नगर बना और बसा करते थे। चाहे पाटलिपुत्र हो या रोम। वे शून्य से शुरू होकर एक वैभवशाली नगर में तब्दील हुए। मैं जब इन नगरों का नक्शा देख रहा था, तो एक पुरानी बात याद आयी।
एक बार विश्वविद्यालय में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन था, जिसमें विद्यार्थी ही मेज़बान बन गए थे। मेरे साथ ‘अर्बन प्लानिंग’ विभाग के कुछ लोग रुके। दो जर्मन, एक अमरीकी। उनसे मैंने कहा कि तुम लोग नगर के डॉक्टर हो, मेरे पास एक मरीज है, ठीक कर दोगे? उन्होंने हँस कर कहा कि हमारे सम्मेलन में चलो, वहाँ कई डॉक्टर हैं। मैं जब पहुँचा तो तमाम डिज़िटल मॉडल, अनाप-शनाप में मैं बोर हो गया।
तभी एक अपरिचित भारतीय शोधार्थी वहाँ बोलने आयी। उनका पूरा वक्तव्य सिर्फ़ नगर के जल, नालियों और मल-निकास व्यवस्था पर था। बाद में जब हम एक बार में बैठे तो उन जर्मनों ने कहा कि यह विषय अनूठा था क्योंकि यूरोप में हम इस पर ध्यान नहीं देते। इसकी वजह यह है कि ये नालियाँ सदियों पहले बनायी गयी, और चल रही हैं।
यह कहानी इसलिए याद आयी क्योंकि मैं जिस नगर में पला-बढ़ा, वहाँ शायद ही कोई बरसात हो, जब हम पतलून घुटने तक मोड़ कर और एक ईंट से दूसरे ईंट पर कूदते हुए न चले हों। मगर इतिहास में ऐसा न था। सिंधु घाटी के समय से ही, जब नगर बसाए जाते, तो सबसे पहले नालियाँ ही बनायी जाती। रोम की शुरुआत भी ऐसे ही हुई।
आज के रोम के नीचे ढाई हज़ार वर्ष पुरानी नालियों का एक जाल है। इसका नाम है- ‘क्लोका मैक्सिमा’, जिसे रोम के प्राचीनतम राजाओं में एक टारक्विन ने बनवाना शुरु किया। जिन प्राकृतिक बरसाती दलदल से पतली नालियाँ बह कर टाइबर नदी में गिरती थी, उनको गहरा और ईंट से पक्का बना कर ढक दिया गया। नगर उन नालियों के ऊपर बसा। वे इतनी अधिक हैं कि रोम के नगर निगम ने आज तक सभी नालियाँ देखी भी नहीं हैं।
यह काम सुचारु रूप से हो सके, इसके लिए रोमन राजा ने दो चीजें की। पहली यह कि उन्होंने इन नालियों को एक देवी का रूप दिया- ‘क्लोसिना’। मैं हाल में सोपान जोशी की पुस्तक ‘जल थल मल’ में जब उस देवी की मूर्ति देख रहा था, तो अचंभित हुआ कि मल की भी देवी! आज हम स्वच्छता के अभियान चलाते हुए मल-निकास के ‘ब्रांड एम्बेसडर’ चुनते ही हैं। राजा ने सोचा होगा कि मल की अगर देवी हो, तो कोई यूँ ही जहाँ-तहाँ नहीं फेंकेगा। बाद में कचरा सड़क पर फेंकने वालों पर जुर्माना और सजा भी मुकर्रर हुई।
दूसरी चीज जो रोम ने की, वह अमानवीय था। उन्होंने अफ़्रीका से गुलाम पकड़ कर लाए, पड़ोस से युद्ध लड़ कर बंदी बनाए। उन्हें इन नालियों की खुदाई में लगा दिया। यह इतना भयानक परिश्रम था, कि कई उन सुरंगों में ही घुट कर मर गए। कई ने आत्महत्या कर ली। चाबुक से मार-मार कर यह विश्व-स्तरीय और टिकाऊ मल-निकास व्यवस्था तैयार हुई।
ऐसा नहीं कि भारत में यह व्यवस्था नहीं थी। बल्कि पाटलिपुत्र की खुदाई में बेहतरीन जल-निकास व्यवस्था के प्रमाण मिले। आज जिस जल-जमाव से पटना और आस-पास के इलाके जूझ रहे हैं, उसके सूत्र अगर इतिहास में ढूँढे तो मिल जाएँ। किस्मत रही तो एक पूरा नेटवर्क मिल जाएगा, जो गंगा नदी में जाकर मिल रहा होगा। एक बार शहर बसने के बाद सड़क खोद कर नालियाँ बनाना कठिन होता है, यह कार्य नगर-निर्माण से पूर्व ही संभव है।
रोम के बसने के लगभग ढाई सौ वर्ष हुए थे, जब ये नालियाँ बननी शुरू हो रही थी। उसके बाद एक इंजीनियर दिमाग का युवा राजा गद्दी पर बैठा, जो रोम को एक आधुनिकतम नगर में तब्दील करने वाला था। आलीशान भवन, पक्की सड़कें, बेहतर जल-निकास। जूपिटर देव का एक भव्य मंदिर।
उसने रोम में चमक-दमक तो लायी, लेकिन वह प्राचीन रोम का क्रूरतम राजा भी बना। संभव है कि इस नाली-निर्माण में गुलामों को पिटवाते हुए वह रक्तपिपासु बन गया हो। प्राचीन रोम के उस आखिरी राजा का नाम था- टारक्विनस सुपरबस ‘द प्राउड’ (घमंडी अर्थ में)
रोम का यह निर्माता इतना क्रूर था कि रोम वासियों ने यह प्रण ले लिया कि अब इस गद्दी पर कभी कोई राजा नहीं बैठेगा। उनके समक्ष प्रश्न यह था कि अगर राजा नहीं होगा, तो क्या होगा। हमारे समक्ष प्रश्न यह है कि इतने शक्तिशाली राजा को रोमवासियों ने हटाया कैसे। इतनी हिम्मत किसमें थी?
रोमन इतिहास में एक नाम बार-बार आएगा- ब्रूटस!
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
रोम का इतिहास (2)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/04/2.html
#vss
No comments:
Post a Comment