअसल इस शहर का नाम कानपुर रखने के पीछे इस तरह के आग्रही लेखक किसी हिंदू राजा की पहल मानते हैं। उन्हें कानपुर शब्द कृष्ण या कान्हा पुर के समीप लगता है। और राजा हिंदू सिंह से बड़ा “हिंदू” उनको दिखता नहीं। मगर कानपुर से कौन-सा हिंदू प्रतीक पता चलता है? यह स्पष्ट नहीं है। कृष्ण, कान्हा का नाम कितना भी बिगाड़ो वह कान नहीं हो सकता। इसलिए राजा हिंदू सिंह द्वारा शहर बसाये जाने की थ्योरी ग़लत प्रतीत होती है। इस शहर के सारे प्रमाण ईसवी सन 1800 के बाद के मिलते हैं। तब तक यहाँ ईस्ट इंडिया कंपनी आ गई थी। यूँ भी 1764 में बक्सर की लड़ाई हारने के बाद मुग़ल बादशाह शाहआलम ने 40 हजार वर्गमील का दोआबा अंग्रेजों को सौंपा और शुजाउद्दौला ने अवध का एक बड़ा भूभाग तथा मीरकासिम बंगाल की दीवानी खो बैठा।  इसी दोआबे में पड़ता था कानपुर का इलाका जो तब वीरान था। बस गंगा का किनारा था और जाजमऊ, सीसामऊ, नवाबगंज, जुही और पटकापुर ये पांच जागीरदारियां थीं। इनमें से जुही की जागीरदारिनी रानी कुंअर ने अपने-अपने इलाकों में बड़े काम किए। रानी कुंअर द्वारा दी गई माफी के पट्टे तो आज भी जुही वालों के पास हैं।

पर कानपुर के बारे में जानने से पहले 18 वीं सदी की राजनीतिक स्थिति को समझ लेना अपरिहार्य होगा। वर्ष 1757 में ईस्ट इंडिया कम्पनी से हारने के बाद बंगाल में अंग्रेजों का राज हो गया। नवाब सिराजद्दौला मुर्शिदाबाद के क़रीब ईस्ट इंडिया कम्पनी के गवर्नर लॉर्ड क्लाइव की फ़ौज ने नवाब को पराजित कर दिया। लेकिन इस पराजय में नवाब के सेनापति मीर जाफ़र, बंगाल में जगत सेठ कहे जाने वाले व्यापारी अमीचंद और उसके दरबारियों की अंग्रेजों से मिलीभगत थी। सच बात तो यह है कि नवाब की 18 हज़ार की सेना ने युद्ध में हिस्सा नहीं लिया और क्लाइव की 300 जवानों की सेना बिना लड़े यह निर्णायक युद्ध जीत गई। अंग्रेजों ने मीर जाफ़र को बंगाल का नवाब घोषित किया और इस मीर जाफ़र के पुत्र मीरन ने नवाब की हत्या कर दी। इस तरह बंगाल सूबे पर परोक्ष रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी की हुकूमत चलने लगी। लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल को कंगाल कर दिया। मीर जाफ़र भले ग़द्दार रहा हो किंतु बंगाल की जनता की परेशानियों से वह आजिज़ आ चुका था। 1760 में अंग्रेजों ने उसे हटा कर उसके दामाद मीर क़ासिम को बंगाल का नवाब बना दिया, क्योंकि मीर जाफ़र के पुत्र मीरन की हत्या हो चुकी थी। मीर क़ासिम ने भी अंग्रेजों को भरपूर रिश्वत दी तब उसे बंगाल की नवाबी मिली। मगर वह एक काबिल शासक था, उसने ख़ाली होते ख़ज़ाने को भरा और बहुत से नाहक कर हटाए। उसने दस्तक कर हटा दिया, मुग़ल बादशाह द्वारा यह कर माल की आवाजाही पर लगता था। अंग्रेजों को इससे छूट थी, मगर उसने भारतीय व्यापारियों तथा डच व फ़्रेंच व्यापारियों से भी यह कर हटा दिया। इस तरह बाज़ार में प्रतिद्वंदिता बढ़ी और अंग्रेज पिछड़ने लगे। तथा मीर क़ासिम जनता के बीच लोकप्रिय हो गया। उसने बंगाल सूबे की राजधानी मुर्शिदाबाद से हटा कर मुंगेर कर दी। इससे अंग्रेजों का अंकुश कम हो गया। अंग्रेजों ने 1763 में उसकी नवाबी छीन ली और गद्दी पर पुनः मीर जाफ़र को बिठा दिया। मीर क़ासिम ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय से संपर्क किया। 

वर्ष 1764 में बक्सर की लड़ाई में शुजाउद्दौला, मुग़ल बादशाह शाहआलम द्वितीय और मीर कासिम की साझा फौजों को ईस्ट इंडिया कंपनी ने हरा दिया। अंग्रेजों के पास उन्नत क़िस्म के हथियार थे और शुजाउद्दौला, मुग़ल बादशाह शाहआलम द्वितीय लड़ तो रहे पर अनमने-से। एक मीर क़ासिम ही प्राण-प्रण से युद्ध में आया था। अंग्रेजों की जीत हुई। फ़ौरन 1765 में शाहआलम और शुजाउद्दौला ने अंग्रेजों से इलाहाबाद में संधि कर ली। अंग्रेजों को शुजाउद्दौला ने कड़ा और इलाहाबाद का इलाक़ा सौंपा, जिसे अंग्रेजों ने मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय को दिया तथा 26 लाख की सालाना पेंशन भी। बदले में शाह आलम ने अंग्रेजों को बंगाल, बिहार और ओडीसा की दीवानी सौंपी। इस तरह देश में अंग्रेज़ी राज आया। इसके कुछ दिनों बाद 16 अगस्त 1765 को इलाहाबाद में दूसरी संधि हुई। इसके तहत इलाहाबाद और कोड़ा को छोड़ कर शेष अवध कंपनी ने शुजाउद्दौला को वापस कर दिया। शुजाउद्दौला ने 50 लाख रुपए हर्जाने के दिए और अंग्रेजों को अवध में व्यापार की छूट मिली। अवध पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक शर्त और लादी कि अंग्रेजों की दो कंपनियाँ अवध की सुरक्षा के लिए रहेंगी और इसका खर्च अवध का नवाब उठाएगा। 

वर्ष 1773 में कानपुर अंग्रेजों के पास आया। इसी दौरान शाहआलम ने अल्मास अली नाम के एक खोजा को यहाँ का सूबेदार बनाया था। वह 1801 तक रहा। उसने कानपुर का विकास तेज़ी से किया। अंग्रेजों ने दिल्ली की तरफ़ बढ़ते क्रम में हरदोई के पास बिलग्राम में अपनी छावनी स्थापित की। मगर बिलग्राम से वे अवध पर नजर नहीं रख सकते थे। वहां के पठान अंग्रेजों के मित्र थे इसलिए उन्होंने शुजाउद्दौला को घेरने की नीयत से जाजमऊ के निकट सरसैया घाट के किनारे छावनी डालने का तय किया। 1773 में अंग्रेजों ने एक ग़ैरिसन कानपुर में स्थापित किया। तब यहाँ पर सरसैया घाट के एक पंडा शिरोमणि तिवारी को ओरछा नरेश ने बहुत सारी माफी की जागीर दे रखी थी क्योंकि जमनापार के नहानार्थी सरसैया घाट ही गंगा स्नान करने आते थे। 

सचेंडी के राजा अल्मास अली को कर देते थे। कानपुर का अंतिम हिंदू (देसी) राजा अल्मास अली ही बताया जाता है। मैं 2003 में एक बार सचेंडी गया था तब वहां किला भग्नावस्था में मौजूद था और राजा के वंशज अत्यंत दीनहीन अवस्था में थे। वे एक पीसीओ और फोटोग्राफी की दूकान चलाते थे। सचेंडी का यह किला कालपी रोड से जमना साइड चलने पर दो किमी अंदर है। कालपी रोड अब बारा जोड़ के बाद से एनएच-2 कहलाने लगा है। शायद कानपुर में अंग्रेजों की छावनी (कैंटूनमेंट) से ही यह क्षेत्र कानपुर कहलाया। इसे कँपू कहा ज़ता था। 
(जारी)

© शंभूनाथ शुक्ल

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