Monday, 31 January 2022

अर्थव्यवस्था की चुनौतियां और बजट 2022 से उम्मीदें / विजय शंकर सिंह

संसद का बजट सत्र शुरू हो चुका है। 1 फरवरी को लोकसभा में, सरकार, देश का बजट प्रस्तुत करने जा रही है। बजट में समक्ष खड़ी चुनौतियों का सामना और समाधान कैसे करती है, और एक साल तक के वित्तीय ढांचे की क्या रूपरेखा तय होती है, इस पर तो तभी लिखा जा सकेगा, जब पूरे बजट प्रस्ताव सार्वजनिक हो जांय और उनके अध्ययन के साथ अर्थ विशेषज्ञों के बजट विश्लेषण आ जांय। फिलहाल, भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने आने वाले प्रमुख मुद्दे क्या हैं, और उनके समक्ष कौन सी चुनौतियां है, बजट में किस सेक्टर पर विशेष ध्यान देन की जरूरत है, इन विन्दुओं पर विचार करते है। 

आम बजट हर साल 1 फरवरी के दिन पेश किया जाता है। इसके ठीक एक दिन पहले आर्थिक सर्वेक्षण सदन में प्रस्तुत किया जाता है। आर्थिक सर्वेक्षण के द्वारा, अर्थव्यवस्था का खाका प्रस्तुत किया जाता है, और पूरा लेखा.जोखा रहता है। आर्थिक सर्वेक्षण के माध्यम से, सरकार देश को अर्थव्यवस्था की वर्तमान दशा बताती है। साल भर में विकास का क्या ट्रेंड रहा, किस क्षेत्र में कितनी पूंजी आई, विभिन्न योजनाएं किस तरह लागू हुईं आदि आदि, इन सभी बातों का पूरा विवरण होता है। इसके साथ ही इसमें सरकारी नीतियों की जानकारी भी होती है। आर्थिक सर्वेक्षण, वित्तीय वर्ष अप्रैल 2022 से मार्च 2023 में 8 से 8.5 प्रतिशत की विकास दर का अनुमान लगाया गया है जो चालू वित्त वर्ष के 9.2 फीसदी जीडीपी वृद्धि दर के पूर्व अनुमान से कम है।

आज देश के सामने आर्थिकी के क्षेत्र में सरकार और सरकार के वित्तीय प्रबंधकों के समक्ष सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या हमारी अर्थव्यवस्था कोरोना महामारी के उन प्रभावों से उबरने की राह पर है जिसके कारण देश मे आर्थिक मंदी का वातावरण बन जाने की आशंका आ गयी थी ? सुधार की वास्तविक स्थिति का आकलन तभी किया जा सकता है जब हम, वित्तीय वर्ष 2019-20 यानी, महामारी काल के पहले के आर्थिक संकेतकों की तुलना, आज के आर्थिक संकेतकों से करें। हालांकि महामारी के दौर से हम अब भी पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए हैं। फिलहाल हम कोरोना के तीसरी लहर से गुज़र रहे हैं, पर यह समय, तबाही भरी दूसरी लहर की तुलना में काफी राहत भरा और बेहतर है। 

 भारत सरकार ने हाल ही में राष्ट्रीय आय 2021-22 के उन्नत अनुमान जारी किए हैं। सरकार के आंकड़ों के अनुसार,  महामारी से पहले की अवधि की तुलना में चालू वित्त वर्ष की जीडीपी वृद्धि 1.26% अधिक है।  इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था कम से कम पूर्व महामारी के स्तर पर पहुंच गई है और ठीक होने की राह पर है। लेकिन क्या अर्थव्यवस्था में यह सुधार, आर्थिकी के सभी वर्गों में एक समान है ?  कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यह सुधार, अंग्रेजी के K अक्षर के अनुसार है। इस प्रकार की आर्थिकी सुधार में, समाज का समृद्ध वर्ग तेजी से विकसित होता है, यानी वह और संपन्न होता जाता है, जबकि शेष आबादी की आर्थिक हैसियत तेजी से गिरती जाती है। K की दो भुजाओं की तरह समृद्ध वर्ग उर्ध्वगामी आर्थिक तरक़्क़ी की ओर अग्रसर होता है और आबादी का शेष बड़ा भाग अधोगामी होता जाता है। ज़ाहिर है पूंजी या सम्पत्ति का केंद्रीकरण तेजी से समाज के समृद्ध वर्ग में सिमटता जाता है और वहां भी यह विकास एक समान नहीं होता है, बल्कि अति समृद्ध और वह अति और बढ़ती जाती है। इसे आप आर्थिकी का अतिवाद कह सकते हैं। विकास का K मॉडल अमीर और गरीब के बीच की खाईं को और बढ़ा देता है। 

किसी भी अर्थव्यवस्था में मांग, डिमांड, की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है और उपभोग व्यय किसी भी अर्थव्यवस्था में मांग का सूचक है। यदि उपभोग व्यय यानी कंजम्पशन कम हो रहा है तो, इसका एक बड़ा कारण मांग का कम होना है, और मांग का कम होना, व्यक्ति की क्रय शक्ति, परचेजिंग पॉवर से सीधे जुड़ा है। क्रय शक्ति का कम होना धन की आमद से जुड़ा है और धन की आमद का कम होना, व्यक्ति की माली यानी वित्तीय स्थिति का स्पष्ट संकेत है। यह आर्थिकी के कुछ मूलभूत सिद्धांत हैं। सरकार द्वारा दिये गए, वित्त वर्ष 2021-22 के उन्नत अनुमानों के अनुसार, 'महामारी से पहले की अवधि की तुलना में निजी उपभोग व्यय में 2.9% की गिरावट आई है।  इस प्रकार कुल मिलाकर लोगों द्वारा कम पैसा खर्च किया जा रहा है जिससे विकास में कमी आती है। लेकिन इसी दौरान आयात में 11.8% की बढ़ोतरी देखी गई है। इस आयात का एक हिस्सा औद्योगिक आयात होगा। लेकिन आयात का एक बड़ा भाग वह भी होगा जो उपभोग के लिए मंगाया गया है। यह आंकड़े, इंडियन पोलिटिकल डिबेट की वेबसाइट पर अर्थशास्त्री अनिंद्य सेनगुप्ता द्वारा लिखे एक लेख से लिये गए हैं। अनिंद्य कहते हैं कि, आंकड़ो का अध्ययन यह बताता है कि, 'आयात संबंधी खपत आम तौर पर विलासिता की वस्तुओं के लिए होती है।'

इसलिए इस बात का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि 'जब महामारी-पूर्व अवधि की तुलना आज से की जाती है, तब चालू वित्त वर्ष में कुल खपत में 2.9% की भारी गिरावट देखी गई है। विलासिता के सामानों की खपत में वृद्धि, जिसे आयात के आधार पर परिभाषित करें तो' स्पष्ट दिखाई दे रही है। इससे यह साफ पता चलता है कि, एक तरफ,  जहां समृद्ध जमात की मांग और खपत बढ़ रही है, वहीं बड़े पैमाने पर आम लोगों के लिए इसमें लगातार गिरावट आई है।' यह प्रवृत्ति, निश्चित रूप से K आकार की वृद्धि की ओर संकेत कर रहा है। यह अनुमान केवल अनिंद्य सेनगुप्ता का ही नहीं है, ब्लकि कई अर्थशास्त्रियों का भी है। 

 भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में प्राप्त, अन्य आंकड़ों से भी इसकी पुष्टि की जा सकती है। 16 जनवरी, 2022 को जारी ऑक्सफैम रिपोर्ट, जो आर्थिक असमानता पर एक जाना माना दस्तावेज है की ताजी रिपोर्ट, "असमानता मार रही है" यह बताती है कि, 
● वर्ष 2021 में एक तरफ तो, देश के 84 फीसदी परिवारों की आय में गिरावट आई है, लेकिन इसके साथ ही भारतीय अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गई। 
● महामारी के दौरान भारतीय अरबपतियों की संपत्ति ₹23.14 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर ₹53.16 लाख करोड़ रुपए हो गई।
● वैश्विक स्तर पर चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के ठीक बाद भारत में अरबपतियों की तीसरी सबसे बड़ी संख्या है।
● वर्ष 2021 में भारत में अरबपतियों की संख्या में 39% की वृद्धि हुई है।
● वर्ष  2020 में 4.6 करोड़ से अधिक भारतीयों के अत्यधिक गरीब होने का अनुमान है जो संयुक्त राष्ट्र के आँकड़ों के अनुसार नए वैश्विक गरीबों का  लगभग आधा हिस्सा है।
● वर्ष 2020 में राष्ट्रीय संपत्ति में नीचे की 50% आबादी का हिस्सा मात्र 6% था।
● भारत में बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ रही है। 
आज अर्थव्यवस्था के सामने सबसे महत्वपूर्ण चुनौती, देश मे बढ़ती असमानता है। और यह थमने का नाम नही ले रही है, निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। अर्थव्यवस्था के विशाल बहुमत के साथ K आकार की यह रिकवरी वास्तव में एक प्रकार की अधोगामी आर्थिकी जिसे D कहा जा सकता है, की ओर जा रही है। 

सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती इस असमानता के लिये सबसे अधिक जिम्मेदार, 8 नवंबर 2016 को की गयी नोटबन्दी मानी जा सकती है, जिसने अनौपचारिक क्षेत्र को अस्त व्यस्त कर के अर्थव्यवस्था को लगभग ध्वस्त कर दिया। कोरोना महामारी के प्रकोप के पहले ही 31 मार्च 2020 तक देश की जीडीपी विकास दर में सीधे 2% की गिरावट आ गई थी। सरकार को भी यह तथ्य पता है, इसीलिए वह सड़कों, फ्लाईओवरों की उपलब्धियों को तो गिनाती है पर नोटबन्दी से क्या लाभ हुआ है, इस पर चुप्पी साध लेती है। अर्थव्यवस्था का अनौपचारिक क्षेत्र जो अर्थव्यवस्था के लगभग 90 प्रतिशत से अधिक को रोजगार देता है, लगातार सिकुड़ता जा रहा है और औपचारिक क्षेत्र बढ़ रहा है।  लेकिन औपचारिक क्षेत्र, अनौपचारिक क्षेत्र के सिकुड़ने से उत्पन्न बेरोजगारी को उस अनुपात में एडजस्ट नहीं कर पा रहा है, जिससे अमीर गरीब के बीच बढ़ती हुई खाईं के साथ साथ बेरोजगारी में भी चिंताजनक वृद्धि हो रही है। सीएमआईई के आंकड़े बताते हैं कि दिसंबर तक बेरोजगारी 8% थी।

आज वित्त मंत्री के सामने दो सबसे बड़े मुद्दे और समस्याएं, निरन्तर बढ़ती आर्थिक असमानता और उच्च बेरोजगारी की दर हैं। यह देखना होगा कि, वित्तमंत्री इस बजट में इन मुद्दों और समस्याओ के समाधान के लिये क्या क्या कदम उठाती हैं। फिलहाल वित्त मंत्रालय के सामने विकल्प क्या हैं, एक नज़र इस पर डालते है। अनिंद्य सेनगुप्ता के अनुसार, " संभावित तरीकों में से एक यह हो सकता है कि विभिन्न क्षेत्रों में बजट के पूंजीगत व्यय को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना जारी रखा जाए।  इसका मतलब यह होगा कि बुनियादी ढांचे के विकास के लिए अधिक पैसा दिया जाय, जिससे अर्थव्यवस्था में अधिक रोजगार पैदा हो सके। अन्य संभावित क्षेत्र मनरेगा योजना हो सकती है, जो ग्रामीण आबादी के लिए 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देती है।" 
गारंटीकृत रोजगार सुनिश्चित करने के लिए इस योजना में एक केंद्रित आवंटन की आवश्यकता है। वर्ष के मध्य में मनरेगा में बजटीय आवंटन से अधिक आवंटन के मामले में कई रिपोर्टें आई है। अर्थशास्त्रियों को, उम्मीद है कि इस क्षेत्र में बजटीय आवंटन बढ़ जाएगा। इसके अलावा, वर्षों से बढ़ते शहरीकरण के कारण, शहरी और अर्ध शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारो का एक बड़ा वर्ग पैदा हुआ है। देहाती क्षेत्र के लिये न्यूनतम  रोजगार गारंटी योजना तो है और इसका लाभ भी ग्रामीण क्षेत्रों में जनता को मिला है, पर क्या इसी तरह की कोई योजना, शहरी क्षेत्रों की बेरोजगारी की समस्याओं के समाधान के लिये लाई जा सकती है, यह तो बजट आने के बाद ही ज्ञात होगा।   

एक अन्य क्षेत्र जो अर्थव्यवस्था में मंदी की चपेट में आने के बाद से, लगातार विवाद में रहा है, वह है, नकदी का कुछ क्षेत्रों में एकत्रीकरण। अनौपचारिक क्षेत्र जो मूलतः नकद लेनदेन पर ही चलता है, नोटबन्दी से सबसे अधिक प्रभावित हुआ है। बाजार में गति आये, और मांग बढ़े इसलिए कुछ अर्थशास्त्रियों ने अधिक से अधिक नक़द धन जनता को सीधे देने की एक सुझाव दिया था। पर वह लागू नहीं हो पाया। फिर भी सरकार ने किसान सम्मान निधि के रूप में ₹2000 की धनराशि ज़रूर दी है, पर उससे अर्थव्यवस्था में उतनी गति नहीं आयी जितनी आनी चाहिए थी। थी। नकद हस्तांतरण प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है, यह गारंटीकृत रोजगार योजनाओं के माध्यम से हो सकता है।  देखना होगा कि सरकार इनमें से कोई रास्ता अपनाती है या नहीं। फिलहाल तो बजट प्रस्तावों की प्रतीक्षा है। 

(विजय शंकर सिंह)

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