Saturday, 16 April 2022

शंभूनाथ शुक्ल / कोस कोस का पानी (45) जंगल में निपट अकेला !

राजीव गाँधी पहले ऐसे प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री को देवता नहीं सामान्य मनुष्य माना। वे अन्य सामान्य मनुष्यों की तरह छुट्टियाँ लेते और “लॉन्ग-लीव” पर परिवार के साथ घूमने जाते। एक बार वे जिम कार्बेट गए और इस अभयारण्य के मुख्य द्वार धनगढ़ी के समीप वन विभाग के संभवतः सुल्तान रेस्ट हाउस में रुके। इस अभयारण्य के अफसर उन्हें यहाँ नहीं ठहराना चाहते थे। वज़ह थी कि तब यहाँ एक तेंदुए का आतंक था। और मनुष्य-भोजी हो जाने के कारण वह इतना चालाक राजनीति-कुशल हो गया था कि किसी की पकड़ में नहीं आ रहा था। कभी वह दबे पाँव आता और मनुष्यों की टोली पर हमला कर देता। अथवा रेस्ट हाउस की छत पर बैठ जाता, जैसे उसमें ठहरा व्यक्ति खुले में आता, वह उस पर टूट पड़ता। पर प्रधानमंत्री राजीव गाँधी उसी में रुके। जबकि उन पर राजघाट और श्रीलंका में आत्मघाती हमले हो चुके थे। लेकिन राजीव खतरों के खिलाड़ी थे, वे नहीं माने। आखिर प्रधानमंत्री बनने के पूर्व वे पायलट जो रह चुके थे इसलिए खतरों के बीच घुसना उनकी आदत थी। वे इसी में ही रुके। फिर छुट्टियाँ बिताकर वे सकुशल लौट आए।

उनकी यात्रा के कई वर्ष बाद मैं जिम कार्बेट गया और ब्रजरानी के काफी आगे ठेठ कोर-एरिया में जाकर मलानी रेस्ट हाउस में पहुंचा। तब तक उत्तराखंड नहीं बना था और उत्तर प्रदेश में तब के फारेस्ट सेक्रेटरी ने मुझे इस रेस्ट हाउस में तीन दिन रुकने का इंतजाम करवा दिया था। यहाँ लाईट का कोई इंतजाम नहीं था। शेर-चीतों-तेंदुओं और भालुओं का सघन वन प्रांतर। एक डीज़ल का जेनसेट था, जिसे चलाकर पीने का पानी भर लिया जाता और रात के वक़्त बाड़ में करंट दौड़ाई जाती, ताकि कोई जानवर रेस्ट हाउस के अंदर न आने पाए। चूंकि इस रेस्ट हाउस में सिवाय फारेस्ट अफसरों के औरों के लिए रुकने की मनाही थी इसलिए यहाँ अपने लिए आटा-दाल-चावल-सब्जी से लेकर नमक-मसाले खुद लाने पड़ते थे. चाय के लिए दूध, चीनी और चाय की पत्ती भी। ब्रेड व मक्खन या अंडे आदि पहले ही लाकर देने पड़ते थे। अन्दर कुछ नहीं मिलता था। बर्तन और लकड़ी ज़रूर इफ़रात में होती। वन विभाग की जो जिप्सी मुझे लेकर आई थी, वह मुझे और मेरे लिए तीन दिनों से काफी अधिक मात्रा का राशन-पानी उतार कर चली गई। ड्राइवर यह भी बता गया कि हो सकता है कि वह समय पर न आ सके क्योंकि रास्ता अक्सर हाथियों के उत्पात से बंद हो जाता है।

रेस्ट हाउस का चौकीदार ही खाना बना देता। यहाँ का चौकीदार एक नेपाली था और उस बियाबान में अकेला रहता। जहाँ कई बार तो महीनों गुजर जाते, किसी मनुष्य के दर्शन न होते। उसके पास खौफनाक किस्सों की भरमार थी। अब उस निपट निर्जन और खतरनाक जीव-जन्तुओं से भरे जंगल में बस हम दो जने थे। मैंने चौकीदार से एक आराम कुर्सी बाहर खुले में मंगाई और उसे चाय बनाने को कहकर मैं उसी कुर्सी पर पसर गया। अगहन का महीना था और दोपहर हो चुकी थी। ऊपर नीले आसमान में यदा-कदा सफ़ेद धूसर बादल का टुकड़ा तैरने लगता। चारों तरफ धूप पसरी थी। रेस्ट हाउस के एक तरफ ज़मीन नीचे की ओर चली गई थी। शायद किसी बरसाती नदी के प्रवाह का क्षेत्र था। बाक़ी तीन तरफ कुछ दूरी तक समतल रास्ता, फिर क्षितिज पर शिवालिक की पहाड़ियां। जिधर नीची ज़मीन थी, वहां कुछ हिरण कुलांचे भर रहे थे। उनसे कुछ दूरी पर बंदर थे। दरअसल जंगल में ये बन्दर ही हिरणों के लिए चौकीदारी का काम करते हैं। घास चरता हिरण शेर की पदचाप न सुन पाता है न सूँघ पाता है, जबकि बन्दर दूर से ही ताड़ लेता है कि 200 फीट की दूरी पर शेर है, वह कीकने तथा उछलने लगता है और पेड़ों की ओर भागता है। बंदरों को ऐसा करते देख हिरण भी समझ जाते हैं कि खतरा करीब है और बस फुर्र। बंदरों की इस चौकीदारी के बदले में हिरण उसे खाना देते हैं। जंगल का एक अलिखित क़ानून है, कि हर जानवर एक-दूसरे का अन्योन्याश्रित है।

चौकीदार चाय ले आया था। उसने यह भी बताया कि "शाब माचिस ख़त्म है", और ड्राइवर दे नहीं गया था इसलिए उसने किसी तरह पत्थर रगड़ कर आग बनाई। मुझे लगा यह जिम कार्बेट का जंगल, किसी टाइगर प्रोजेक्ट का हिस्सा नहीं है। बल्कि मैं ही आधुनिक सभ्यता से दसियों हज़ार साल पीछे के वक़्त के किसी युग में आ गया हूँ। जहाँ आग नहीं है, बिजली नहीं है, पानी भी नहीं है। मैंने सोच लिया कि आने वाले तीन रोज़ या उससे कुछ ज्यादा दिनों तक मुझे इन जानवरों के क़ानून सीखने होंगे। यहाँ न वाहनों की आवाजाही थी, न कोई शोर-शराबा, न धुआँ न प्रचुर मात्र में भोजन और न ही कोई सुभीता! इसलिए मुझे भी अब हिरणों की तरह या हाथी और भालुओं की ही तरह रहना था। मैंने चौकीदार से पूछा आग सहेज कर रख ली है? बोला- "जी हाँ". चौकीदार खाना बनाने में लग गया। हालाँकि यह बता गया कि शाब, मुर्गे का इंतजाम है। मैंने जानना चाहा कैसे, क्या जंगल में मुर्गा इफरात है? उसने टोका- "शाब, ऐसे न बोलो। जंगल में कुछ नहीं, मैंने पाल रखे हैं" हालाँकि तब तक नवाब पटौदी या सलमान खान जैसी जुर्रत तो किसी ने नहीं की थी। लेकिन कुछ वर्ष पूर्व बिजनौर के डीएम और एसपी ने एक हिरण पर गोली चला दी थी, जिसके कारण कुछ छर्रे हिरण को लगे थे। संयोग था कि बाघ संरक्षण को धार देने वाले ब्रजेन्द्र सिंह (जिन्हें ताउम्र चीफ फारेस्ट वार्डन बनाया गया था) उस समय जिम कार्बेट में ही थे, उन्होंने प्रधानमंत्री से कह कर उन्हें सज़ा दिलवाई थी। इसके कारण जिम कार्बेट में शिकार की बात तो कोई सोच नहीं सकता था। ब्रजेन्द्र सिंह पैदल ही इस अभयारण्य का राउंड लिया करते थे।

दोपहर ढलने लगी, तब मैंने आसपास घूमने की ठानी। जिस रास्ते मैं इस रेस्ट हाउस में आया था, उसी रास्ते करीब एक मील तक गया। कच्चा और सकरा रास्ता। बीच-बीच में जबरदस्त खुशबू वाले रक्तपुष्प खिले थे। और अजीब-सी शान्ति थी. कोई आवाज़ नहीं, खरखराहट तक नहीं। न कोई पशु न पक्षी। अचानक एक जगह हाथी की ताज़ी लीद दिखी, तो मैं वापस हो लिया। हाथी आसपास ही होंगे। वापसी पर चौकीदार ने बताया कि इन फूलों के लिए भालू यहाँ खूब आते हैं। तब मुझे अपनी लापरवाही पर क्रोध हो आया। वह तो समय जानवरों के सोने का था वरना किसी भी हिंसक जानवर से सामना हो सकता था। शाम चाय के बाद मैं बाड़ के भीतर ही निरर्थक ही टहलने लगा। इस रेस्ट हाउस में दो सुइट थे और एक साझा बैठका। इसमें सोफे पड़े थे, फायरबॉक्स था,  और दीवालों पर जिम कार्बेट अभ्यारण्य के मानचित्र टंगे थे। जिम कार्बेट की एक पुस्तक भी रखी थी। इस रेस्ट हाउस से कोई सौ फीट दूर चौकीदार का क्वार्टर था। वहीँ किचेन था। शाम को पीने का पानी भरने के लिए जेनरेटर चलाया गया। और सोलर प्लांट के जरिये बाड़ के तारों पर करेंट दौड़ा दिया गया। जिस दरवाज़े से जिप्सी आई थी, उस पर भी बाड़ लगा दी गई। अब इस 100 मीटर चौड़े और कोई 180 मीटर वाली जगह हम दो लोग ही थे, जो बाड़े में थे। इसके बाहर जंगल था और स्वतंत्र विचरते जानवर।

रात खाने के बाद चौकीदार बर्तन ले गया और स्टील के एक जग में पानी तथा एक गिलास रख गया। एक बड़ी टॉर्च भी, क्योंकि तब तक मोबाइल नहीं आया था कि उसके जरिये कुछ रोशनी कर ली जाती। अब मैं उस निपट अँधेरे में अकेला था। लेकिन अभी तो कुल साढ़े सात ही बजे थे, इसलिए चौकीदार को बुला लिया, बतियाने के वास्ते। उसने बताया कि उसे तो अब जानवरों से डर नहीं लगता और वह यह पूरा जंगल कई बार घूम चुका है। अब तो यह टाइगर कंजर्वेशन स्कीम में है और यहाँ पर शिकार पर रोक है, पर जब यह आम जंगल था, तब भी है खूब घूमा करता था। एक जानवर की आवाज़ आई तो उसने बताया कि यह बार्किंग डीयर की काल है और यह इशारा है कि उसने आसपास शेर है, होशियार हो जाओ। मैंने बहुत देर तक उस तरफ को कान लगाए पर किसी शेर की दहाड़ नहीं सुनाई दी। मुझे लगा यह चौकीदार इस निर्जन में रहते हुए कुछ ज्यादा ही सतर्क रहता है। आसमान में खूब सारे तारे थे, इतने तारे तो शायद मैंने अपने गाँव में भी न देखे होंगे। अगहन के उजियारे पक्ष की दशमी थी, इसलिए थोड़ी चांदनी भी पसरी हुई थी। शाम जैसे-जैसे ढलने लगी, हमारे रेस्ट हाउस का भवन, सामने का मैदान और बाड़ के उस पार से टकटकी लगाए हिरण जैसे कई जानवरों की आँखें चमकने लगीं। चौकीदार ने बताया कि जैसे-जैसे रात और गहराएगी यहाँ और तमाम आँखें चमकेंगी।

कुछ देर बाद जब रात गहराई तो मैं अपने कमरे पहुंचा। वहां घुप अँधेरा पसरा था। हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। कमरा चूँकि कई दिनों से बंद रहा था, इसलिए अजीब-सी गंध भी भरी थी, और नवम्बर के बावजूद कुछ गर्मी महसूस हुई तो मैंने खिड़की खोली। ठंड का एक झोंका भीतर घुस आया। किसी चिड़िया के चीखने की तेज़ आवाज़ आई। साथ ही कुछ रौशनी भी, क्योंकि चाँद अभी आसमान पर था। यहाँ से बाड़ के उस पार सैकड़ों-हज़ार जुगनू चमक रहे थे, पर वे जुगनू नहीं बाड़ के उस पार के जानवर थे, जो अन्दर आना चाहते थे। मगर करंट के कारण नहीं आ पा रहे थे। जानवर के अन्दर भी एक नैसर्गिक चेतना होती है, जो उसे अप्राकृतिक खतरों से भी आगाह कर देती है। मैं अनुमान लगाने लगा वे कौन-कौन हो सकते हैं, शेर-तेंदुआ-भालू या हाथी! किन्तु कहीं कोई आवाज़ नहीं, इसलिए हाथी नहीं हो सकते। मैंने टॉर्च जलाकर बिस्तर को चेक कर लिया। कहीं कोई बिच्छू न हो। सांप हालाँकि थे पर चिकनी फर्श पर सांप का खतरा कम होता है। मैं लेट गया। थोड़ी देर बाद नींद आ गई। अचानक मुझे लगा कोई मेरा पलंग पलटाने की कोशिश कर रहा है और एक विशालकाय हाथी पलंग को बाहर की तरफ ठेल रहा है। भड़भड़ा कर मैं उठ बैठा, कहीं कोई नहीं। पलंग उसी तरह, उसी जगह बिछा था। चाँद डूबने लगा था इसलिए रात और डरावनी तथा काली होती जा रही थी,। मैं टॉर्च लेकर वाशरूम गया और हनुमान चालीसा का पाठ करते हुए सो गया, अचेतन में लगा एक बाघ सामने है और मैं चीखना चाहता हूँ पर चीख नहीं निकल रही है, मेरी साँस तेज़ी से चल रही है, उठ बैठा। फिर कहीं कुछ नहीं। रात घनी थी, टॉर्च जलाकर समय देखा तीन बज रहे थे और ठंडक बढ़ने लगी थी। मैंने कंबल ओढ़ लिया और चेहरा ढक लिया। मगर घुटन होने लगी और यह भी लगे कि कमरे में कोई और है टॉर्च जलाओ, तो कहीं कुछ नहीं। डर, भय और कपकपी से गुजरते हुए तीन घंटे और खुली आँखों में गुजार दिए। अब पौ फटने लगी थी और खुली आँखों के समक्ष कुछ नहीं था। ऊपर छत पर बंदर कूद रहे थे, मैं फिर सो गया, जब उठा तब पाया नौ बज चुके थे। बाहर धूप खिली थी और मेरे दिमाग के अंदर भी कि कहीं कुछ नहीं है। न कोई अदृश्य शक्ति न कोई देवता न हनुमान जी या न कोई रावण! जो हैं सो हम हैं और हमारा चित। जो जब अज्ञान में रहता है तो ईश्वर नामक किसी अदृश्य शक्ति से डरता है। और जब रौशनी उसकी आँख खोल देती है, तो कुछ नहीं होता। काश लोग इस बात को समझ सकें।

शंभूनाथ शुक्ल
© Shambhunath Shukla

कोस कोस का पानी (44)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/04/44.html
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