Wednesday, 26 January 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - दो (18)

विश्व युद्ध समाप्ति की ओर बढ़ रहा था, और देश आज़ादी की ओर। मद्रास पर किसका राज होगा, यह स्पष्ट नहीं था। जस्टिस पार्टी के आधे लोग कांग्रेस से जुड़ गए थे, और आधे पेरियार के पीछे बैठे अपनी कुर्सी का ख़्वाब देख रहे थे। जल्द ही ये आधे इधर और आधे उधर होकर पेरियार को अकेला छोड़ने वाले थे। 

अगस्त, 1944 को सेलम में पेरियार और अन्नादुरइ तमाम जस्टिस पार्टी नेताओं के साथ मिले। वहाँ बैठे तमाम बूढ़े-बुजुर्ग नेता अब पेरियार से मुक्ति चाहते थे। इसके लिए वह अन्नादुरइ को कुर्सी सौंपने को तैयार थे। 

ऐसे मौकों पर पेरियार में कुछ-कुछ गांधी की छाप दिखती है। राजाजी के पद त्यागने के बाद पेरियार दो बार मद्रास का प्रधानमंत्री पद ठुकरा चुके थे। वह कुर्सी पर बैठने के बजाय जनता आंदोलनों (सत्याग्रहों?) में भरोसा करते थे। उस दिन सेलम में उन्होंने कहा, 

“हम सभी नेताओें को अपनी राय बहादुर, दीवान बहादुर जैसी पदवी आज ही त्यागनी होगी। सभी सरकारी पदों से इस्तीफ़ा देना होगा। अपने-अपने जाति उपनाम त्यागने होंगे…और किसी भी सरकारी चुनाव का बहिष्कार करना होगा।”

यह आखिरी शर्त तो सब पर भारी पड़ गयी। लोग मंच से उतर कर जाने लगे कि बिना पद, बिना चुनाव के आखिर किस बात की पार्टी, कैसा नेता? पैंतीस घंटों तक विमर्श चला, और अंतत: वही कुछ लोग बच गए जो पेरियार के साथ थे। 

उसके बाद पेरियार ने कहा, 

“हमारे दल का नाम होगा ‘द्रविड़ कड़गम’। आखिर हम सभी द्रविड़ हैं, हमें द्रविड़ नाडु चाहिए, तो दल का भी वही नाम हो। तमिल द्रविड़ों का एक अंश मात्र है। मैं कन्नडिगा हूँ, अन्नदुरइ तमिल है। हमारी हज़ारों जातियाँ हैं। अगर हम आज तमिल नाडु का प्रस्ताव रखें, तो भला एक मलयाली या तेलुगु क्यों साथ देगा?

अगर हम सभी ने स्वयं को द्रविड़ मान लिया, तो ये जातियाँ, ये धर्म, ये भेद सब खत्म हो जाएँगे। हमारी एक ही जाति होगी- द्रविड़!”

1946 में ‘द्रविड़ कड़गम’ का झंडा तैयार था। इस झंडे का रंग ही काला था, जो शोषण का प्रतीक था। इसके केंद्र में एक लाल वृत्त था, जो क्रांति का प्रतीक था। पेरियार ने यह भी घोषणा कर दी कि इस दल और इसके सभी समर्थक काला कुर्ता पहनेंगे। 

अन्नादुरइ इस बात पर भड़क गए। वह काला कुर्ता नहीं पहनना चाहते थे, मगर पेरियार के सामने खुल कर कुछ कह नहीं पा रहे थे। पेरियार ने गांधी के खादी आंदोलन के तर्ज़ पर घर-घर में काला कुर्ता सिलने का ऐलान किया। इसकी ज़िम्मेदारी अन्नादुरइ को ही पकड़ा दी। मदुरइ में एक ‘काला कुर्ता सम्मेलन’ हुआ, जिसमें अन्नादुरइ काला कुर्ता पहन कर तो आए, मगर मंच से कहा,

“आप में से किसी भी व्यक्ति को अपनी इच्छा के विरुद्ध काला कुर्ता पहनने की कोई ज़रूरत नहीं”

यह सुनते ही बूढ़े पेरियार खड़े हुए और चिल्लाए, “कुल्ला नारी! (शातिर लोमड़ी)”

अन्नादुरइ ने पेरियार पर वही आरोप लगाया जो गांधी पर लगते रहे। उन्होंने उनको वैचारिक तानाशाह कहा, जो अपने आदर्शों के नाम पर जबरन आदेश थोपते हैं। उन्होंने दो व्यंग्य-कथाएँ लिखी, जिसमें एक थी ‘लेबल वेंदान’ (लेबल की ज़रूरत नहीं)। इसमें पेरियार पर खूब तंज कसे गए थे। 

अन्नादुरइ का गुस्सा उस दिन उमड़ पड़ा जब पेरियार ने भारत की आज़ादी दिवस को काला दिवस घोषित कर दिया। 

पेरियार ने कहा, “यह कैसा स्वराज मिल रहा है? अंग्रेज़ जाएँगे तो राजा और बिरला राज करेंगे। उत्तर भारतीयों की हम द्रविड़ों पर सत्ता होगी। हमें कहीं कोई स्थान नहीं मिलेगा। न हमारी भाषा को सम्मान मिलेगा, न संस्कृति को।”

इस पर अन्ना ने कहा, “दो सौ सालों की ग़ुलामी मिट रही है। हम दो शत्रुओं से लड़ रहे थे। आज एक भाग कर जा रहा है। क्या यह हम द्रविड़ों के लिए खुशी का दिन नहीं?”

पेरियार लंबे समय से गांधी से लड़ रहे थे। यह काला रंग भी गांधी के सफेद टोपी का ठीक विपरीत था। मगर जिस दिन गांधी की गोली मार कर हत्या की गयी, पेरियार द्रवित हो गए। जैसे उनका युग्म बिखर गया हो। उन्होंने अप्रत्याशित रूप से अपने दल के सदस्यों को कांग्रेस की शोक-सभा में सम्मिलित होने कहा। उन्होंने अपनी पत्रिका ‘कुडी आरसू’ में लिखा,

“मैं इस देश का नाम गांधीनाडु रखने का प्रस्ताव रखता हूँ।”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास - दो (18)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/17_25.html
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