अमृतसर के गोल्डन टेंपल (श्री हरमंदिर साहब) में चार दर हैं लेकिन दरवाजे नहीं है। वह चारों दिशाओं से खुला हुआ है। यह एक प्रतीक है कि यहां चारों दिशाओं से आने वाले लोगों का स्वागत होता है। जब लोग आएंगे तो विचार आएंगे। अनेकरूपता आएगी। सब का स्वागत है।
सिख धर्म की उदारता और सिख समुदाय के सेवा भाव से प्रभावित मैं यह लघु उपन्यास 'चहारदर' सिख समुदाय को समर्पित करता हूं। 'चहारदर' का मतलब है, चार दरवाज़े।
पाकिस्तान वाले यात्रा संस्मरण की तरह यह रचना भी पुरानी पर संशोधित है। हो सकता है फेसबुक के पाठकों को पसन्द आए।
लघु -उपन्यास किस्तों में आता रहेगा।
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चहार दर
लघु उपन्यास
असग़र वजाहत
कालबेल पर उंगली रखने से पहल सायमा के कानों में जो आवाजे़ं पड़ीं वो उसके लिए नई थीं। न तो उसने लाहौर में ऐसी आवाजें़ सुनी थीं और न लंदन में ही कभी इस तरह की आवाजें़ सुनने को मौक़ा मिला था। ये ज़रूर है कि हिन्दी फिष्ल्मों में कुछ ऐसे सीन देखे थे कि इन आवाज़ों का मतलब समझ में आ गया था। लेकिन फिष्ल्म में सुनी गई आवाज़ें और ‘रीयल लाइफ़’ में सुनी गई आवाज़ों में फ़क़ होता है और यही वजह थी कि सायमा के हाथ कालबेल तक जाते-जाते रुक गए। लेकिन ऐसा तो नहीं हो सकता कि वो हमेशा-हमेशा इस दरवाजे़ पर खड़ी रहेगी। उसके हाथ में पते का जो पर्चा था उसके मुताबिक़ वो सही घर के सामने खड़ी थी। कालबेल पर उसने उंगली रख दी। घर के अंदर घंटी बजने की आवाज़ गूँज गई। अंदर से आने वाली आवाजें़ अब भी बाहर आ रही थीं।
”आप?“ दरवाज़ा खोलने वाली एक अधेड़ उम्र औरत ने पूछा।
”मैं सायमा खान हूँ...लाहौर से अब्दुल रज़्ज़ाक साहब ने भेजा है।“
”आइए...आइए...अंदर आइए...“
वह पीछे हटते हुए बोली और उसके चेहरे के भाव बदल गए।
ड्राइंग रूम में पहुँचकर सायमा ने इधर-उधर निगाहें दौड़ाईं और फिर जल्दी ही उसे लगा कि घर का जायज़ा लेने का ये तरीका शायद अच्छा न समझा जाए।
सामने वाले दरवाजे़ से कोई आता दिखाई दिया। सायमा घबराकर खड़ी हो गई। उसे ये अन्दाज़ा लगाते तो देर न लगी कि यही महेश उपाध्याय हैं लेकिन उसे ये उम्मीद न थी वो ऐसे नज़र आएंगे। गर्दन और सीने पर एक सफे़द रंग की डोरी जैसी फूल रही थी। ऊपर का जिस्म नंगा था। माथे पर सफे़द और लाल, पता नहीं, कैसा पेस्ट लगा था।
उपाध्याय उसे देखकर कुछ घबरा गए। वापस जाने के लिए मुड़ने ही वाले थे कि अधेड़ उम्र औरत ने, जो ज़ाहिर था उनकी बीवी थी, उनकी तरफ़ कुर्ता बढ़ा दिया। कुर्ता पहनने के बाद भी महेश उपाध्याय कुछ ‘कान्फीडेंट’ नहीं महसूस कर रहे थे।
”ये सायमा खान हैं...लाहौर से रज़्ज़ाक भाई ने भेजा है।“
”हाँ-हाँ बैठो...मुझे रज़्ज़ाक का ई-मेल मिल गया था और मैंने जवाब भी दे दिया था। तुम कब आईं?“
”जी, मैं आज सुबह की फ्लाइट से।“
”कहाँ ठहरी हो?“
”जी बसंत इंटरकाॅटीनेंटल में।“
”ठीक है...होटल ठीक है...तो अब बताओ...स्टोरी क्या है?“ सायमा अपना बैग खोलने लगी।
”भई चाय-चाय का कुछ करो न?“
”आपके कहने से पहले ही पानी रख दिया है।“
”जी, मैं नाश्ता करके आई हूँ।“
”इसका ये मतलब नहीं कि चाय न पियोगी।“ उपाध्याय जी ने इत्मीनान से सायमा खान को देखा। चेहरा चीख़-चीख़कर पंजाबी होने का एलान कर रहा है। रंग खिलता हुआ सुर्ख। क़द पाँच फुट से ज़्यादा ही होगा। सुडौल जिस्म। लड़की को ख़ूबसूरत ही नहीं, बहुत खू़बसूरत कहा जाएगा। चालीस साल पत्रकारिता के मैदान की खाक छानने वाले महेश उपाध्याय के लिए ये समझना भी मुश्किल न था कि लड़की सिर्फ़ पढ़ी-लिखी ही नहीं बल्कि जे़हीन भी है। बुद्धि और सुंदरता का काम्बीनेशन बहुत ‘डेडली’ होता है।
लड़की एक ख़ास उम्र, मतलब जवानी में समझदार लोगों के लिए चुनौती है...सायमा ने बैग से एक काग़ज़ निकालकर उनकी तरफ बढ़ा दिया। काग़ज़ पर नज़र डालने से पहले उपाध्याय साहब ने पूछा, ”ये बताओ, रज़्ज़ाक के क्या हाल हैं?“
”जी, ठीक हैं...आपको बहुत याद कर रहे थे।“
”हाँ, हम लोग तीन साल बी.बी.सी. में साथ रहे हैं। एक ही फ्लोर पर उर्दू और हिन्दी सर्विसवालों के दफ़्तर हुआ करते थे। इसके अलावा नसीम भाभी हमें अक्सर खाने पर बुलाया करती थीं।“
चाय की ट्रे रखते हुए मिसिज़ उपाध्याय ने कहा, ”सिराज तो अब बड़ा हो गया होगा?“
”जी, टेक्साज़ में हैं...सिटी बैंक में।“
”वेरी गुड़ ये हमारी बीवी है...ये तो तुम समझ ही गई होगी...इन्हें तुम भाभीजान कह सकती हो...वैसे इनका नाम सुधा है।“
”सुधा भाभी।“ सायमा ने हँसकर कहा।
”अमृतसर के बाज़ारों की ‘इनसाइक्लोपीडिया’ है...वैसे मार्डन स्कूल में कैमिस्ट्रिी पढ़ाती हैं।“
”मैं जो काम करने आई हूं उसके अलावा अमृतसर की पुराने बाज़ारों के बारे में भी कुछ लिखना चाहती हूँ।“ सायमा ने कहा।
”ज़रूरी लिखो...“ उपाध्याय काग़ज़ को देखते हुए बोले।
”तुमने लाहौर में ही पढ़ाई की है?“ सुधा ने सवाल किया।
”हाँ जी, लाहौर के फाॅरमैन क्रिस्चियन काॅलेज से बी.ए. करने के बाद सिटी यूनिवर्सिटी लंदन से जर्नलिज्म से एम.ए. किया है।“
काग़ज़ मेज़ पर रखते हुए महेश उपाध्याय ने आँखें मलीं। और बोले, ”देखो ये स्टोरी यहाँ के अख़बारों में छपी है। पी.टी.आई. के जसवीर कोहली से मेरी बात भी हुई थी जिसने ये स्टोरी फाइल की थी...जितना छपा है उससे ज़्यादा अभी तक तो कुछ पता नहीं चला है।“
”यही वजह है कि मैं स्टोरी करने आई हूँ।“ सायमा ने कहा।
”ठीक है...ज़रूर करो...तुमने दिल्ली में पाकिस्तान हाई कमीशन से बात की है?“
”हाँ जनाब, वहाँ मैं गई थी। हाई कमीशन वाले यही कह रहे हैं कि उनके रिकाॅर्ड के मुताबिक़ शेर अली नाम का कोई आदमी पाकिस्तान से भारत नहीं आया है...इस्लामाबाद में भी भारत का हाई कमीशन यही कह रहा है कि शेर अली नाम के किसी आदमी को वीज़ा नहीं दिया गया।“ सायमा बोली।
”तब तो बात साफ है, शेर अली ने गै़र कानूनी तौर पर बार्डर क्रास किया होगा...“
”जनाब, रज़्ज़ाक साहब इसे ‘ह्यूमन इंटरेस्ट स्टोरी’ के तौर पर देख रहे हैं...ये ठीक है कि शेर अली ने गै़र कानूनी तौर पर बार्डर क्रास किया था...लेकिन वह यहाँ आया क्यों था? क्या किया होगा उसने? और फिर वह कैसे मरा?“
”अमृतसर पुलिस तो यही कहती है कि उसकी लाश अजनाला से आगे बार्डर एरिया के गाँवों को जाने वाले रास्तों के किसी चैराहे पर मिली थी।“
”गाँव के लोगों ने कोई बयान दिया है?“ सायमा ने पूछा।
”नहीं। गाँव वाले इस आदमी को नहीं जानते...उनका कहना है कि ये आदमी इधर का नहीं है।“ उपाध्याय जी ने बताया।
”ये कैसे हो सकता है?“
”अब तक सिर्फ़ यही इंफारमेशन है। ठीक है, तुम स्टोरी करो...देखो क्या निकलता है।“
”मुझे आपकी मदद की ज़रूरत पड़ेगी।“
”मैं...तुम्हारी पूरी मदद करने के लिए तैयार हूँ लेकिन इस उम्र में मेरे लिए बार्डर एरियाज़ के गाँवों के चक्कर लगाना मुमकिन नहीं होगा...अमृतसर के अंदर तुम जहाँ चाहोगी...मैं...“ उपाध्याय जी ने जुमला अधूरा छोड़ दिया।
”लेकिन मेरा काम तो अजनाला और आसपास के गाँवों में ही होगा।“ सायमा ने कहा।
”देखो, एक रास्ता निकल सकता है...यहाँ यूनिवर्सिटी में जर्नलिज़्म कोर्स के लड़के-लड़कियाँ प्रोजेक्ट करते हैं...मैं तुम्हें वाई.पी. रंधावा से मिला देता हूँ...वे डिपार्टमेंट के हेड हैं...बड़े खुशमिज़ाज और खुले दिल के आदमी हैं...वे तुम्हें स्टूडेंट्स से मिलवा देंगे जो तुम्हारी पूरी मदद करेंगे...“
”थैंक यू! सो मच सर।“
”लेकिन आज नहीं...आज मैं दिल्ली जा रहा हूँ...परसों लौटकर वापस आऊँगा...दो दिन तुम अमृतसर के कूचे और गलियाँ देख डालो...ये समझो की अंगे्रज़ों ने मुल्क तो बाँट दिया लेकिन ज़ुबान और तहज़ीब नहीं बाँट सके।“
”आई एम साॅरी उपाध्याय साहब...हिन्दुस्तान का बंटवारा...सौ फ़ीसदी सही हुआ था...यहाँ दो नेशनलटीज़ थीं...“
”बड़ी पुरानी बहस है...मैं डिटेल में नहीं जाना चाहता...हाँ, इतना ज़रूर कहूँगा कि नेशन की बुनियाद किसी मज़हब के ऊपर नहीं रखी जा सकती...अगर इस्लाम पाकिस्तान के लिए ‘सीमेंटिंग फोर्स’ होता तो बांग्लादेश न बना होता।“ उपाध्याय जी ने मुद्दे पर ज़ोर दिया।
”देखिए, मज़हब की बुनियाद पर तो इज़राइल भी बनाया गया था...और ऐसे मज़हब की बुनियाद पर जो इस इलाके से सदियों पहले ग़ायब हो चुका था...लेकिन इज़राइल आज तक है...और अच्छी तरह है।“ सायमा बोली।
”इज़राइल को नए सिरे से बनाया गया था...हिन्दुस्तान को बाँटा गया था...और देखो, अगर धर्म की बुनियाद पर ही मुल्क बनते तो आज दुनिया में तीन-चार ही मुल्क होते...ईसाई मुल्क होता, मुस्लिम मुल्क होता और एक छोटा-सा हिन्दू मुल्क होता।“ उपाध्याय जी बोले।
”मैं सिर्फ़ मज़हब की बात नहीं कर रही हूँ बल्कि...“
सायमा की बात काटकर उपाध्याय बोले, ”मेरे ख़्याल से ये बहस तो हम करते रहेंगे...चलो नाश्ता कर लो। तुम्हारी भाभी जान ने मेज़ पर नाश्ता लगा दिया है और मुझे इशारे कर रही हैं।“
”लेकिन नाश्ता तो मैंने कर लिया है।“
”तो खाना समझकर खा लेना।“
नाश्ता करते हुए उपाध्याय जी ने कहा, ”उस शेल्फ में अमृतसर के बारे में तमाम किताबें रखी हैं...वैसे मैं जानता हूँ तुम डब्लू.डब्लू.डब्लू. जनरेशन की हो...अब तक तुमने अमृतसर पर पूरी दुनिया की बेवसाइटस् खंगाल डाली होंगी।“
(जारी रहेगा)
© असग़र वजाहत
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