जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह-ओ-शाम यह किसी फिल्म का एक गीत भर नहीं है बल्कि इसमें छिपा है एक दर्शन जिससे मानव समाज प्रेरित होता है। जो समाज चलायमान होता है वही अपना अस्तित्व बचाए रख पाता है। जब हम घूमेंगे तब ही कुछ नया जानेंगे और समझेंगे कि सभ्यता, संस्कृति और विविधता क्या है। पर यहां यह जरूर ध्यान रखना है कि घूमना और पर्यटन में अंतर है। घूमना और निरंतर घूमना हमारे चलायमान होने का संकेत है लेकिन पर्यटन कहीं न कहीं हमारे प्रदर्शन का और हमारे उपभोक्तावादी समाज का एक फूहड़ प्रदर्शन है। आठ साल उत्तराखंड में जो केदार घाटी में जलजला आया उसके पीछे यही उपभोक्तावादी मानसिकता है। जिसके दबाव के चलते नदी की धारा में होटल बनाए गए और बहाव में गंदगी डालकर उसे बाधित किया गया। वर्ना उत्तराखंड में चार धाम तीर्थयात्रा तो सालों से चली आ रही है लेकिन ऐसा जलजला कभी नहीं देखा गया। यहां तक कि 1962 की उस बाढ़ के वक्त भी नहीं जब गंगा इस कदर लबालब थीं कि आधा ऋषिकेश डूब गया था। अब देखिए कि 2013 में बाढ़ वैसी नहीं थी पर नुकसान पहले से कई गुना ज्यादा हुआ।
घुमक्कड़ी और टूरिज्म में फर्क है। घुमक्कड़ी एक लगन है, एक जुनून और इसके लिए पैसों की जरूरत नहीं होती। लेकिन टूरिजम एक व्यवसाय है। एक घुमक्कड़ दुनिया घूमता है कुछ नया जानने के लिए और कुछ नया समझने के लिए। वह शांति पूर्वक, धैर्य के साथ कहीं भी किसी भी जगह रह लेगा और बसर कर लेगा। लेकिन एक पर्यटक बिना शोर शराबे के नहीं रह सकता। वह जहां जाएगा सबको बता देगा कि वह कुछ खास है। इस इलाके को उपकृत करने के मकसद से आया है। इसीलिए आप पाएंगे कि पर्यटन ने सारे संसार का नक्शा बिगाड़ दिया है। उसे भांति-भांति की शराब चाहिए, औरतें चाहिए और हर तरह के व्यंजन। बैंकाक हो, मकाऊ हो, मनीला हो या दुबई आज इसीलिए बदनाम हैं। लेकिन वहां की सरकारें इसे अच्छा समझती हैं।
यही हाल अपने देश में होता जा रहा है। पर राज्य सरकारें पैसों के लालच में पर्यटकों को लुभाने के लिए वह सब करती हैं जिनसे वहां की जलवायु प्रभावित होती है और संस्कृति का ढाँचा बिगड़ता है। आज अगर जगह-जगह परदेसियों को बाहर करने की मांग उठ रही है उसके पीछे यही मानसिकता है। पर्यटक दक्षिण भारत में जाकर मटर पनीर अथवा दाल मखानी या तंदूरी चिकन की मांग करेगा और उत्तर में आकर डोसा, वड़ा एवं इडली मांगेगा। उसे समझ में नहीं आता कि अपनी इस तरह की हरकत से वो बायो डायवर्सिटी को चौपट कर रहा है।
हमारे देश में बाघों को बचाने के लिए टाइगर प्रोजेक्ट की स्थापना उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1971 में कपूरथला के महाराजा ब्रजेंद्र सिंह की अगुआई में की थी। उसे राज्य सरकारों ने पैसों के लालच में चौपट कर डाला है। जिम कार्बेट जैसे अभयारण्य इन्हीं पर्यटकों की बेशुमार आवाजाही से खत्म होता जा रहा है। यदि जिम कार्बेट को बचाना है तो केंद्र सरकार इसे अपने हाथों में ले ले और इसे अफसरों की बीवियों और धनाढ्य पर्यटकों के लिए सैरगाह न बनाए। यहां वही आ सकें जिनकी वाइल्ड लाइफ में दिलचस्पी हो वर्ना उन्हें गेट से ही बाहर कर दिया जाए। इसके लिए जिम कार्बेट के हर प्रवेश द्वार पर सुशिक्षित और प्रशिक्षित लोग रहें जो पर्यटकों को अंदर प्रवेश की अनुमति तभी दें जब वे खुद उनके संयम से संतुष्ट हो जाएं। दुख है कि उत्तराखंड की सरकार जिम कार्बेट का व्यवसायीकरण करे डाल रही है। इस पर अंकुश बहुत जरूरी है।
हिमालय की तराई में शिवालिक पहाडिय़ों के आसपास का सारा जंगल रामगंगा के दोनों तरफ लंबी-लंबी घास के जंगलों से घिरा है। इन्हीं घास के जंगलों में बाघ रहता है। सूर्य की रोशनी उसके शरीर में लंबी घास के बीच में से आती है। इसीलिए बाघ के शरीर में चारों तरफ लाइनें होती हैं। जबकि तेंदुआ सागौन के पेड़ों के ऊपर रहता है इसीलिए पत्तों के बीच से छनकर आई रोशनी उसे मिलती है। उसके बदन पर चित्तियां होती हैं। जंगल के कुछ कायदे-कानून होते हैं उन्हें हमें फालो करना चाहिए। किसी भी अभयारण्य में हथियार लेकर अथवा कोई मादक पदार्थ लेकर नहीं जा सकते। अभयारण्य का मतलब ही है कि हम वाइल्ड लाइफ के बीच जा रहे हैं। यह उनका घर है इसलिए हमें उनकी सुविधा असुविधा का ख्याल रखना चाहिए। हम वहां जंगल में गेस्ट हाउस के बाहर कुछ खाएं पिएंगे नहीं। कोई पोलीथीन नहीं इस्तेमाल करेंगे और कोई चीज़ फेकेंगे नहीं न ही हम वहां शोर शराबा अथवा मोबाइल इस्तेमाल करेंगे।
हर रिजर्ब फारेस्ट या अभयारण्य का हाल यह है, कि उन्हें शहर का कूड़ादान बना दिया गया है, वे बस धनी-मानी लोगों के उपभोग की जगह बन गए हैं। यहां तक कि शिवपुरी के माधव राष्ट्रीय उद्यान में तो अब एक भी जंगली जानवर नहीं बचा है। वहां की झील के मगरों का शिकार होता है। राजाजी नेशनल पार्क को हाथी तस्करों और सागौन माफियाओं ने खत्म कर दिया है। प्रकृति के अंधाधुंध दोहन का ही नतीजा है कि जिम कार्बेट के अंदर अब वैसा सन्नाटा नहीं रहता जैसा कि आज से बीस साल पहले रहा करता था। इसकी वजह है कि हम प्रकृति के साथ अपना आध्यात्मिक जुड़ाव नहीं कायम कर पाते और उससे हमारा तादात्म्य महज रसमी होकर रह गया है। आज कौन जाता है जिम कार्बेट? वह नहीं जिसकी वाइल्ड लाइफ में दिलचस्पी है बल्कि वह जाता है जो सक्षम है और जो मेट्रो की आपाधापी से दूर कुछ दिन जाकर अलग किस्म की मस्ती करना चाहता है इसका नतीजा क्या होता है हम प्रकृति के साथ रहकर अपना आराम तो कर लेते हैं लेकिन प्रकृति और उसके जीव जंतुओं का विनाश कर आते हैं।
प्रकृति के साथ रहना है तो उसकी संस्कृति का और उसकी विविधता का आनंद लेते हुए उसके साथ समरसता का व्यवहार करें। यही अंतर है एक घुमक्कड़ में और एक पर्यटक में।
शंभूनाथ शुक्ल
© Shambhunath Shukla
कोस कोस का पानी (46)
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