(चित्र: कामराज और पेरियार)
“No Hindi. No English. How?”
[मुझे न हिंदी आती है, न अंग्रेज़ी आती है, फिर कैसे?]
- के कामराज को जब प्रधानमंत्री बनने कहा गया
कहा जाता है कि कामराज के बाद इतनी संगठन शक्ति सिर्फ़ पूर्व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह में देखी गयी। एक स्कूल ड्रॉप-आउट मितभाषी व्यक्ति, जिनको वाकई तमिल के अतिरिक्त कोई भाषा नहीं आती थी, वह मद्रास के सबसे काबिल मुख्यमंत्री और एक शक्तिशाली ‘किंग-मेकर’ कांग्रेस अध्यक्ष कैसे बने? इस प्रश्न के उत्तर तक धीरे-धीरे पहुँचेंगे।
के कामराज और राजागोपालाचारी में एक बड़ा अंतर तो यही था कि कामराज ब्राह्मण नहीं थे। पेरियार को रोकने के लिए एक अ-ब्राह्मण यानी तमिल धारणा में शूद्र मुख्यमंत्री आवश्यक था। वयोवृद्ध राजागोपालाचारी अपना पद त्यागने को तैयार बैठे थे। कामराज उनसे मिलने गए।
“आचार्य! आप अपने पद पर बने रहें। सिर्फ़ उस जाति-कर्म विद्यालय की जिद त्याग दें।”
“कामराज! मैं अपना पद त्याग कर तुम्हें सौंपता हूँ। मगर वह विद्यालय चलने दो। वह गांधी का मॉडल है।”
“वह कैसे?”
“मुझे कभी छह घंटे विद्यालय जाना पसंद नहीं आया। आज बच्चे चार घंटे विद्यालय जाते हैं, चार घंटे गृह-कर्म करते हैं। जूते बनाते हैं। लोहे का काम करते हैं…”
“मगर वह कार्य तो अपने घर पर करते हैं। स्कूल नहीं सिखाती।”
“हाँ। क्योंकि उनके घर पर वह सुविधा है।”
“क्या एक ब्राह्मण बच्चा भी जूता बनाता है, आचार्य?”
“नहीं। मगर तुम कहना क्या चाहते हो? यह वर्णाश्रम सदियों की पद्धति है…”
“आपको क्या समझाने की ज़रूरत है। आप तो देख ही रहे हैं कि अभी क्या माहौल है। आपकी हर नीति को जातिवादी बताया जा रहा है।”
“हाँ। जानता हूँ। रामास्वामी (पेरियार) को भी तुमसे बेहतर जानता हूँ। उसकी उम्र हो गयी है, मगर ऊर्जा नहीं गयी। मुझमें अब लड़ने की क्षमता नहीं। मुझे विश्वास है, तुम एक काबिल मुख्यमंत्री बनोगे।”
राजाजी ने कामराज को आशीर्वाद तो दिया, मगर अपने एक प्रत्याशी सुब्रमनियन को कामराज के ख़िलाफ़ मुख्यमंत्री पद के लिए खड़ा कर दिया। जीत कामराज की ही हुई। मुख्यमंत्री बनते ही कामराज ने अपनी कूटनीति का पहला सूत्र प्रयोग किया,
“मित्रों को अपने करीब रखो। शत्रुओं को और भी करीब रखो”
उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी सुब्रमनियन को अपना शिक्षा मंत्री बनाया। फिर उन्हीं के हाथों उस विद्यालय को रद्द कराया, जो दरअसल उनकी और राजाजी की ही योजना थी। पेरियार खुश हो गए।
दो महीने बाद गुडियातम विधानसभा उपचुनाव में कामराज के साथ मंच साझा करते हुए पेरियार ने कहा,
“कामराज हम तमिलों का प्रतिनिधि है। उसने कुर्सी संभालते ही आचार्य के जातिवादी विद्यालय बंद कर दिए। कुछ ब्राह्मण नहीं चाहते कि वह पद पर बना रहे। न ही वह मतलबी अन्नादुरइ चाहता है। यह हम सब तमिलों की ज़िम्मेदारी है कि इस काबिल मुख्यमंत्री को पद पर बनाए रखें।”
हर साल पंद्रह अगस्त को पेरियार के समर्थक दल-बल के साथ हिंदी-विरोध करते थे। जहाँ कहीं हिंदी लिखा होता, उस पर स्याही पोतते। मगर 1955 के अगस्त में पेरियार ने कहा, “हम इस वर्ष हिंदी-विरोधी आंदोलन नहीं करेंगे”
सभी चौंक गए कि पेरियार को क्या हो गया। तभी पेरियार ने घोषणा की, “हम इस वर्ष इंडिया का झंडा जलाएँगे!”
कामराज ने उस वक्त उन्हें समझाया, “आपकी समस्या किससे है? मैं यह वचन देता हूँ कि इस राज्य में हिंदी जबरन नहीं थोपी जाएगी। अगर थोपी गयी, तो मैं स्वयं न एक शब्द पढ़ पाऊँगा, न बोल पाऊँगा।”
आखिर पेरियार ने यह झंडा-दहन का कार्यक्रम रद्द किया। उनका ध्यान भटकाने के लिए नया मुद्दा आ गया था।
अक्तूबर, 1955 में जवाहरलाल नेहरू ने फ़जल अली के नेतृत्व में एक कमीशन बिठाया। देश में राज्यों का पुनर्गठन होना था। बिधान चंद्र राय (बंगाल के मुख्यमंत्री) ने प्रस्ताव रखा कि उत्तर प्रदेश की तरह एक बड़े ‘दक्षिण प्रदेश’ का निर्माण हो। इसमें तमिल, मलयाली, कन्नडिगा सभी साथ रहें। कामराज को यह प्रस्ताव पसंद आया। वह फरवरी, 1956 में इस पर हस्ताक्षर करने जा ही रहे थे, कि पेरियार का टेलीग्राम आया,
“दक्षिण प्रदेश में हम तमिल कमजोर पड़ जाएँगे। तुम ‘तमिलनाडु’ का प्रस्ताव रखो।”
पेरियार स्वयं अब द्रविड़नाडु से तमिलनाडु तक सिमट गए थे। केरल, मैसूर (कर्नाटक), मद्रास, आंध्र सभी बँट कर पुनर्गठित होकर राज्य बन गए। अगले वर्ष एक घटना और हुई।
दुनिया में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी ने कोई बड़ा चुनाव जीता*। केरल में उन्होंने कांग्रेस को हराया। अब मद्रास में कामराज, आंध्र में प्रकाशम, कर्नाटक में निजलिंगप्पा के रूप में अ-ब्राह्मण मुख्यमंत्री थे।
वहीं, केरल में ब्राह्मण मुख्यमंत्री चुने गए। यह और बात है कि पेरियार के बाद अगर भारत में कोई बड़े ब्राह्मण-विरोधी थे, तो उनमें एक वही थे। वह थे भारत के पहले ग़ैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री ई एम एस नम्बूदिरीपाद।
(क्रमशः)
*सान मरीनो नामक एक छोटे देश में पहले कम्युनिस्ट पार्टी चुनाव जीती थी, मगर वहाँ की जनसंख्या बमुश्किल तीस हज़ार थी।
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (4)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/4_31.html
#vss
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