Sunday, 10 April 2022

आनंद वेताल / राम शब्द का अर्थ

राम शब्द का व्याकरणिक अर्थ है सुंदर. संस्कृत की √रम् धातु से भावात्मक घञ् प्रत्यय लगाकर राम शब्द निष्पन्न होता हैं. रमन्ते योगिनो यत्र इस व्युत्पत्ति से राम शब्द बनता है.

रामरक्षास्तोत्रमंत्र के रचयिता बुधकौशिक ऋषि ने राम शब्द के साथ प्रत्यय जोडकर अद्भुत श्लोक लिखा है-
आरामः कल्पवृक्षाणां
विरामः सकलापदाम्।
अभिरामस्त्रिलोकानां
रामः श्रीमान् स नः प्रभुः।।
जोकल्पवृक्षों के आराम (उपवन) हैं, समस्त आपदाओं के विराम (समाप्ति) हैं तथा तीनों लोकों में अभिराम (सुंदर) हैं ऐसे श्रीयुक्त राम मेरे प्रभु हैं.

ऐसा ही अर्थ सामान्यतया किया जाता है. मेरे मन में प्रश्न उठा कि राम तथा अभिराम दोनों का एक अर्थ कैसे होगा. कोशों में भी प्रायः यही अर्थ दिया है.

बुधकौशिक ऋषि ने स्तोत्र में आगे भी तीन बार इस शब्द का प्रयोग किया है.
रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरंं सीतापतिं सुंदरं
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्।
राजेन्द्रं सत्यसन्धं दशरथतनयं श्यामलं शान्तमूर्तिं
वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्।।

लोकाभिरामं रणरंगधीरं
राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् ।
कारुण्यरूपं करुणाकरं तं
श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये।।

आपदामपहर्तारं
दातारं सर्वसम्पदाम्।
लोकाभिरामं श्रीरामं
भूयो भूयो नमाम्यहम्।।

यहांँ रामं लक्ष्मण० इत्यादि श्लोक में पहले ही सुन्दर इस शब्द का प्रयोग है. इसी प्रकार लोकाभिरामं रण० इस श्लोक में राजीवनेत्र शब्द प्रयुक्त है जो शारीरिक सौंदर्य को प्रकट करता है. अतः अभिराम का अर्थ कुछ अधिक गहरा होना चाहिए. वा० शि० आप्टे ने अपने कोश में इस शब्द के साथ कालिदास के शाकुन्तल का श्लोकांश उद्धृत किया है- ग्रीवाभङ्गाभिरामं०. यहाँ इस श्लोक में मृग के गरदन मोडने में अभिरामत्व दिखलाया है. इसमें कैसा सौंदर्य? पर कवि की दृष्टि है. कवि को उस दृष्टि में कातरता, भय, चपलता से बच निकलने की आतुरता, भयरहित स्थान तक पहुँचने की तत्परता आदि दिखाई देते हैं. इसीलिए अभिराम शब्द का प्रयोग है.

रामरक्षा में भी चारों स्थानों पर लोक शब्द जोड़ा गया है. इसीका अर्थ है कि राम का सौंदर्य मात्र शारीरिक नहीं अपितु लोक से जुड़ा हुआ आकर्षण है.

इसी प्रसंग में बचपन में सुनी एक कथा का प्रसंग स्मरण आ रहा है. कथावाचक महोदय बतला रहे थे कि रामायण में तीन पुरियों का वर्णन आता है. अयोध्यापुरी, जनकपुरी तथा लंकापुरी. राम ने अयोध्यापुरी को अपने शील से, जनकपुरी को अपने रूप से तथा लंकापुरी को अपने बल से जीता था.

तात्पर्य यह है कि श्रीराम में अनेक गुण प्रकर्ष से थे जो उनके दर्शन मात्र से अनुभव किए जा सकते थे. अपनी अपनी दृष्टि है. शूर्पणखा को जो सौंदर्य मादक और कामुक लगा वही सौंदर्य जनकपुरवासियों को आकर्षक व प्रणम्य लगा.

प्रभु रामचंद्र लोकनायक थे. सभी के लिये मार्गदर्शक थे. दर्शन मात्र से बाधा दूर करने तथा कामना पूर्ण करने वाले थे. गोस्वामी जी ने सच ही कहा है -
जाकी रही भावना जैसी
प्रभु मूरति देखी तिन तैसी । 

आज राम नवमी के दिन प्रभु रामचंद्र के इस दिव्य अभिरामत्व को बारंबार प्रणाम.

© Anand Vetal 
साभार वागर्थ विचार

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