बचपन में हम भोजपुरीभाषी होने के कारण एक फिकरा जड़ा करते थे - काना माना दोस, बुढ़िया भरोस। अनर्गल लगने वाले इस फिकरे का अर्थ आज और अभी समझ में आया - अर्थ है "यदि गौर से देखोगे तो गलतियां मिलेंगी, परंतु यह भरोसा है कि इसमें कुछ अच्छा भी मिलेगा।" यह फिकरा अपने अर्थ के साथ इसलिए प्रकट हुआ कि संपादन का समय नहीं है। तुरीयावस्था में संपादन हो भी नहीं सकता, इसलिए यथालिखित को यथा पठनीय मान कर पढ़ें। मैं संपादन कल करूंगा। सोचा था आज इस समस्या से निस्तार मिल जाएगा। अब आपका एक दिन और खराब होगा।
कल की पोस्ट से यह स्पष्ट हो गया होगा कि जिन गाथाओं या इतिहास कथाओं तथा पौराणिक विवरणों के आधार पर ऋग्वेद की व्याख्या संभव है वे बहुत बाद में संकलित होने वाले पुराणों की कथाओं से कई दृष्टियों से भिन्न गाथाएं और कथाएं थी। वास्तव में यदि उन चरणों को किन्ही पात्रों और कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत न किया गया होता तो ठीक वही दशा होती जो दूसरे देशों की रही है। किसी दूसरे देश के पुराणों में अतीत के इतने पिछले चरण से आरंभ। हो कर उन्नत नागर चरण तक के विकास का इतिहास नहीं मिलता यद्यपि भारत में कथा बंद होने के कारण इस सामग्री को व्यवस्थित करके ही इतिहास की सचाई को जाना जा सकता है।
हम ऋग्वेद की व्याख्या में उपयोगी जिन कथाओं की बात कर रहे हैं, उनमें सबसे प्रधान है राम कथा। पहले हमारी समझ उल्टी थी। रामायण और ऋग्वेद के आख्यान में अनेक ऐसी समानताएं हैं जिनके कारण मैंने यह धारणा बना रखी थी रामायण की रचना करने वाले कवियों को ऋग्वेद की बहुत अच्छी जानकारी रही होगी और उन्होंने उन प्रसंगों का बहुत कुशलता से प्रयोग किया होगा। ऋग्वेद की गुत्थियों को सुलझाते हुए ही मैंने पाया की रामकथा का रूप जो भी रहा हो, इसका नाम जो भी रहा हो, परन्तु यह कथा ऋग्वेद से कई हजार साल पुरानी है। इसकी उत्पत्ति देव युग में हुई थी । यह कृषि (यज्ञ) की स्थाई (संस्थित होने) और प्रसार (यज्ञविष्टार) या तन्वन (यज्ञं तन्वन्ति कवयः सुधीतिभिः) की कथा है। हमने आज से तीन साल पहले अपने तीन लेखों - ‘वैदिक की दादी भोजपुरी’, ‘संस्कृत की निर्माण प्रक्रिया’ और ‘देववाणी’ में हम यह स्पष्ट कर चुके है कि देवभूमि या स्थाई खेती का आरंभ पूर्वोत्तर की दिशा में नेपाल के उस भाग में था जो नारायणी के किनारे था भैंसा लोटन (भैंसा में संभवतः गैड़ा भी शामिल है जिसकी बहुलता के आधार पर नारायणी का एक नाम गंडक है। इसके पुराने नाम सदानीरा और करतोया रहे है) से दक्षिण उस क्षेत्र में रहा लगता है, जहां लोकविश्वास के अनुसार वाल्मीकि का आश्रम हुआ करता था।
एक साल पहले नेपाल के प्धानमंत्री ने केपी शर्मा ओली ने असली अयोध्या नेपाल में थी। “ओली ने दावा किया कि भगवान श्रीराम की नगरी अयोध्या भारत के उत्तर प्रदेश में नहीं बल्कि नेपाल के वाल्मीकि आश्रम के पास है। ओली ने कहा कि हम लोग आज तक इस भ्रम में हैं कि सीताजी का विवाह जिस भगवान श्रीराम से हुआ है, वो भारतीय हैं। भगवान श्रीराम भारतीय नहीं बल्कि नेपाल के हैं।” नेपाली कवि भानुभक्त आचार्य की 206वीं जयंती पर उन्होंने यह दावा कियाथा।(हिंदी आउटलुक टीम,14 जुलाई 2020)
उनके अनुसार भगवान राम का जन्म नेपाल के चितवन जिले में अयोध्यापुरी के नाम से जाना जाने वाले माडी क्षेत्र में हुआ था, भारत के अयोध्या में नहीं है। उन्होंने वहां भगवान राम, सीता, लक्ष्मण और अन्य के विशाल मंदिरों के निर्माण का आदेश दिया था। उन्होंने कहा, 'अयोध्यापुरी नेपाल में था। बाल्मीकि आश्रम भी अयोध्यापुरी के पास नेपाल में था। सीता की मृत्यु देवघाट में हुई थी, जो नेपाल में अयोध्यापुरी और बाल्मीकि आश्रम के करीब है।' (Jun 21, 2021 | 17:47 IST | टाइम्स नाउ डिजिटल)
ओली के कहने के ढंग में जो भी अनगढ़ता हो, उनके राजनीतिक निहितार्थ जो भी हों, इस कघन के पीछे
परंपरा का हाथ था । यदि उनके बयान में राजनीति थी तो उसके पाठ में भी राजनीति का कम हाथ नहीं दिखाई देता। हमें उस परंपरा का ज्ञान नहीं था परहम उससे वहुत पहले भाषाई साक्ष्यों के आधार पर पहुंचे थे। एक पृथक राज्य के रूप में नेपाल का जन्म बहुत पुराना नहीं है। सांस्कृतिक दृष्टि से नेपाल आहार संग्रह के चरण से ही भारत का, या उस भौगोलिक इकाई का हिस्सा रहा है जिसका बहुत बाद में भारत नाम पड़ा, और यदि भारत का अर्थ भरण-पोषण का क्षेत्र मानें तो आहार संग्रह के चरण पर भी उस विचरण क्षेत्र का हिस्सा रहा है जिसके लिए भारत की संज्ञा सर्वाधिक उपयुक्त है। देवभूमि शब्द का विस्तार पूरे हिमालय के क्षेत्र तक हुआ था। स्वरंग की कल्पना हिमालय पाार के भूभाग के लिए किया जाता रहा है। हमारी समझ से इस विश्वास के पीछे विगत हिमयुग में साइबेरियाई क्षेत्र से भारत पहुंचने वालों का हाथ जा पहले महागजों क् शिकार किया करते थे और भारत पहुंचने के बाद भी ऐतिहासिक कालों तक ऐसा करते रहे। अघोरी शिव इन्हीं के देव थे जिनके निवास के लिए उन्होंने कैलाश का हिमानी शिखर चुना था। कीलिदास के कुमारसंभव के शिव शिकार किए गए गज की खाल ओढ़े उन्हीं की प्रतिरूप हैं। हिमालय तपोभूमि रहा है, तार्थक्षेत्र रहा है, इसलिए ओली के दोनों कथनों पर हंगामा खड़ा करने से अधिक अच्छा होता इसकी गहराई से छानबीन की गई होती।
अयोध्या नामक नगरी नेपाल में रही हो या नहीं, पहली स्थाई बस्ती नेपाल में ही बसाई गई थी, और (संभवतः कुरु क्षेत्र से) इसे पूर्वोत्तर की दिशा में स्थित माना गया है। इस दिशा को अपराजिता दिशा कहा गया है जिसका अर्थ अयोध्या होता है, और इस नामकरण का कारण भी यह बताया गया है कि पहले असुर कृषिकर्मियों को कहीं टिकने नही देते थे, पराजित करके भगा देते थे, इस दिशा में ठिकाना बनाने के बाद वे कभी पराजित न हुए, इसलिए यहीं यज्ञ स्थापित हुआ। अयोध्या नासकरण का इतना तार्किक आधार अवध की अयोध्या के विषय में उपलब्ध नहीं है:
अपराजित a. Unconquered, invincible, unsurpassed; ˚ता दिक् the north-east direction, (ऐशानी) so called because the Gods were not defeated there; ते (देवासुराः) उदीच्यां प्राच्यां दिश्ययतन्त ते ततो न पराजयन्त सैषा दिगपराजिता Ait. Br., अपराजितां वास्थाय व्रजेद्दिशमजिह्मगः Ms.6.31. -तः 1 A sort of poisonous insect. -2 Name of Viṣṇu; Name of Śiva. अपराजित -अप्रतिहत -जयन्त -वैजयन्त -कोष्ठकान् ...पुरमध्ये कारयेत् Kau. A.2.4. -3 One of the 11 Rudras. -4 A class of divinities forming a portion of the अनुत्तर divinities of the Jainas. -5 Name of a sage. -ता Name of Durgā, to be worshipped on the Vijayādaśamī or Dasarā day; तिष्ठ देवि शिखाबन्धे चामुण्डे ह्यपराजिते Sandhyā; दशम्यां च नरैः सम्यक् पूजनीया$पराजिता । ...ददाति विजयं देवी पूजिता जयवर्धिनी Skanda P. (http://www.sanskritdictionary.com › aparājita)
रामकथा कृषिकथा है तो राम के उस पूर्वरूप का निवास उसी भाग में पड़ना चाहिए जो आज के नेपाल में है न और आदिकवि ने अपनी गाथा देववाणी, अर्थात् पुरानी भोजपुरी में ही लिखी होगी। ऋग्वेद में आए प्रसंगों से ऐसा लगता है कि भले मूल गाथा या सबसे लोकप्रिय गाथा वाल्मीकि नामक किसी व्यक्ति ने लिखी हो कथा का रूप बहुत छोटा था, एक गीत जैसा, पर इसकी लोकप्रियता से प्रेरित हो कर दूसरों अनेक गायकों ने अलग गाथाएं लिखीं जिन्हें उस चरित्र से जोड़ा जाता रहा जिसे वाल्मीकि की कथा में कृषि की दिशा में पहल का प्रतीक पुरुष बनाया गया था। उसका नाम राम नहीं था। होता तो ऋग्वेद में यह इन्द्र न हो जाता। इसलिए उसका नाम विष्णु रहा हो सकता है जिसने बार बार प्रताड़ित किए जाने के बाद असुरराज बलि से थोडी सी जगह मांगी जहां वह निर्विघ्न अपनी तरह से जीविका का प्रबंध कर सकें और संभवतः असुरों ने अपनी समझ से सबसे अनुपयोगी गयन्दबहुल क्षेत्र सौंप दिया और यहां वे इस तरह जमे कि अधिक संगठितहोने के कारण जिन असुरों से कांपते रहते थे, उन पर भारी पड़े और हालत यह हो गई कि उनका कोई ठिकाना न रहा। हो सकता है मेरी प्रस्तुति में कोई चूक हो रही हो इसलिए शतपथ ब्राह्मण सें इसे जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है उस पर ध्यान दें। मैं इनका अनुवाद करूं तो विस्तार हो जाएगा और कुछ जरूरी बातें कही न जा सकेंगी या संदर्भ से हट जाएंगी:
देवाश्च वा असुराश्च । उभये प्राजापत्याः पस्पृधिरे ततो देवा अनुव्यमिवासुरथ हासुरा मेनिरेऽस्माकमेवेदं खलु भुवनमिति - १.२.५.१
ते होचुः । हन्तेमां पृथिवीं विभजामहै तां विभज्योपजीवामेति तामौक्ष्णैश्चर्मभिः पश्चात्प्राञ्चो विभजमाना अभीयुः - १.२.५.२
तद्वै देवाः शुश्रुवुः । विभजन्ते ह वा इमामसुराः पृथिवीं प्रेत तदेष्यामो यत्रेमामसुरा विभजन्ते के ततः स्याम यदस्यै न भजेमहीति ते यज्ञमेव विष्णुं पुरस्कृत्येयुः - १.२.५.३
ते होचुः । अनु नोऽस्यां पृथिव्यामाभजतास्त्वेव नोऽप्यस्यां भाग इति ते हासुरा असूयन्त इवोचुर्यावदेवैष विष्णुरभिशेते तावद्वो दद्म इति - १.२.५.४
वामनो ह विष्णुरास । तद्देवा न जिहीडिरे महद्वै नोऽदुर्ये नो यज्ञसंमितमदुरिति - १.२.५.५
ते प्राञ्चं विष्णुं निपाद्य । च्छन्दोभिरभितः पर्यगृह्णन्गायत्रेण त्वा च्छन्दसा परिगृह्णामीति दक्षिणतस्त्रैष्टुभेन त्वा च्छन्दसा परिगृह्णामीति पश्चाज्जागतेन त्वा च्छन्दसा परिगृह्णामीत्युत्तरतः - १.२.५.६
तं छन्दोभिरभितः परिगृह्य । अग्निं पुरस्तात्समाधाय तेनार्चन्तः श्राम्यन्तश्चेरुस्तेनेमां सर्वां पृथिवीं समविन्दन्त तद्यदेनेनेमां सर्वां समविन्दन्त तस्माद्वेदिर्नाम तस्मादाहुर्यावती वेदिस्तावती पृथिवीत्येतया हीमां सर्वां समविन्दन्तैवं ह वा इमां सर्वां सपत्नानां सम्वृङ्क्ते निर्भजत्यस्यै सपत्नान्य एवमेतद्वेद - १.२.५.७
सोऽयं विष्णुर्ग्लानः । छन्दोभिरभितः परिगृहीतोऽग्निः पुरस्तान्नापक्रमणमास स तत एवौषधीनां मूलान्युपमुम्लोच - १.२.५.८
ते ह देवा ऊचुः । क्व नु विष्णुरभूत्क्व नु यज्ञोऽभूदिति ते होचुश्छन्दोभिरभितः परिगृहीतोऽग्निः पुरस्तान्नापक्रमणमस्त्यत्रैवान्विच्छतेति तं खनन्त इवान्वीषुस्तं त्र्यङ्गुलेऽन्वविन्दंस्तम्मात्त्र्यङ्गुला वेदिः स्यात्तदु हापि पाञ्चिस्त्र्यङ्गुलामेव सौम्यस्याध्वरस्य वेदिं चक्रे - १.२.५.९
तदु तथा न कुर्यात् । ओषधीनां वै स मूलान्युपाम्लोचत्तस्मादोषधीनामेव मूलान्युच्छेत्तवै ब्रूयाद्यन्न्वेवात्र विष्णुमन्वविन्दंस्तस्माद्वेदिर्नाम - १.२.५.१०
तमनुविद्योत्तरेण परिग्रहेण पर्यगृह्णन् । सुक्ष्मा चासि शिवा चासीति दक्षिणत इमामेवैतत्पृथिवीं संविद्य सुक्ष्मां शिवामकुर्वत स्योना चासि सुषदा चासीति पश्चादिमामेवैतत्पृथिवीं संविद्य स्योनां सुषदामकुर्वतोर्जस्वती चासि पयस्वती चेत्युत्तरत इमामेवैतत्पृथिवीं संविद्य रसवतीमुपजीवनीयामकुर्वत - १.२.५.११
इसको न समझ पाने वाले मेरे इस कथन पर भरोसा करें कि (1) यज्ञ का अर्थ उत्पादन ही नहीं कृत्रिम उत्पादन (कषि) है, यदि यह समतिवृद्धि होता (डांगे) तो वे यज्ञ का विरोध न करते और यदि संस्कार होते (बृहदारण्यक उप.) तो विरोध के अवसर होते। इसका अर्थ जैव नहीं, उत्कृष्ट कर्म है - यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म। वह श्रेष्ठतम कर्म - कृषिं कृषस्व वित्ते रमस्व।
बात आज भी पूरी नहीं हुई।
© भगवान सिंह
प्रस्तावना (1)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/04/1_28.html
#vss
No comments:
Post a Comment