विवेकानन्द ने यथास्थितिवाद का लगातार मुंह नोचा। रूढ़, मजहबी, चिन्तक सांसारिक, दैहिक जीवन का तो भरपूर सरंजाम लूटते रहे हैं। जनभावनाओं का शोषण करने के बावजूद अवाम को सांसारिक सुखों का नकार करने की सलाह देते रहेे हैं। मोटे ताजे मुस्टंडे, लगभग निरक्षर, अर्द्धसभ्य कथित साधु कहलाता जमावड़ा कर्ज लेकर चार्वाक शैली में जनता के गाढ़े परिश्रम की कमाई से घी पीकर प्रवचन करता रहा है। विवेकानन्द ने इस विचार से मोर्चा लिया लेकिन अवाम के लिए भौतिक तथा सांसारिक सभ्यता को खारिज या गर्हित नहीं कहा। उन्होंने कहा आसमानी नस्ल के विचारकों के लिए अंगूर खट्टे रहे होंगे। विवेकानन्द के जाने के लगभग एक सौ उन्नीस वर्ष होने पर आज भी खुद को साधु कहती जमात उनकी भाषा में आत्मप्रताड़ित फतवा जारी करने की हिम्मत दिखा नहीं सकती।
विवेकानन्द को ईसाइयत की कुरीतियों तथा इस्लाम की हमलावर अवधारणाओं के समानान्तर हिन्दू धर्म की अवैज्ञानिक मान्यताओं से मुखर होकर लड़ना पड़ा। शूद्र कहलाते अकिंचन वर्ग में हौसला पैदा करने का उनमें जज्बा मुखर होता रहता। विवेकानन्द ने शोषित और दलित वर्ग को कुरीतियों से केवल बाहर निकालने के बदले उन्हें शिक्षित करने की प्राथमिकता दी। स्पष्ट कहा राजनीति पिछड़े वर्गों की कभी मदद नहीं कर सकती, जब तक वे शिक्षित, समृद्ध और सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पन्न नहीं हों।
विवेकानन्द ने कहा था ‘आधुनिक भारत सभी प्राणियों की आध्यात्मिक बराबरी को तो स्वीकार करता है, लेकिन क्रूरता के साथ सामाजिक भेदभाव करता है।‘ उन्होंने यह भी कहा था ‘वह देश जहां करोड़ों व्यक्ति महुआ के पौधे के फूल पर जीवित रहते हैं और जहां दस लाख से ज्यादा साधु हैं और कोई दस करोड़ ब्राह्मण जो गरीबों का खून चूसते हैं। वह देश है या नर्क? वह धर्म है या शैतान का नृत्य?‘
कुछ नासमझ या शातिर लोग विवेकानन्द को एकांगी, धार्मिक या आध्यात्मिक प्रचारक कहते थकते नहीं हैं। उन्हें विवेकानन्द के इस कथन को फिर समझने की कोशिश करनी चाहिए-‘हम भौतिक सभ्यता के खिलाफ मूर्खों की तरह बातें करते हैं। भौतिक सभ्यता, नहीं नहीं, ऐशोआराम तक गरीब आदमी के लिए काम पैदा कर सकते हैं।‘ पुरोहितवाद पर चोट करते विवेकानन्द ने इसीलिए कहा था ‘मैं ऐसे ईश्वर में विश्वास नहीं करता जो मुझे यहां तो रोटी नहीं दे सकता लेकिन स्वर्ग में अनंत सुखोें की बौछार कर देगा।‘
परंपराओं से प्रेरित कर भी विवेकानन्द नये प्रयोगशील आधुनिक ऋषि हस्ताक्षर हैं। उनके मौलिक तेवर में ब्रह्मचर्य के युवा संन्यासियों की निस्वार्थ देशभक्त टीम तैयार करना था। ऐसी टीम सांस्कृतिक इलाके में रहकर जन आंदोलनों को आदर्शवादिता से सींच सके। विवेकानन्द का साहसिक प्रयोग शुरुआत में लोगों की तसल्ली और समर्थन का सबब नहीं बना। कई गुरु भाई और अन्य समाज विचारक उनके अनूठे सुझाव से सहमत नहीं हुए। समय ने लेकिन विवेकानन्द का साथ दिया। धीरे धीरे सिद्ध हुआ उनमें अपने समय के परे देखने की भविष्यमूलक समझ का आभास उनके गुरु श्रीरामकृष्णदेव को था।
एक विश्व की समझ के बावजूद विवेकानन्द प्रतिनिधि भारतीय बने रहे। वे बेहतर भारतीय रूप में भी उन्नत होते रहे। भारत को दुनिया को एक करने रोल माॅडल की भूमिका देने के प्रवक्ता भी रहे। इसके दो बड़े कारण उनके नजरिए में रहे होंगे। पहला यह कि भारत की वैचारिक देन का इतिहास शायद संसार में सबसे पुराना है। दूसरा कि विवेकानन्द का समकालीन भारत आर्थिक हालात में करोड़ों मुफलिसों का देश था। देश न केवल पूंजीवाद का शिकार था बल्कि पूंजी कमाने की उसकी एनाॅटाॅमिकल बनावट ही नहीं थी।
विवेकानन्द ने कहा था सदियों से भारतीयों को केवल पस्तहिम्मती का पाठ पढ़ाया गया है। उनमें यहां तक भर दिया गया कि हिन्दुस्तानी औसत से भी गए बीते हैं। इसलिए सबसे पहले ज़रूरत है उन्हें आत्मविश्वास से लबरेज़ किया जाए। तब ही अंग्रेज़ों से हीनतर होने का भावबोध गायब होगा। हर भारतीय खुद को शक्तिवान समझें। हम कमज़ोर हो गए हैं। इसलिए पाखण्ड, रहस्यवाद, जादू-टोना और सुपरनैचुरल हथकंडे आजमाए जा रहे हैं। विवेकानन्द ने कहा हमें लोहे की मांसपेशियां और फौलाद की नसें चाहिए। बहुत रोनाधोना कर चुके। धोखे का तिलिस्म खत्म होना चाहिए। वह धर्म चाहिए जो मनुष्य को रचे। वह शिक्षा चाहिए जो मनुष्य का बहुआयामी निर्माण करे। धर्म की रहस्य रोमांचकता महत्वपूर्ण भले हो। वह मनुष्य को कमज़ोर ही करती है। उन सबकी छोड़छुट्टी करने का वक्त आ गया है।
लाॅस एंजिलिस, केलिफोर्निया के भाषण में उन्होंने कटाक्ष किया था। ‘‘भारत में, हमें पूरे देश में ऐसे पुराने सठियाए बूढ़े मिलते हैं, जो सब कुछ साधारण जनता से गुप्त रखना चाहते हैं। इसी कल्पना में वे अपना बड़ा समाधान कर लेते हैं कि वे सारे विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं। वे समझते हैं कि ये भयावह प्रयोग उनको हानि नहीं पहुंचा सकते। केवल साधारण जनता को ही उनसे हानि पहुंचेगी!‘‘
(वि0स0, 3/111)
विवेकानन्द सामाजिक लक्षणों, प्रथाओं, कुरीतियों और रूढ़ियों को नेस्तनाबूद भर कर देने के पक्ष में नहीं थे। कहर बनकर उस पुराने विचार संकुल पर भी टूटे थे जिसने हिन्दू धर्म के मूल और अमर मानवीय संदेशों को अपनी गिरफ्त में लेकर उसके चेहरे को विकृत कर दिया था। सदियों से चले आ रहे विकृत विचार समुच्चय की फेसलिफ्टिंग भर हो जाने से विवेकानन्द को संतोष नहीं था। उनसे चिढ़ते पोंगापंथी, ढकोसलाग्रस्त, जाहिल और मनुष्य विरोधी पुरोहित वर्ग और धर्मांध समझ ने उन्हें एक संप्रदायवादी हिन्दू साधु के रूप में प्रचारित कर उनका मनुष्य संदर्भ ही बदल दिया है।
प्रगति और प्रतिक्रिया लगातार लेकिन पारस्परिक भी होती हैं। हर सामाजिक, सियासी मुद्दा या विचार कभी प्रासंगिक, कभी अप्रासंगिक होता चलता है। बंगाल के बूर्जुआ वर्ग के उद्भव तथा विकास का एक कारण विवेकानन्द भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की हुकूमत को भी मानते हैं। वह हुकूमत भारत में सबसे पहले बंगाल में ही स्थापित हुई थी। ब्रिटिश हुकूमत द्वारा किए गए सामाजिक आर्थिक परिवर्तनों की वजह से रूढ़िवादी हिन्दू समाज व्यवस्था के सामने चुनौतियां ही चुनौतियां बिखेरी गईं।
विरोधाभास यह भी हुआ कि तथाकथित कुछ कुलीन हिन्दुओं ने पश्चिमी शिक्षा, तहजीब और संस्कृति को ही खुद होकर अपनाया। ऐसे लोग पश्चिमी किस्म के नवजागरण के साथ सम्पृक्त होने से खुद को ज्यादा प्रगतिशील और ज्ञानवान समझने लगे। भारत की तत्कालीन यूरोप से तुलना करते ऐसे कुलीन हिन्दू नवोदयी भारतीय समाज की बदहाली देखकर हीन भावना और संकोच में डूबने लगे थे। समाज में धार्मिक अंधविश्वास, कुरीतियां, आडंबर और रूढ़ियां तो पहले से ही थीं। कथित भद्रलोक को ये अब ज्यादा विकृत दीखने लगीं।
उन दिनों चली आ रही सतीप्रथा का विरोध करने में दकियानूसी परंपराओं की बनावट में आर्थिक कारण भी रहे होंगे। सतीप्रथा की खोज के पीछे विधवा स्त्री को सम्पत्ति से भी महरूम रखने की साजिशें पंडितों और पोंगापंथियों ने रची ही होंगी। ऐसी धार्मिक कुरीतियों का उल्लेख हिन्दू धर्म के किसी प्रामाणिक ग्रन्थ में अलबत्ता दिखाई नहीं देता। अज्ञानी और निरक्षर जनमानस के लिए लेकिन षड़यंत्रकारी पुरोहितों का वर्ग वेदों और पुराणों का नासमझी की संस्कृत उच्चारण का उल्लेख करता जनता को शोषित करता रहा।
‘भारत का भविष्य‘ नामक अपने प्रसिद्ध भाषण में विवेकानन्द ने स्वीकार किया है कि संसार के कई मुल्कों के मुकाबले भारत में समस्याओं का अम्बार और उनकी अलग तरह की जटिलता जनता की परेशानदिमागी का कारण है। वर्ण, जाति, धर्म, भाषा और सामाजिक जड़ताओं वगैरह ने मिलकर भूगोल के भारत में अलग तरह के समाज का अलग तरह का मुल्क रच दिया है। दुनिया के ज्यादातर मुल्क इस तरह के विरोधाभासी और असंगत सर फोड़ते तत्वों या अवयवों से नहीं बने हैं। भारत में आर्य, द्रविड़, तुर्क, मुगल, मुसलमान, पुर्तगाली और अंगरेज़ आदि कौमों का एक के बाद एक शासन रहा है। इतने हमले संसार के किसी देश पर नहीं हुए होंगे। इसके बावजूद खुद भारतीयों ने अपने लिए दर्जनों भाषाओं, तरह तरह के आचार विचार और प्रथाओं को जाने कैसे खोज जाने कैसे निकाला है। ऐसे अनोखे माहौल में यह केवल धर्म है जिसने पूरे देश को एक सूत्र में बांध रखा। वह एक मजबूत कड़ी है।
विवेकानन्द ने कहा कि सभी तरह के धर्मों की एकता भारत के भविष्य की सबसे बड़ी जरूरत है। भारत में केवल एक धर्म होना चाहिए का उन्होंने जवाब के बदले आगे उलट सवाल किया ‘एक ही धर्म से मेरा क्या मतलब है? यह उस तरह का एक ही धर्म नहीं, जिसका ईसाइयों, मुसलमानों या बौद्धों में प्रचार है। हम जानते हैं। हमारे अलग अलग सम्प्रदायों के सिद्धान्त तथा दावे चाहे कितने ही जुदा जुदा क्यों न हों। हमारे धर्म में कुछ सिद्धान्त ऐसे हैं जो सभी सम्प्रदायों द्वारा मान्य हैं। इस तरह हमारे सम्प्रदायों के ऐसे कुछ सामान्य आधार अवश्य हैं। उनको स्वीकार करने पर हमारे धर्म में नायाब विविधता के लिए गुंजाइश हो जाती है। साथ ही विचार और अपनी रुचि के अनुसार जीवन निर्वाह के लिए हमें मुकम्मल आजादी मिलती जाती है। हम लोग, कम से कम वे जिन्होंने इस पर विचार किया है यह बात जानते हैं। अपने धर्म के ये जीवनदायी सामान्य तत्व हम सबके सामने लाएं और देश के सभी स्त्री, पुरुष, बच्चे, बूढ़े उन्हें जानें, समझें तथा जीवन में उतारें। यही हमारे लिए जरूरी है। सबसे पहले यही हमारा काम है।‘
(वि0स0, 5/180)।
वर्णाश्रम के समर्थक ढकोसला ढोते आदर्शवादी कहलाते विद्वान उन्नीसवीं सदी की ब्रिटिश सामाजिक राजनीतिक अवधारणाओं से उपजी नई वर्गीय चेतना को भी राष्ट्रवाद का घटक करार दे देते हैं। ऐसे लोग भगवा प्रयोजनों के लिए विवेकानन्द को कठमुल्ला साधु बनाये अपने कांधों पर लादे रहते हैं। मकसद है राजनीतिक दूकान सजी रहे और विवेकानन्द के असली संदेश जनता के भले के लिए उसके पल्ले नहीं पड़ें। विवेकानन्द ने खुद मुख्तार बने कुलीन और भद्र समाज द्वारा जनता के शोषण को बुरी लताड़ लगाई थी। उन्होंने ऐसी प्रवृत्ति को क्रूर और राक्षसी तक कहा था।
विवेकानन्द ने कहा था देशभक्त बनने की पहली शर्त करोड़ों लोगों के दुखों को समझना है। भवानीप्रसाद मिश्र की कविता में भी है ‘जिनका दुख गाना है, उनका दुख जानो तो।‘ उन्होंने जोर देकर कहा किसी के लिए कोई प्राथमिकता या बड़प्पन नहीं होना चाहिए। सबको बराबर मौका दिया जाना जरूरी होगा। नौजवानों को सामाजिक उत्थान और बराबरी के आदर्शों का खुद होकर प्रचार करना होगा। देशभक्ति का यह भी धर्मगांठ लगा वर्ग चरित्र था। उसे वर्षों पहले विवेकानन्द ने ही पहचान लिया था। आजादी का आंदोलन तक वर्गचरित्र के विरोधाभासों से भरा हुआ रहा है। ऐसा भी विवेकानन्द का पूर्व संकेत दिखाई पड़ता है।
स्वाधीनता आंदोलन का मुख्य मकसद धीरे धीरे बूर्जुआ वर्ग के पक्ष में सत्ता हासिल करने तक सिमट गया था। विवेकानन्द ही ऐसे खतरे की ओर वर्षों पहले आगाह करते हैं। उन्होंने कहा था कि बहुजन पिछड़ा समाज अपनी आदिम प्रवृत्तियों का मौजूदा संस्करण नहीं समझा जाकर बराबर का हकदार बनाया जाये। तब तक आजादी के आंदोलन का सच्चा मुकाम देश को बदलने के लिए में नहीं पाया जा सकता। केवल राजनीतिक आजादी की लुकाठी लिए चलने वाली जनयात्राएं आर्थिक धार्मिक और सामाजिक तब्दीलियों के कंटूर तय किये बिना आखिरकार ऐसे ही मुकाम पर पहुंचती हैं जिसकी ताईद विवेकानन्द ने नहीं की थी।
कनक तिवारी
© Kanak Tiwari
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