दिनकर की कृति 'उर्वशी' 1961 में प्रकाशित हुई। दिनकर की अन्य रचनाओं से अलग इसका मिज़ाज है। दिनकर जिस वीरता, राष्ट्रगौरव, ओज और ललकार के भाव के लिए जाने जाते हैं; उन सबसे अलग यहाँ उनका रंग देखने को मिलता है। दिनकर ने इस कृति में अन्य सभी चीजों से ध्यान हटाकर स्त्री-पुरुष के कोमल किंतु गंभीर संबंधों के विश्लेषण पर अपने को केन्द्रित किया है। दिनकर की इस कृति को लेकर लेखन में बहुत वाद-विवाद भी हुए। 'कल्पना' के अप्रैल 1963 अंक में 'उर्वशी' पर भगवतशरण उपाध्याय का लेख प्रकाशित हुआ। अन्य कई नामचीन साहित्यकारों मसलन अज्ञेय, नगेन्द्र, कुँवरनारायण, शिवप्रसाद सिंह, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, रघुवंश, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लक्ष्मीकान्त वर्मा, मुक्तिबोध, देवीशंकर अवस्थी, रामविलास शर्मा आदि ने ‘उर्वशी’ पर लेख लिखे हैं। किसी एक कृति पर एक साथ, एक समय में इतने महत्वपूर्ण साहित्यिकों ने शायद ही भागीदारी की हो। इससे कृति का महत्व तो स्वयंसिद्ध है। सवाल उसकी ऐतिहासिक अवस्थिति की है। वह कितनी और किससे महान है, किससे कम या कमतर है- यह साबित करने का नहीं है। साथ ही इस महत्व-निरूपण की कसौटी क्या होगी या कि नामवर सिंह के शब्दों में कहें तो 'प्रतिमान' क्या होंगे जिसके आधार पर इसकी महत्ता या कमतरी को बताया जा सके!
जिन दो महत्वपूर्ण आलोचकों ने इस सवाल से टकराने की कोशिश की है उनमें मुक्तिबोध और रामविलास शर्मा का नाम प्रमुख रुप से उल्लेखनीय है। रामविलास शर्मा को 'उर्वशी' उदात्त भाव की और श्रृंगार भाव से ऊपर उठी हुई कृति लगी, उन्होंने कहा कि 'निराला के बाद मुझे किसी वर्तमान कवि की रचना में ऐसा मेघमन्द्र स्वर सुनने को नहीं मिला।'[i] वहीं मुक्तिबोध इस कृति की भाषा और श्रृंगारिकता की आलोचना करते हैं। रामविलास जी जिस कारण 'उर्वशी' को पसंद करते हैं कि 'इसमें ('उर्वशी' में) नारी-सौन्दर्य के अभिनन्दन के अतिरिक्त मातृत्व की प्रतिष्ठा भी है।'[ii] वहीं मुक्तिबोध को इसमें कुंठित और स्वार्थी क़िस्म का काम भाव दिखाई देता है जिसमें केवल बेडरूम के दृश्य हैं।[iii]
'उर्वशी' के उद्देश्य के बारे में मुक्तिबोध स्पष्ट हैं कि कवि को कोई बड़ी बात नहीं कहनी। उसे काम की महत्ता प्रतिपादित करनी है और उसे लोकोत्तर बताना है। ''सच तो यह है कि लेखक को, सिर्फ एक बात छोड़कर, और कोई खास बात कहनी नहीं है। उसके पास कहने के लिए ज़्यादा कुछ है ही नहीं। और जो कहना है वह यही कि कामात्मक अनुभवों के माध्यम से आध्यात्मिक प्रतीति सिद्ध हो सकती है। किन्तु यह कहने के लिए उसने व्यापक आयोजन किया है, वह उसे पूरे समारोह के साथ अपना समय लेते हुए कहना चाहता है।'' [iv]
इसमें कोई संदेह नहीं कि 'उर्वशी' का उद्देश्य काम की प्रतिष्ठा करना और जीवन में स्त्री-पुरुष के दैहिक आकर्षण की महत्ता को सिद्ध करना है। जयशंकर प्रसाद जिस प्रश्न को मनु के मुख से कहलाकर उपेक्षित छोड़ देते हैं अथवा श्रद्धा का अतिकाल्पनिक चरित्र जिसे उभरने नहीं देता वह प्रश्न बहुत दूर तक 'उर्वशी' में प्रतिष्ठित है। व्यक्ति की निजता की प्रतिष्ठा और स्त्री-पुरुष के एकांतिक आकर्षण कोई वर्जनीय क्षेत्र नहीं है, उस पर बात करना विचलन नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि साहित्य की जिस कसौटी को नैतिकतावादियों ने गढ़ा और आगे चलकर प्रगतिशील साहित्य ने जिस तरह से साहित्य को बिना बृहत्तर सामाजिक सरोकार के साहित्य मानने से इंकार कर दिया- इन दो अतियों का निषेध 'उर्वशी' का पाठ तैयार करता है।
साहित्य की नैतिकतावादी कसौटी काम को कविता का प्रमुख विषय नहीं मानती, कविता का एक गौण हिस्सा भर मानती है। काम वहाँ अपने आप में विषय नहीं है। वह विषय का निर्धारणकर्ता भी नहीं है। काम अगर किसी तरह जीवन में आता है तो अत्यंत दबे-ढँके स्वर में, अदृश्य –अगोचर हो तो और भी अच्छा है। काम जीवन का हेतु नहीं हो सकता वह केवल जीवन के क्रम को चलाए रखने में मदद करता है। इससे ज़्यादा उसकी भूमिका नहीं है। द्विवेदीयुग तक इस नैतिकतावादी दृष्टि का हिंदी साहित्य में बोलबाला रहा। दूसरी तरफ प्रगतिशील साहित्यिकों की दृष्टि यह मानती है कि साहित्य के निजी सरोकार और साहित्य की निजता - साहित्य का बहुत छोटा दायरा है। मनुष्य की भावनाएँ जिनमें कामभावनाएँ भी शामिल हैं, हमेशा बड़े दायरे में अभिव्यक्त होनी चाहिए। उन्हें बृहत्तर सामाजिक सरोकारों से जुड़ना चाहिए तभी वे उत्कृष्ट हो सकती हैं। स्पष्ट है कि बृहत्तर मानव समुदाय की समस्या काम और कामजनित सुख तब तक नहीं हो सकते जब तक कि समस्त संसार में विषमता का लोप न हो जाए।
काम के प्रति आधुनिक हिंदी साहित्य का जो भी रवैय्या रहा है वह पूरी तरह सही नहीं है, काम कोई त्याज्य या अछूत विषय नहीं है। काम की एक पूरी परंपरा एक पूरा अनुशासन हमारी सभ्यता, संस्कृति और साहित्य में मौजूद रहा है। काम हमारे साहित्यकारों और आलोचकों में कभी वर्जनीय नहीं रहा । सवाल यह है कि काम और कामजनित मुद्दों को वर्जनीय किन हालातों में किन लोगों द्वारा बनाया गया ? काम और इससे संबंधित मसले अपने आप में वर्जनीय हैं, यह कहना मूढ़ता होगी। बल्कि यह मध्यकालीन संकीर्णता है। पहले काम को दरबार के साथ जोड़कर आम जनों से, नागरिक के जीवनोत्सव से अलग कर दिया गया। दरबार और आम जीवन में बड़ी फाँक के कारण दो विपरीत तरह की जीवनशैली ने जन्म लिया। जिनमें एक के साथ दूसरे का मेल संभव नहीं था। एक तरफ ऐश्वर्य, समृद्धि, भोग का प्रदर्शन दूसरी तरफ जीवनयापन की जद्दोजहद। यह अंतराल जितना अधिक बढ़ता गया उतना ही साहित्य और विचार में वर्जनाओं ने जगह बनानी शुरू की। एक क़िस्म की वर्जना नैतिकतावादी-निषेधवादी दृष्टि ने बनाई दूसरे क़िस्म की वर्जना सत्ता वर्ग द्वारा पैदा की गई । एक के लिए जो निष्क्रिय भोग था, आनंद था, दूसरे पक्ष के लिए वह ऐय्याशी थी। फलतः काम के प्रति खास तरह की निषेधात्मक नैतिकतावादी दृष्टि ने जन्म लिया। इसके परिणामस्वरुप समाज में काम और कामजनित मुद्दों पर बात करना तकरीबन निषिद्ध करार दे दिया गया। काम को जीवन से अलग कर दिया गया।
जीवन के बीच का यह अंतराल आधुनिककाल में और गहरा हुआ। संस्कृत साहित्य और रीतिकाल के प्रति जिस तरह की आलोचना विकसित हुई उसका कारण ही यही था। जो चीज साहित्य में चित्रित थी वह जनता के जीवन का हिस्सा नहीं थी, इसमें तनिक संदेह नहीं। जनता के जीवन की ज्वलंत समस्याओं को चित्रित करने के क्रम में कई चीजों को जनता के जीवन से बाहर की चीज समझ लिया गया, उन पर बात करना संकीर्ण निजतावादी दृष्टि का परिचायक माना गया, काम भी उन विषयों में से एक था।
यह निर्विवाद है कि लेखक को यह पूरा अधिकार है कि वह किस विषय पर लिखे। विषय का चयन लेखक की रुचि, उसकी विश्वदृष्टि और भावधारा के अनुरूप होगी। आलोचना का काम है कि वह लेखक द्वारा उठाए गए विषय में संभावनाओं पर बात करे। 'उर्वशी' के केन्द्र में स्त्री-पुरुष के काम-संबंधों का चित्रण है, इसके द्वारा आध्यात्मिक उद्देश्य की प्राप्ति की बात की गई है। कवि यहाँ काम को अंतिम साध्य न मानकर उसकी एक लोकोत्तर व्याख्या करने का प्रयास करता है। 'उर्वशी' का कथानक अवश्य पौराणिक है पर 'उर्वशी' की कथा पौराणिक नहीं है। जो कही गई कथा है उसका संबंध आधुनिक भावबोध से है। आध्यात्मिकता का कलेवर मात्र है। सवाल यह है कि इस कलेवर की जरुरत क्यों पड़ी ? जीवंत काम के विषयों के रहते हुए पौराणिक आख्यान में जाने की जरुरत क्यों महसूस हुई ?
यह आधुनिक भावबोध क्या है जो 'उर्वशी' में अभिव्यक्त हुआ है? सबसे पहली चीज जिसे मुक्तिबोध अघटनीय मानते हैं, वह है स्त्री और पुरुष का प्रेम विशेषकर रति सुख की गहराइयों पर चर्चा करना। इस विषय पर हिंदी में 'उर्वशी' के अलावा दूसरी रचना नहीं है। एक वर्जित विषय के रूप में इसे देखा जाता रहा है, लेकिन रामधारी सिंह 'दिनकर' ने इस मिथ को तोड़ा है। मुक्तिबोध इस संबंध में जिन शब्दों में दिनकर की आलोचना करते हैं, उसमें वही परंपरित नजरिया व्यक्त है, जो देह और दैहिक संबंध के विषय में चुप रहने में विश्वास करता है, खास तरह के रोमान भाव को बनाए रखने में विश्वास करता है। जब स्त्री-पुरुष की दैहिक जरूरतों और समस्याओं पर खुलकर बात करेंगे तो यह रोमान टूटेगा। मुक्तिबोध ने लिखा है, '' वैसे तो मैं कल्पना नहीं कर सकता कि रति-सुख की विविध संवेदनाओं की बारीकियाँ और गहराइयाँ नर और नारी के बीच चर्चा का विषय हो सकती हैं। यही क्या, नर भी संभवतः उन्हें भूल जाता होगा।''[v] यह खास नैतिकतावादी दृष्टि है जिसमें रति और काम को पुंसवादी नजरिये से देखा गया है। स्त्री-पुरुष के संबंध में यह सबसे प्रमुख नजरिया भी है। पुरुष जहाँ स्त्री के शरीर को कामपूर्ति का साधन मात्र समझता है, स्त्री की कामचेतना की बात तो सोचना भी दुष्कर है। इसमें काम और रति की विविध बारीकियों पर बोलना, गहराइयों पर चर्चा करना स्त्री के पक्ष से स्पष्ट निर्लज्जता और बदचलनी मानी जाती है। बंद वर्जनाओं वाले समाज में पुरुष के पक्ष से भी यह प्रगल्भता है जिस कारण मुक्तिबोध कहते हैं कि वह सोच नहीं सकते या कल्पना भी नहीं कर सकते। ऐसे में काम और रति-संबंधों की गहराइयों और बारिकियों को रचना के केन्द्र में रखना एक आधुनिक दृष्टि है।
'उर्वशी' के संबंध में दो चीजों को देखना दिलचस्प होगा एक कि काम की जो भारतीय परंपरा रही है, 'उर्वशी' उसमें क्या जोड़ती-घटाती है? दूसरा कि काम या यौनिकता को देखने की जो दृष्टि है उसका 'केन्द्’ बिन्दु ' कौन सा है? संस्कृत ग्रंथों में काम संबंधी चर्चा अग्राह्य नहीं रही है। संभोग या मैथुन की विस्तृत चर्चा खेती और यज्ञ के रूपकों में की गई है। वात्स्यायन का 'कामसूत्र' भगवद्गीता के समान महत्व वाला जीवनशैली का शास्त्र है। कालिदास की विभिन्न कृतियाँ कामसूत्र की विभिन्न मान्यताओं और प्रविधियों का विस्तार करती हैं। संस्कृत साहित्य के विभिन्न ग्रंथों पर इसका असर देखा जा सकता है। राधावल्लभ त्रिपाठी ने अपने एक लेख में इस बात का उल्लेख इस प्रकार किया है, ''कालिदास जैसे महाकवियों के रचनालोक में वात्स्यायन रचे-बसे हैं। ये कवि उनकी मान्यताओं और प्रविधियों को कलात्मक विन्यास और विस्तार दोनों देते हैं। वात्स्यायन न होते, तो कालिदास शिव और पार्वती के समागम और दोनों के ऐंद्रिय सुख का इतना सूक्ष्म वर्णन न कर पाते।''[vi]
उल्लेखनीय है कि 'कामसूत्र' काम और संभोग का पूरी दुनिया में जाना-माना शास्त्र है। देह और देहजनित सुख, स्त्री-पुरुष की कामुकता पर लिखा गया सबसे पुराना प्रामाणिक ग्रंथ है। कामसूत्र के लिखे जाने के पहले तक वैदिक देवताओं की प्रतिष्ठा हो चुकी थी यानि लोक और लोकोत्तर का स्पष्ट विभाजन किया जा चुका था। कर्मफल और सत्ता द्वारा फैलाए गए अंधविश्वासों का प्रचार था। साहित्य और काव्य के आनंद की भी लोकोत्तर व्याख्या की परंपरा चल पड़ी थी। लेकिन कामसूत्रकार ने किसी अलौकिक अतीन्द्रिय सुख को लक्षित करके रचना नहीं की। इस मायने में 'कामसूत्र' एक क्रांतिकारी कृति है ,यह पूरी तरह से सेकुलर रचना है। कोई देवता या ईश्वर अथवा कोई अलौकिक आनंद या पिछले जन्म का भोग या अगले जन्म का फल, कोई विषयान्तर या पर्देदारी के बिना यह कृति रची गई है।
हमारे यहाँ काम और कामजनित आनंद की यह भौतिक परंपरा की जड़ें बहुत गहरी रही हैं लेकिन धीरे धीरे इसे अपदस्थ करके स्त्री-पुरुष संबंधों की नैतिकतावादी भाववादी दार्शनिक व्याख्याएँ की गईं। इसमें भक्तिकाल का बड़ा अवदान है , भक्तकवियों ने काम के प्रति निषेधवादी रवैय्या अपनाया, और काम को स्त्री -पुरुष के विचलन का कारण बताकर निंदा की। भक्तिकाल में सामान्य जन के लिए नैतिक श्रेष्ठत्व हासिल करने का आसान जरिया था, सांसारिक सब चीज की आलोचना करना और प्रत्येक क्रिया को पारलौकिक बनाकर पेश करना। भक्ति का प्रसार सामान्य जनों में एक आंदोलन की तरह हुआ लेकिन सामान्य जनों में भौतिक सुख-साधनों के अभाव की प्रतिक्रिया संसार के प्रत्येक सुख और स्वयं संसार को भी निस्सार बताकर ही हुई। कामसूत्रकार की भौतिक सुख में भी देह के सुख की बात करना, उसके विज्ञान को रचना और उसे बिना किसी आध्यात्मिक अवलंब के खड़ा करना, बहुत बड़ी बात थी और इस तरह की किसी प्रकार की व्याख्या तत्कालीन सामंती समाज में प्रचलित कर पाना मुश्किल काम था, जहाँ राजा भी देवता था और देवता भी राजा राम थे!
'उर्वशी' की ख्याति काम को प्रधान विषय बनाने के कारण है लेकिन इसका सबसे कमजोर पक्ष काम को आध्यात्मिक रंगत दे देना है। कवि अगर भौतिक सुख की विशेषकर संभोग और रति सुख को ही अपने काव्य का विषय बनाता है तो रचना श्रेष्ठ नहीं कहलाएगी, कहीं न कहीं रचनाकार की चेतना में यह भाव है। जबर्दस्ती के आध्यात्म के कारण एक प्रकार का उथला दर्शन 'उर्वशी' की सबसे बड़ी कमजोरी है। अगर 1961 में कोई रचना स्त्री-पुरुष संबंधों को केन्द्र करके लिखी जा रही है तो उससे यह अपेक्षा नहीं की जाएगी कि वह काम के आध्यात्मिक पक्ष की चर्चा करे। काम पर बात करते हुए आध्यात्म का सहारा लेना एक विशेष दृष्टि के कारण पैदा होता है। दर्शन में आत्म और परमात्म के संबंधों की व्याख्या और परमात्मा में लीन होना, महादशा को प्राप्त करना आदि प्रक्रियात्मक व्याख्याएँ काम और स्त्री-पुरुष से जुड़े बहुत बड़े सच को छिपाने का काम करती हैं। उल्लेखनीय है कि दर्शन, साहित्य, विषय (आत्मगतता) , काम सबको पुंसवादी दृष्टि से देखा गया है। दर्शन में जो 'आत्म' है उसमें स्त्री के लिए जगह नहीं है, वह पुरुष है! इस आत्म को परमात्म या परमपुरुष से मिलना है। इस परमपुरुष से मिलन ही सबसे बड़ा सुख है। यह 'आत्म' जिस तरह से दर्शनशास्त्रों में चित्रित है वह 'पुरुष आत्म' है, उसकी उपलब्धियों और नाकामियों का चित्र है। इस आत्म का गहरा संबंध 'स्व' की उपलब्धियों से है, यह 'स्व' पुरुष है।
इसके अलावा जो दूसरा बिंदु है कि काम के प्रश्न को देखते कहाँ से हैं, उसका प्रस्थान बिन्दु कौन सा है ? काम की प्रक्रिया और उपभोग में स्त्री और पुरुष दोनों शामिल हैं। सवाल यह है कि जब काम पर विचार कर रहे हैं तो दोनों पक्षों को शामिल करके बात हो रही है अथवा किसी एक के दृष्टिकोण को केन्द्र में रखकर बात हो रही है ? आम तौर पर काम की विवेचना का पक्ष पुंसवादी विवेचना का पक्ष रहा है।
आधुनिककाल में स्त्रीवादी आंदोलनों के पहले तक स्त्री की कामचेतना, काम में स्त्री की आनंदावस्था उसकी संतुष्टि के सवाल उठाए ही नहीं गए। आधुनिक युग में महिला आंदोलनों के दवाब के कारण औरतों में 'स्व' की चेतना प्रबल होती है। इस दौर में औरतें प्रचलित मान्याओं को सीधे चुनौती देती हैं। उल्लेखनीय है प्रचलित विमर्शों में स्त्री को देह कहकर लांछित किया गया । ऐसी अवस्था में काम ,स्त्री देह और उसके सुख की बातें स्त्री पक्ष से करना ,अपने आपमें नए स्त्री परिप्रेक्ष्य का आगमन था। स्त्री आंदोलनों के फलस्लरूप पैदा हुए स्त्री विमर्श में स्त्री अपने देह को स्वीकार करती है, उस देह को जिसके आधार पर उसे हीनतर सिद्ध किया जाता रहा उसे वह अपनी विशेषता बतलाती है। यह भी उल्लेखनीय है कि पश्चिम के स्त्रीवादी विमर्शों के भारत आगमन से बहुत पहले हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में स्त्री अस्मिता और पहचान के सवाल उठाए गए हैं। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान छपनेवाली पत्र-पत्रिकाओं में स्त्री और स्त्री से जुड़े विषयों पर स्वयं लेखिकाओं की रचनाएँ बड़ी संख्या में छप रही थीं। महादेवी ने सन् 1942 में 'श्रृंखला की कड़ियाँ' लिखकर स्त्री की अस्मिता और सामाजिक परिस्थितियों पर गंभीर रूप से ध्यान खींचा है। पश्चिम के स्त्रीवादी विमर्श में सर्वाधिक चर्चित किताब 'द सेकेण्ड सेक्स' में बहुत दूर तक स्त्री के शरीर के सवाल केन्द्र में हैं। इसके बाद की स्त्रीवादी आलोचना में स्त्री यौनिकता के प्रश्न महत्वपूर्ण होकर उभरे।
'उर्वशी' इस स्तर पर निराश करती है कि यह स्त्री के कोण से यौनिकता के प्रश्न को नहीं देखती। यह पुंसवादी दृष्टि से यौनिकता के प्रश्न को देखती है इसलिए इसमें उठाए गए मुद्दों में विषय के क्रांतिकारी होते हुए भी नयापन नहीं है। मुक्तिबोध जब घोषित करते हैं कि ''उर्वशी' एक विलक्षण काव्य है। दैहिक काम संवेदनाओं की परिपूर्ति में परमतत्व के साक्षात्कार का प्रयत्न ही इस विलक्षणता को जन्म देता है।''[vii] तो यह पूछना जरूरी लगता है कि किसकी 'दैहिक काम संवेदनाओं की परिपूर्ति'? उर्वशी की या पुरुरवा की, अथवा समभाव से दोनों की? पुरूरवा की उक्ति है-
''रूप का रसमय निमन्त्रण
या कि मेरे ही रूधिर की वह्नि
मुझको शांति से जीने न देती।
हर घड़ी कहती, उठो,
इस चन्द्रमा को हाथ से धरकर निचोड़ो,
पान कर लो यह सुधा, मैं शांत हूँगी।''[viii]
उठने की ललकार, हाथ से निचोड़ना, पान करना फिर शांति का आश्वासन ये सारी कामुक क्रियाएँ पुरुष संदर्भ से हैं। पुरूरवा, उर्वशी के समक्ष अपना परिचय और प्रेम-निवेदन इस प्रकार करता है-
''मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं।
अन्ध तम के भाल पर पावक जलाता हूँ,
बादलों के सीस पर स्यन्दन चलाता हूँ।
...............................................
...............................................
मैं तुम्हारे बाण का बिंधा हुआ खग,
वक्ष पर धर सीस मरना चाहता हूँ।
मैं तुम्हारे हाथ का लीला-कमल हूँ,
प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ।''
पुरूरवा का यह प्रेम-निवेदन ठेठ पुंसवादी दृष्टिटकोण का परिचायक है। वह नायक है अब भोक्ता होना चाहता है। सुख पाना चाहता है। एक कामातुर और ताक़तवर पुरूष को सुंदर स्त्री को भोगने का अधिकार हमारा शास्त्र देता है। पुंसवादी परंपरा देती है, यहाँ स्त्री का मन और उसकी बाधाएँ, इच्छा अनिच्छा , आनंद जैसे सवाल सामने ही नहीं आते। उर्वशी जिस भाव से देह भाव का निषेध करती है, वहां स्त्री का अपनी देह को लेकर कोई नजरिया व्यक्त नहीं होता। बल्कि आध्यात्मिकता का रंग देने के लिए इस तरह की उक्तियाँ उससे कहलवाई गईं हैं।
''पर, क्या बोलूँ? क्या कहूँ ?
भ्रान्ति यह देह-भाव।
..........................
प्रिय! मैं केवल अप्सरा
विश्वनर के अतृप्त इच्छा-सागर से समुद्भुत।''
उर्वशी के चरित्र को लेकर रचनाकार के मन में यह द्वन्द्व नहीं कि वह स्त्री के संदर्भ में किसी आधुनिक विचार को सामने रख रहा है। सन् 1960 की आधुनिक स्त्री की अस्मिता का निरूपण करना भी उसका लक्ष्य नहीं है। उर्वशी की पहचान क्या है, यह उर्वशी से कहलाए गए रचनाकार के शब्दों में-
''नारी की मैं कल्पना चरम नर के मन में बसनेवाली।''
उर्वशी का वक्तव्य सुन पाठक को यह लग सकता है कि वह किसी स्त्री की नहीं किसी सुख-दुख से परे किसी अलौकिक जीव की कथा सुन रहा हो। प्रणय स्त्री के जीवन का एक हिस्सा है। उसके पहले और बाद भी स्त्री के अस्तित्व के साथ जुड़ी अनेक दुश्वारियों से जैसे उर्वशी का परिचय ही नहीं। वह कहती है-
''भू-नभ का सब संगीत नाद मेरे निस्सीम प्रणय का है,
सारी कविता जयगान एक मेरी त्रयलोक-विजय का है।
प्रिय मुझे प्रखर कामना-कलित, सन्तप्त, व्यग्र, चंचल चुम्बन,
प्रिय मुझे रसोदधि में निमग्न उच्छल, हिल्लो-निरत जीवन।
तारों की झिलमिल छाया में फूलों की नाव बहाती हूँ,
मैं नैश-प्रभा, सब के भीतर निश की कल्पना जगाती हूँ।''
स्त्री के संबंध में कहें कि उसकी अस्मिता, अस्तित्व इनके साथ सदियों से जुड़ी सामाजिक भेदभाव जैसे कोई मुद्दा ही नहीं। बस उसकी एक ही भूमिका है कि वह निस्सीम प्रणय भाव में डूबी रहती है। अगर मान लें, जैसा रचनाकार कहना चाहता है कि यह चिरंतन स्त्री की छवि है तब भी स्त्री-पुरुष दोनों के काम संबंधों की सामाजिकता का विवेचन करना जरुरी है। उर्वशी कहती है-
'' मैं देश-काल से परे चिरन्तन नारी हूँ।
मैं आत्मतंत्र यौवन की नित्य नवीन प्रभा,
रूपसी अमर मैं चिर-युवती सुकुमारी हूँ।''
उर्वशी के रूप में स्त्री के चिरन्तन रूप की जितनी दार्शनिक व्याख्या कर लें परन्तु स्त्री के अस्तित्व के साथ, उसकी अस्मिता के साथ, उसकी देह और यौनिकता के साथ जुड़े जितने पक्ष हैं उनमें से किसी पर भी बात न करना , केवल स्त्री-पुरूष के चिरन्तन मोह और प्रणय की बात करना सत्य के बड़े पक्ष को ओझल करना है।
यहां पर उल्लेखनीय है कि 'उर्वशी' के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार लेते हुए दिनकर ने जो भाषण दिया था वह उनके साहित्य संबंधी विवादास्पद नजरिए का प्रमाण है और उसकी ओर आलोचकों ने तकरीबन ध्यान ही नहीं दिया।
( डॉ सुधा सिंह )
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संदर्भ -
[i] कल्पना का उर्वशी विवाद, सिंह, गोपेश्वर, (सं), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010, पृ. 117
[ii] कल्पना का उर्वशी विवाद, सिंह, गोपेश्वर, (सं), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010, पृ. 117
[iii] मुक्तिबोध रचनावलीः पाँच(1980), जैन, नेमिचंद्र, (सं), राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पेपरबैक संस्करण, 1985,पृ. 468
[iv] वही, पृ. 469
[v] वही, पृ 468
[vi] त्रिपाठी, राधावल्लभ, ऐसी कुगति भई वात्स्यायन की, प्रतिमान, जनवरी-जून, 2014(वर्ष 2, खण्ड2, अंक1), निगम, आदित्य और अन्य,(सं), सीएसडीएस, दिल्ली, पृ. 253-54
[vii] मुक्तिबोध रचनावलीःपाँच, पृ. 463
[viii] उर्वशी, पुरूरवा की उक्ति
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