Saturday, 29 January 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (2)

भारत की राष्ट्रभाषा क्या हो? हिंदी की लिपि जानने वाले और मिलती-जुलती भाषा बोलने वालों के लिए सहज भाषा हिंदी थी। मगर, जिस तरह से हिंदी में अवधी, उर्दू, भोजपुरी, मैथिली, पंजाबी, से शब्द आए, क्या उतने ही शब्द दक्षिण भारतीय भाषाओं से आए? क्या पर्यायवाची शब्दों में उन भाषाओं को सम्मिलित किया गया? अगर बीस-तीस प्रतिशत शब्द भी किए जाते, तो क्या स्वीकार्यता अधिक होती? खैर, शुरुआत तो धौंस से हुई।

10 दिसंबर, 1946 को जब संविधान सभा बैठी, तो पंडित रघुनाथ धुलेकर ने हिंदी में बोलना शुरू किया। राजेंद्र प्रसाद ने कहा, “आप कृपया अंग्रेज़ी में अपनी बात रखें, ताकि हमारे ग़ैर हिंदी-भाषी मित्र भी समझ सकें”

धुलेकर ने कहा, “जिन्हें हिंदुस्तानी नहीं आती, उन्हें भारत में रहने का कोई अधिकार नहीं। आज आप यहाँ भारत का संविधान रचने बैठे हैं, और आपको हिंदुस्तानी नहीं आती, तो आपको यह सभा छोड़ देनी चाहिए”

1951 के सेंसस के अनुसार मात्र 45 % भारतीयों ने अपनी  भाषा हिंदी, उर्दू या पंजाबी दर्ज़ की। अगर इनमें पच्चीस प्रतिशत थोड़ी-बहुत बोलने वाले और जोड़ लें, तो भी तीस प्रतिशत हिंदी नहीं जानते थे। क्या उनको भारत में रहने का अधिकार नहीं? वह भी संविधान बनने की पहली तारीख से? एक दिन में दुनिया का कौन सा व्यक्ति एक नयी भाषा सीख सकता है? अगर केंद्र मद्रास में होता, और सभी उत्तर भारतीयों को एक ही दिन या एक साल में तमिल सीखने कहा जाता तो? बच्चों से बुजुर्ग तक? 

मद्रास के टी. टी. कृष्णामचारी खड़े हुए और कहा,

“साम्राज्यवाद के कई रूपों में एक भाषा साम्राज्यवाद भी है। मुझे अंग्रेज़ी बिल्कुल पसंद नहीं। शेक्सपीयर और मिल्टन में कोई रुचि नहीं। शक्तिशाली अंग्रेज़ों ने हमें अंग्रेज़ी का गुलाम बनाया। अब आप शक्तिशाली उत्तर भारतीय हमें हिंदी का गुलाम बनाना चाहते है। मैं बचपन से सीखता तो भिन्न बात थी, मगर इस उम्र में मेरे लिए यह भाषा सीखनी कठिन है। आप यह जानते हैं कि दक्षिण में अलगाववाद की लहर चल रही है। मैं अपने यू. पी. के भाइयों से पूछना चाहूँगा कि आप बहु-भाषी संपूर्ण भारत चाहेंगे या सिर्फ़ हिंदी-भाषी आधा भारत?”

आखिर कन्हैयालाल मुंशी और गोपालस्वामी आयंगार ने मिल कर एक हल निकाला, जिसे मुंशी-आयंगार फार्मूला कहा गया। इसके तहत अंग्रेज़ी और हिंदी, दोनों ही अगले पंद्रह वर्ष तक औपचारिक भाषा रहती। हर पाँच वर्ष में समिति विचार करती कि भाषा की क्या स्थिति है। उस मध्य हिंदी का प्रचार-प्रसार किया जाता। 

मई, 1950 में वल्लभभाई पटेल ने त्रिवेंद्रम में कहा, “अगर आप दक्षिण भारतीय जल्दी हिंदी नहीं सीखते, तो केंद्रीय नौकरियों में आपको प्राथमिकता नहीं मिलेगी”

ऐसी धमकियाँ दक्षिण भारतीयों को रास नहीं आयी। उन्हें लगने लगा कि जान-बूझ कर उन्हें केंद्रीय संस्थानों से दूर रखा जा रहा है। हालाँकि जो भी तमिल-मलयाली दिल्ली या बंबई गए, वे भाषा सीख ही गए, लेकिन वहाँ उसका परिवेश था।

खैर, पेरियार और अन्नादुरइ के दलों को छोड़ कर हिंदी के लिए घृणा पूरी तरह आयी नहीं थी। कांग्रेस अब भी मद्रास में ताकतवर थी, और 1951-52 का चुनाव महत्वपूर्ण था। पेरियार और अन्नादुरइ के दल चुनाव में स्वयं नहीं शामिल हुए। पेरियार ने कम्युनिस्टों, और अन्नादुरइ ने कुछ अन्य विपक्षी दलों का साथ दिया।

कम्युनिस्टों ने कड़ी टक्कर दी, और कांग्रेस पूर्ण बहुमत नहीं हासिल कर सकी। इस तरह पहले चुनाव से ही शुरू हो गया दक्षिण का तिकड़म गणित। तमिल कांग्रेस राजनीति के मैक्यावेली कहे जाने वाले राजाजी को उनके रिटायरमेंट से खींच कर लाया गया, जबकि वे चुनाव भी नहीं लड़े थे। उन्होंने सभी तरह के हथकंडे अपनाए। विधायकों को तोड़ा, प्रलोभन दिए, कुछ के हाथ भी मरोड़े। 

कांग्रेस के पास 152 सीटें थी, 188 पर विश्वास मत मिल जाता, राजाजी ने अपने पक्ष में दो सौ मत दिलवाए!

मगर मुख्यमंत्री पद पर बैठते ही राजाजी ने फिर से ग़लती कर दी। इस बार हिंदी तो नहीं लागू किया, मगर एक विद्यालय व्यवस्था बनायी। इसके अनुसार एक लुहार के बच्चे को आधे दिन स्कूल में पढ़ना था और आधे दिन अपना जाति-कर्म सीखना था। इसी तरह अन्य जातियों के बच्चों को भी। 

पेरियार ने कहा, “राजाजी चाहते हैं कि ब्राह्मणों के बच्चे पढ़ कर ऊँचे पदों पर जाते रहें। हमारे बच्चे वही श्रम करते रहें, जो उनके शूद्र पुरखे करते रहे। यह उसी वर्णाश्रम पद्धति की ओर लौटना है, जिसमें ब्राह्मण सर्वोच्च और शूद्र सबसे निचले स्थान पर था।”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (1)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/1_29.html 
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