Wednesday, 12 January 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - दो (4)

गांधी एक विषय में स्पष्ट ही नहीं, रूढ़ थे कि दलितों या पिछड़ी जातियों की ऐसी कोई लॉबी न बने जो उन्हें हिंदुओं से अलग कर दे। वह इसे अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो’ रणनीति कहते थे, मगर वह ये भी जानते थे कि ब्राह्मणवाद अंग्रेज़ों की देन नहीं थी। यह समाज-संरचना अंग्रेज़ों ने नहीं बनायी थी। न ही अंग्रेज़ों ने 1930 से पहले दलितों को विशेष आरक्षण देकर या प्रतिनिधित्व देकर फूट डाला था। रही बात मिशनरियों की, तो वह दलितों को ईसाई बनाने के बाद भी राजनैतिक प्रतिनिधित्व या समाज में ऊँचा स्थान नहीं दे रहे थे।

मगर गांधी बहुजन समाज के इस उफ़ान को आखिर कैसे रोकते? मनुस्मृति सिर्फ़ मद्रास में नहीं जलाई जा रही थी, वह बंबई में भी जलाई जा रही थी। बंबई में पेरियार से कहीं अधिक तार्किक, और कहीं अधिक विद्वान व्यक्ति के हाथ में कमान थी। 

25 दिसंबर 1927 को बंबई के महाड में एक झील के सामने खड़े होकर अम्बेडकर ने कहा,

“साथियों! यह झील एक सार्वजनिक संपत्ति है। मगर इसका जल सार्वजनिक नहीं है। हमने देखा कि सवर्ण हिंदुओं ने हमें किस तरह इस जल को पीने से रोक रखा है। विडंबना यह है कि इस जल को मुसलमान पी सकते हैं। ईसाई पी सकते हैं। यहाँ तक कि कुत्ते-बिल्ली पी सकते है। मगर आप अछूत इसे पीना तो दूर, छू भी नहीं सकते। क्या आप पशुओं से भी निम्न हैं? 

सवर्ण हिंदू अन्यथा शांत और अहिंसक हैं। वे जीव-हत्या की निंदा करते हैं, सात्विक जीवन जीते हैं। एक गाय को ही नहीं, सर्प को भी पवित्र मानते हैं। फिर आपको अपवित्र क्यों मानते हैं? 

यह जल कोई अमृत नहीं है कि इसे पीकर आपको अपार आनंद मिलेगा। जल तो आखिर जल ही है। मेरा सत्याग्रह सिर्फ़ इस मुद्दे पर है कि इस जल का ग्रहण कर आप मनुष्य के दर्जे पर तो आएँ। आपको पशु से निम्न न समझा जाए। यह मात्र एक सांकेतिक उपक्रम है।

अगर हिंदू समाज को उन्नत होना है तो इन चार वर्णों की विषमता और इस घृणित अछूत प्रथा से मुक्त होना होगा। हम सबका एक ही वर्ण हो। समानता का वर्ण। 

मैं यह भी चेतावनी देना चाहूँगा कि हम भी आपकी तरह अहिंसक हैं, जब तक आप अहिंसा की राह अपनाते हैं। अगर सवर्ण हिंसा करते हैं, तो हमें उसी भाषा में उत्तर देना होगा। 

मैं अपने विरोधियों को भी यही सुझाव दूँगा कि हटा दें वे रूढ़िवादी ग्रंथ जो इस विषमता की वकालत करते हैं, और न्याय का ग्रंथ अपनाए।”

वहीं बंबई में उस झील के किनारे मनुस्मृति-दहन किया गया। एक साथ भारत के दो महानगरों मद्रास और बंबई में मनुस्मृति का जलाया जाना, और पेरियार और अंबेडकर के रूप में दो हाथी के पैरों का यूँ जम जाना साधारण घटना नहीं थी। यह आग भारत में किसी और को दिखे न दिखे, गांधी को इसकी लपटें स्पष्ट नज़र आ रही थी।

गांधी के नमक सत्याग्रह की ‘टाइमिंग’ पर विमर्श हो सकता है। मगर इस सविनय अवज्ञा आंदोलन की लहर ने उस जलती आग को कुछ हद तक बुझा ज़रूर दिया। खद्दर पहन कर, गांधी टोपी पहने लोग जब साबरमती से डांडी की यात्रा पर साथ चल पड़े; कांग्रेसियों की गिरफ़्तारी होने लगी, तो माहौल ही बदल गया। समाज की ग़ुलामी पर देश की ग़ुलामी भारी पड़ गयी। पेरियार और अंबेडकर को अंग्रेज़ों का एजेंट तक कहा जाने लगा। मैं इसे गांधी का ‘मास्टर-स्ट्रोक’ कहना नहीं चाहता, लेकिन इसने कम से कम बंबई और मद्रास में राष्ट्रवाद की अलख ज़रूर जगा दी। 

अंग्रेज़ों के फूट डालने की बारी अब थी। 1928 में साइमन कमीशन आकर लौटी थी। 1930-31 में हो रहा था गोलमेज़ सम्मेलन जहाँ आमने-सामने आ रहे थे, गांधी और अंबेडकर। अंबेडकर के साथ थे मद्रासी दलित नेता श्रीनिवासन। गांधी से राष्ट्रवादी तमग़ा छीनने के चक्र में एक घटना और हुई। 

मार्च 1931 में लाहौर जेल की उस घटना पर पेरियार ने अपनी पत्रिका ‘कुडी आरसू’ में लिखा, 

“भगत सिंह की फांसी के बाद वही लोग जो गांधी को महात्मा मान रहे थे, अब उसकी फ़जीहत कर रहे हैं। कल तक लोग गांधी के साथ थे, मगर अब नहीं। अब उसके देशभक्ति की पोल खुल गयी है।”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास - दो (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/3_10.html 
#vss

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