“हिंदू धर्म खत्म होना चाहिए ”, पेरियार ने कहा।
“क्यों?”, गांधी ने पूछा।
“क्योंकि ऐसा कोई धर्म ही नहीं।”
“ऐसा है।”
“यह ब्राह्मणों के द्वारा फैलाया भ्रम है।”
“यह बात तो सभी धर्मों पर लागू है।”
“नहीं। बाकी धर्मों में आदर्श और व्यवस्था है जो जनता मन से स्वीकार करती है।”
“क्या ऐसा हिंदू धर्म में नहीं?”
“इसमें कहना क्या है? कौन शूद्र या पंचम मन से पीढ़ी-दर-पीढ़ी शूद्र रहना चाहेगा? सिर्फ़ ब्राह्मण और उनकी वर्ण व्यवस्था है।”
“एक व्यवस्था तो है।”
“ऐसी व्यवस्था का क्या? कोई ऊँची, कोई नीची जाति।”
“नहीं। वर्णाश्रम का अर्थ ऊँची-नीची जाति नहीं है।”
“अब तो प्रायोगिक तौर पर यह ऊँच-नीच है।”
“नहीं। समानता है।”
“समानता हिंदू धर्म में संभव ही नहीं।”
“संभव है।”
“आप कोई धार्मिक तर्क ढूँढ कर दीजिए कि ब्राह्मण और शूद्र में अंतर क्यों किया जाए।”
“तुम तो धर्म मानने को ही तैयार नहीं, तो तर्क क्या?”
“मैं यही कह रहा हूँ कि न धर्म है, न तर्क है।”
“धर्म पर विश्वास करोगे, तर्क अपने आप बन जाएँगे।”
“यह असंभव है। पहले अगर अंधविश्वास कर लिया, फिर कभी तर्क विकसित नहीं होंगे।”
“यह तुम अन्य धर्मों के लिए सही कह रहे हो। लेकिन हिंदू धर्म में यह स्वतंत्रता है कि तुम अपने हिसाब से इसे व्यवहार में ला सकते हो। तुम्हें कोई नहीं रोकेगा।”
“क्या आप अपने हिसाब से इस धर्म में सुधार लाएँगे? क्या आपको रोका नहीं गया?”
“मैं तुम से सहमत हूँ। हिंदू धर्म नहीं है, यह एक जीवन शैली है। इसमें कोई एक स्थापित आदर्श नहीं। इसे मनुष्य अपने आदर्शों से और तर्क से विकसित कर सकता है। तुम अन्य धर्मों में बाइबल और कुरान से भटक नहीं सकते। हिंदू के लिए कोई एक किताब नहीं। हिंदू अगर किसी चीज में पीछे हैं, तो वे आगे आ सकते हैं।”
“किंतु स्वार्थी ब्राह्मण आगे आने नहीं देंगे।”
“तुम ऐसा क्यों सोचते हो? अछूत प्रथा पर कार्य तो हो रहा है।”
“यह सिर्फ दिखावा है। कुछ लोग ऐसे मुहिम के माध्यम से लोकप्रियता पा रहे हैं।”
“और वे लोग कौन हैं?” (गांधी हँस कर)
“ब्राह्मण, और कौन?”
“यह सच है? तुम्हें कोई ब्राह्मण पसंद नहीं? राजागोपालाचारी?”
“वह अच्छे, आदर्शवादी व्यक्ति हैं। अपने समुदाय के लिए समर्पित हैं। किंतु अन्य समुदायों के लिए वह भी कुछ नहीं करते।”
“मुझे तुम्हारी बात पर शंका है। मैं एक आदर्शवादी और ईमानदार ब्राह्मण से मिल चुका हूँ। उनका नाम था गोपालकृष्ण गोखले।”
“आप महात्मा हैं। आपको अच्छे लोग मिलते होंगे। हम ठहरे साधारण लोग, हमें साधारण ही मिलते हैं।”
“(हँस कर) रामास्वामी! दुनिया बुद्धिजीवियों के नियंत्रण में है। अगर हमें नियंत्रित करना है, तो उनके स्तर तक बुद्धि लानी होगी।”
“यह किसी और धर्म में नहीं। सिर्फ हिंदुओं में ब्राह्मणों को बुद्धिमान मान लिया गया है। शेष नब्बे प्रतिशत बिचारे चाहे निरक्षर रहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या किसी समाज में अगर सिर्फ़ दस प्रतिशत ही बुद्धिमान रहें, तो यह समाज के लिए उचित है?”
“तुम क्या सोचते हो? क्या मैं यह मानूँ कि तुम हिंदू धर्म और ब्राह्मणों का नाश करना चाहते हो?”
“यह छद्म हिंदू धर्म तो खत्म करना ही चाहता हूँ जो ब्राह्मणों के हाथ में है।”
“यह सही नहीं। वे मेरी बात तो सुनते हैं। हम सबको साथ मिल कर हल ढूँढने हैं।”
“मेरी यह विनम्र मान्यता है कि यह संभव नहीं। आपने अगर सुधार कर भी दिए तो कोई दूसरा महात्मा इसे पुन: वापस वहीं ला देगा।”
“यूँ सुधार को वापस बदलना आसान नहीं होगा।”
“मुझे क्षमा करें। आप हिंदू धर्म में कोई भी ठोस बदलाव नहीं कर पाएँगे। ब्राह्मण आपको करने नहीं देंगे। आप इतिहास देख लें कि कब ब्राह्मणों ने सुधारकों को स्वेच्छा से कुछ करने दिया है।”
“तुम्हारे अंदर ब्राह्मणों के लिए नफ़रत भरी है। वह तुम्हारी सोच को प्रभावित करती है। मुझे नहीं लगता कि हमारे मध्य अब तक कोई सहमति बन सकी है। लेकिन, हम भविष्य में मिलते रहेंगे। बार-बार।”
1927 में बेंगलुरु में यह इन दोनों के मध्य आखिरी प्रमुख मुलाक़ात थी। उसके बाद वे दाविद-गोलियाथ की तरह राष्ट्रपटल पर दो ध्रुव बन कर रहे।
दोनों न ब्राह्मण थे, न दलित। दोनों एक ही बनावट का चश्मा पहनते। दोनों खूब लिखते और बोलते। एक के अनुयायी श्वेत वस्त्र पहनते तो दूसरे के काले। एक राम की महिमा गाते, तो दूसरे ने राम की निंदा में जीवन बिताया। भविष्य यह तय करेगा कि इनमें किसे कितनी सफलता मिली। उन्हें कितनी मिली जिनका भविष्य ये तय कर रहे थे।
(प्रथम शृंखला समाप्त)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास (18)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/18.html
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