फनटास्टिक, जस्ट ग्रेट...सायमा तुम्हारी नमाज़ और मोमदवाली स्टोरी को सबने पसंद किया है...मेरे ख़्याल में तुम्हारी सबसे बड़ी स्टोरी है...गो एहेड...करती रहो...शेर अली की स्टोरी के लिंक्स भी मिलेंगे...बट यू कीप आन गेटिंग स्टोरीज़ फ्राम द बार्डर एरियाज़।’ रज़्ज़ाक साहब के ई-मेल को सायमा ने कई बार पढ़ा। वेबसाइट पर देखा...फ्रंट पेज पर ‘बाटम स्टोरी है’। अवर क्रास्पांडेंट सायमा खान फ्राम अमृतसर...।
...चलो पाँच दिन मारे-मारे फिरने का कोई तो नतीजा निकला।
आज का दिन भी कुछ नया रहा। अल्का और अस्सी के साथ गोल्डन टेम्पल देखने चली गई। तस्वीरों में गोल्डन टेम्पल इतना इस्प्रीच्युअल नहीं लगता जितना देखने में लगता है। सफेद, सुनहरा और नीला रंग दिल की गहराइयों तक उतर जाता है...इस मंदिर की बुनियाद गुरु अर्जुन देव के कहने पर लाहौर के एक फक़ीर पीर मियाँ मीर ने रखी थी। एक मुसलमान से काम लिया गया था सिखों के सबसे बड़े गुरुदारे की बुनियाद रखने का। ये कैसे हुआ होगा?
पीर मियाँ मीर मुसलमान थे। वो किसी दूसरे मज़हब की इबादतगाह की संगे बुनियाद रखने के लिए तैयार ही कैसे हो गए ? कहते हैं गुरु अर्जुनदेव पीर मियाँ मीर से बड़ी अकीदत रखते थे। अगर अक़ीदत थी तो उन्हें मुसलमान हो जाना चाहिए था ? सिख मज़हब और इस्लाम अलग-अलग मज़हब हैं, उनकी बुनियाद अलग हैं। उनके उसूल अलग हैं। फिर ये सब क्यों हुआ ? क्या पीर मियाँ मीर को ये यकीन रहा होगा कि सिखों की दबादतगाह का संगे बुनियाद रखना किसी भी तरह इस्लाम के खि़लाफ नहीं है ? अगर ये बात थी कैसे ?...अच्छा क्या गुरु अर्जुनदेव को भी ये न लगा होगा कि किसी मुसलमान से सिख इबादतगाह की बुनियाद रखवाना सही है या नहीं ? अगर पीर मियाँ मीर के एतेकाद में सिख धर्म के लिए इतनी जगह थी और गुरु अर्जुन देव इस्लाम के इतने बड़े प्रशंसक थे तो फिर एक नए मज़हब की ज़रूरत ? या शायद ये दोनों मिलकर नई ‘डिफनीशन्स’ बना रहे थे ? तो फिर नए मज़हब की क्या ज़रूरत थी ? मेरे पास इस सवाल का जवाब नहीं है। अपनी इस परेशानी में मैं अल्का और जस्सी को क्या शामिल करती। मुझे मालूम था कि वे कोई जवाब न दे सकेंगे...
..गुरुद्वारे में सबसे ज़्यादा काबिले तहसीन हिस्सा मुझे वो लगा जहाँ लंगर चलता है। पहले तो मैं इस बात पर तैयार नहीं थी कि लंगर का खाना खाया जाए लेकिन फिर सोचा चलो देखते हैं क्या होता है...हम जैसे ही वहाँ दाखि़ल हुए हमें एक थाली दे दी गई। फिर एक प्याला मिला, फिर चमचा मिला। उसके बाद हम एक बड़े से हाल में आ गए...यहाँ दरी पर बैठकर सब खाना खा रहे थे। कुछ लोग खाना खिला रहे थे...यहाँ तक तो सब ठीक था, लेकिन खाना खाने के बाद जूठे बर्तनों की सफाई होते देखना एक नया तजुर्बा था...जूठे बर्तन धोने के लिए बड़ी-बड़ी मेजें़ लगी थीं। उनके ऊपर धुले बर्तन रखने के लिए जगह थी...सैकड़ों की तादाद में जूठी थालियाँ लाई जाती थीं और मेज़ के चारों तरफ खड़े लोग उन पर टूट पड़ते थे...लगता था उनमें कम्पीटीशन चल रहा है कि कौन कितने जूठे बर्तन साफ कर सकता है। जो लोग बर्तन साफ़ कर रहे थे वैसे नहीं लगे जैसे जूठे बर्तन साफ़ करने वाले होते हैं। अल्का ने बताया ये कार सेवा है...ये शहर के बाइज़्ज़त लोग हैं। जो अपना टाइम निकालकर यहाँ आते हैं, बर्तन साफ़ करते हैं और फिर अपने आफिसों-दुकानों में चले जाते हैं। अल्का और जस्सी ने कहा कि अगर मैं आधे घंटे इंतिज़ार करूँ तो वे भी इस कार सेवा में शामिल होना चाहेंगी...मैं रुक गई...मैं देखने लगी...मेरे लिए मज़हब का ये बिल्कुल नया रूप था...एक नई तस्वीर...किस बर्तन में किसने खाया है, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, अमीर, ग़रीब, भिखारी, शहज़ादा...इनको इससे कोई मतलब नहीं है...मैंने अल्का और जस्सी को भी इन लोगों के साथ जूठे बर्तन साफ करते देखा और सोचा कि मैं ऐसा क्यों नहीं कर सकती...अगर ये लोग मेरे जूठे बर्तन साफ कर सकते हैं, तो मैं इनके जूठे बर्तन क्यों साफ नहीं कर सकती? अकीदत का ये नया रंग मुझे बहुत पसंद आया...
बटाला रोड पर एक कोठी के सामने ड्राइवर ने गाड़ी रोकी और हम दोनों उतर आए। अल्का ने बढ़कर गेट खोला और मैं गेट के खम्भे पर लगी नेम प्लेट पढ़ने लगी-सरदार गुरुवचन सिंह गिल, 102, बटाला रोड, अमृतसर...काफी बड़ी कोठी है। सामने लाॅन ही करीब पाँच सौ स्क्वायर फीट का होगा। ...उसके बाद पुराने ज़माने की कोठियों वाला लम्बा-चैड़ा बरामदा। गेट खुलने की आवाज़ के साथ ही अंदर से कुत्तों के भौंकने की आवाज़ भी आई थी और हमारे बरामदा में पहुँचने से पहले दो जर्मन शेफर्ड बाहर आ गए।
”डरी ना। बड़े बीबे कुत्ते ने।“ अल्का ने कहा।
”अच्छा!“ मैं हँस दी। दुनिया में हर जगह कुत्तों के हर मालिक अपने कुत्तों को बहुत सीधा मानता है।
‘एलशेप’ बडे़ से लिविंग रूम में आकर हम सोफों पर बैठ गए। ऊपर बड़ा-सा ‘शैंडलियर’ लटका हुआ है। टीकवुड का फर्नीचर और बैल्जियम ग्लास।
...कटग्लास...परशियन कारपेट...
”ग्रेट यार...तेरी कोठी तो बड़ी शानदार है।“
”तैनूं पतै मेरे फादर भी लाहौर के हैं।“ अल्का बोली।
”तूने पहले क्यों नहीं बताया।“
”अरे क्या बताना...डैडी को तो ठीक से याद भी नहीं...पार्टीशन के टाइम दो साल के थे...। दादाजी को सब याद था...वो रहे नहीं...दादी जी हैं...वो तुझसे मिलने को बेकरार हैं...कह रही थीं...इतने सालों बाद कोई लाहौर से आ रहा है।“
अल्का की दादी ही होंगी। सफेद कपड़ों में सत्तर साल की बूढ़ी औरत छड़ी टेकती लिविंग रूम में आती दिखाई दीं।
”ओहो माताजी...असी आपके पास आ रहे थे...तुसी क्यों तकलीफ कीती।“
”सच दस्सा कुड़ियो, मेरा सबर जवाब दे गया।“ उसकी साँस फूल रही थी। पता नहीं, वह रो रही थी या हँस रही थी।
सायमा को दादी ने इस तरह गले लगाया कि उसे लगा कि साँस ही रुक जाएगी।
इस बीच चाय आ गई थी।
”लै, तेरे लिए मैंने बहुत साल बाद पिन्नियाँ बनाईयाँ ने...साडे लहौर विच लोक बहुत पसंद करदें ने।“
”हाँ-हाँ, माँ जी...बहुत।“
”और ये गजरेला, है ‘गरम-गरम...खा’ माँ जी ने खाने की तरफ इशारा किया।“
”दादी जी को सुनाई कम देता है...। ज़ोर से बोल। या तू इधर बैठ जा...।“ मैं दादी जी के बराबर बैठ गई।
”देख, असी वी लहौर दे हाँ...। दादी बोलने लगीं। उनके पोपले मुँह से साफ आवाजें़ नहीं निकल रही थीं। लेकिन फिर भी समझ में आ रही थीं। ऐनक के धुंधले शीशों के पीछे से दिखती उनकी धंसी हुई आँखों में चमक थी। झुर्रियों पड़े चेहरे का रंग सुर्ख था और बाल बिल्कुल बर्फ जैसे सफेद।“
”वेख, चाटी दरवाजे़ के कोल सड्डा घर सी...मोहल्ला जलोटियान सी...समझ ले उसमें का कूचा नक्कारचियान...जानदी एँ। कित्थे हैं?“
”हाँ जी, पता है...हमारा भी पुराना घर टकसाली गेट पर हैं...पर अब हम नए घर में रहते हैं...माडल टाउन में...“ मुझे लगा कि मेरे ज़ोर से बोलने के बावजूद वे सुन नहीं पा रही थीं।
वो बोलती रहीं। ”पीर भोला दी दरगाह है ना? उस्दे अग्गे भाटी बज़ार है...जित्थों सिधा भाटी तक रस्ता जान्दा है...। भाटियाँ उत्तर के उच्ची मसीत नाल
है...फिर खब्बे हत्थ गली नायन है...।“
वो शायद ये साबित करना चाहती थीं कि पूरे इलाके से अच्छी तरह परिचित हैं। बीच-बीच में वो अपने सफेद दुपट्टे से आँखों के कोने भी साफ करती जा रही थीं।
”लहौरी मंडी बज़ार दे नुक्कड़ च इस्लाम गली दे कोल मंदर निहाल चंद है कि नहीं?“
”है जी, अभी मंदर है।“
”वहाँ आरती होणी...खूब चहल-पहल रहंदी सी और बसंत चढ़े रावी किनारे मेला लगदा सी और ये बता लाहौर गेट ते उमराव सिंह दी मिठाई दी दुकान है कि नहीं ? अनारकली मोड़ ते गनपत सड़क दे कोल भगवान दास दी लस्सी दी दुकान और कुन्दन लाल मिठाई वाले की दुकान ते होएगी।“ उनकी आवाज़ भारी होती चली गई।
”लै चल मैनू लहौर...इक बार बस इस बार...मरनों पहलां।“ उन्होंने रोनी आवाज़ में इल्तेजा की और मेरा हाथ अपने काँपते हाथों में पकड़ लिया।
मैं सोचने लगी...यार क्या मुश्किल है। अमृतसर से लाहौर पचास किलोमीटर है। गिल साहब के घर में दो बड़ी शानदार गाड़ियाँ हैं...वे लोग आधे घंटे में लाहौर पहुँच सकते हैं...ये इनके लिए इतना बड़ा सपना क्यों बना दिया गया?
होटल लौटी तो नवीन, प्रदीप और सोनी मेरा इंतज़ार कर रहे थे। प्रोग्राम ये बनाकर आए थे कि मुझे नाटक दिखाने ले जाएँगे...मैं तेयार हो गई। सोनी गड्डी ले आया था। हम सब रंगशाला आए। बड़ी दिलचस्प जगह लगी। स्टेशन से जो सीधी सड़क वाघा बार्डर तक जाती है, उसी पर है। बताया गया, रंगशाला अमृतसर की एक बड़ी संस्था है जहाँ साल भर नाटक होते रहते हैं। छोटी-सी ज़मीन पर पडे़-पौधे और लताएँ वगैरा लगाकर वाकई इसे कलात्मक बनाया गया था। इमारत को इस तरह बनाया गया है कि कच्ची मिट्टी की लगती है लेकिन थियेटर में सभी मार्डन फैसिलिटीज़ हैं। यहाँ स्टेज के कलाकारों से मिली। बिल्कुल उसी तरह चेहरे, वही अंदाज़, वही अदाएँ जो लाहौर के नाटकवालों की हैं, यहाँ भी देखने को मिली। ये भी पता चला कि लाहौर से यहाँ नाटक आते हैं और ये लोग भी वहाँ जाकर नाटक करते हैं...
...अब तक शेर अली की स्टोरी तो अनफोल्ड नहीं हो रही है लेकिन अमृतसर में दोस्तों की तादाद बढ़ रही है। नीतू और सोनी ज्ञानी जी के ढावे में चाय पिलाने ले जाते हैं...ज्ञानी जी की चाय यहाँ की बड़ी ख़ास चीज़ है...चाय में ऐसा ‘फ्लेवर’ होता है जो कम-से-कम मैंने कहीं नहीं देखा...चाय पीने के बाद हम लोग कंपनी बाग़ में टहलने जाते हैं...अपनी विरासत में बेनियाज़ी पाकिस्तान की ही खू़बी नहीं हिन्दुस्तानी भी इसमें कम नहीं हैं...महाराज रंजीत सिंह हिन्दुस्तानी पंजाब के बहुत बड़े हीरो हैं...उन्होंने रागबाग़ नाम से अपना ‘समर पैलेस’ बनवाया था जो आज अपनी बदहाली पर आठ-आठ आँसू बहा रहा है...कहते हैं, सरकारी महकमों में रस्साकशी हो रही है...पैलेस के कम्पाउंड में क्लब खुल गए हैं। इमारतें बहुत खस्ता हाल में हैं...बाग़ात उजड़े पडे़ हैं...एक पुरानी तारीखी इमारत पर ‘मछली घर’ का बोर्ड पढ़कर हैरत में रह गई। इस बोर्ड पर लिखा था ‘मछली घर’ का इनाॅगे्रशन फलाँ-फलाँ मिनिस्टिर ने किया था। सबसे पहले बात तो ये है कि ये तारीख़ी इमारत ‘मछली घर’ कैसे बन गई। दूसरी बात ये कि मिनिस्टर के ज़रिए उसके इनाॅग्रेशन का पत्थर इतना छोटा है और इस कदर घिसपिट गया है कि मुश्किल से पढ़ा जाता है...जहाँ तक ‘मछली घर’ का सवाल है वह तो नज़र ही नहीं आता क्योंकि इमारत के बोसीदा दरवाजे़ चारों तरफ से बंद है। बताया गया कि इमारत की मरम्मत होने वाली है...बाग़ के बड़े आलीशान फाटक पर अंगे्रज़ी में लिखा एक पत्थर लगा है जिस पर अमृतसर की स्पेलिंग ‘यू’ से शुरू होती है और ‘सर’ को ‘यू’ से लिखा गया है। ये फाटक पता नहीं कैसे दो सड़कों के बीच में आ गया है...बाग़ के कोने में महाराजा रंजीत सिंह का घोड़े पर बैठा बहुत इन्पे्रसिब मुजसम्मा लगा है। वहाँ ये पत्थर भी लगा है। कि इसे फलाँ-फलाँ मंत्री ने ‘ओपेन’ किया था।
यूनिवर्सिटी में आना-जाना बढ़ गया है। प्रो. रंधावा ने मुझे भी एक क्लास दे दी है। मजे़ की बात है कि क्लास में सब मेरे दोस्त हैं। उनमें से कुछ तो मेरे बराबर के ही हैं और कुछ साल-दो साल छोटे। मैं अपने सिटी यूनिवर्सिटी लंदन वाले कोर्सेज़ के बारे में बताती हूँ और कभी-कभी लंदन के क़िस्से कहानियाँ छिड़ जाते हैं। वे मुझे हिन्दुस्तान की राजनीति और ख़ासकर पंजाब की राजनीति के लुके-छिपे क़िस्से सुनाते हैं। यूनिवर्सिटी के दूसरे डिपार्टमेंट्स के स्टूडेंट्स से भी मुलाकात है। मैंने पूरी क्लास के ‘ब्लाग’ बनवा दिए हैं। अब सबकी अपनी-अपनी वेब मैगज़ीन है जिस पर वे अपने हिसाब से रोज़ कुछ-न-कुछ डालते रहते हैं। दुनिया के किसी कोने से कोई जवाब आता है तो सब उसे ‘शेयर’ करते हैं। इन लोगों को मैंने लंदन, लाहौर और कराची के मीडिया स्कूलों के ई-मेल भी दे दिए हैं। यहाँ के स्टूडेंट्स से भी इनका कानटैक्ट है।
मिनी बस में पूरी म्यूज़िक कान्फ्रेंस दौड़ी चली जा रही है। आगे की सीटों पर सोनी चावला का बैंड हारमोनियम और तबला लिए जमा हुआ है। पीछे की सीटों पर प्रदीप महाजन, अल्का, नवीन का गैंग मौजू है। सोनी ने सबसे पहले ‘बत्ती बाल के बनेरे उत्ते रखनी हाँ...कहे लंघ न जावे चन्न मेरा’ से शुरुआत की थी उसके बाद प्रदीप ने ‘कदे आ मिर यार प्यारियाँ...तेरी वाटां तो दिल वारियाँ...’ गाया था।
मिनी बस दौड़ी चली जा रही है प्रीत नगर की तरफ जहाँ हमें यानी पूरी क्लास को फीचर करना है। प्रो. रंधावा अपनी गाड़ी से आगे-आगे चल रहे हैं। उनके साथ उपाध्याय साहब और सुधा भाभी भी हैं। पहले मुझसे यही कहा गया था कि मैं गाड़ी में बुजुर्ग लोगों के साथ सफर करूँ। लेकिन मैंने इंकार कर दिया था...प्रीतनगर क्या है ये मुझे किसी ने नहीं बताया था। सब कहते थे तुम्हें ‘सरप्राइज़’ दी जाएगी। तुम खु़द देख लेना।
संगीत और गाने ने ज़ोर पकड़ा तो अल्का उठकर खड़ी हो गई और ठुमके लगाने लगी...उसके साथ एक-दो लड़के और खड़े हो गए। अब संगीत और गाने के साथ-साथ भांगड़ा भी शुरू हो गया। पंजाब की खु़शी भांगड़े में ही फूटती है। वह चाहे इधर का पंजाब हो या उधर का पंजाब हो। ओए-ओए तालियों की आवाज़ों के साथ तबले की थाप अपना रंग जमाने लगी।
पीछे की सीट से जोत गाने लगा-
‘सक्का मल्दियाँ रावी दे
पत्तनां नूं, अग्ग लौण
लहौरना चलियाँ ने’¹
कुछ देर के बाद गाने में सायमा-सायमा की आवाजें़ जुड़ना शुरू हो गई...
”चल सायमा ठुमका लगा।“ पीछे से आवाज़ आई। सायमा नहीं उठी। वह हँस रही है।
”चल सायमा, लाहौरी ठुमका लगा।“ वह और ज़्यादा हँस रही है।
”चल, नख़रे न दिखा।“ ये किसी लड़की की आवाज़ है।
”ओए, लहौर दिए कुड़ी...तेरे नाम दे नारे लगाइए...“
सायमा...सायमा...सायमा के नारे लगने लगे...सायमा ने अपने कानों पर हाथ रख लिए।
”तुम जब तक ठुमका नहीं लगाओगी...इसी तरह सायमा, सायमा चिल्लाते रहेंगे।“ जोत बोला।
सायमा उठी और बस के बीच में खड़े होकर ठुमके लगाने लगी। गाना और तेज़ी से गासा जाने लगा।
मिनी बस एक पतली-सी सड़क पर रुक गई। सामने इंस्टीट्यूशन जैसी इमारत है। ऊपर एक बोर्ड लगा है-‘गुरुबख्श सिंह प्रीतलड़ी मेमोरियल सोसाइटी।’
अंदर आडिटोरियम है। पीछे ओपन एयर थियेटर है। लायब्रेरी है, कम्प्यूटर रूम हैं...दूसरे कमरे हैं...गेस्ट रूम हैं...
कुछ ही देर में हम सब आगे बढ़े। किसी ने बताया यह बलराज साहनी का घर था। आगे एक तरफ इशारा करके कोई बोला-ये नानक सिंह का मकान है...किसी ने कहा, यहाँ पृथ्वीराज कपूर भी रहते थे...मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ये सब क्या है? क्यों है? कब से है?
हम सब एक गैट में दाखि़ल हुए। सामने पुराने वक़्त का बंगला नज़र आया जैसे लाहौर के माॅडल टाउन में आज से पच्चीस-तीस वर्ष पहले तक नज़र आते थे। अब तो उन्हें तोड़कर आलीशान इमारतें बन गई हैं।
”सर, हम लोग...कहाँ? मतलब किसके पास जा रहे हैं?“ मैंने प्रो. रंधावा से पूछा। रंधावा साब से जैसी कि उम्मीद थी उन्होंने एक ज़ोर से ठहाका लगाया। उपाध्याय जी ने कुछ ज़्यादा साफ तरीेके से बताना शुरू किया, ”हम लोग गुरुवख्श सिंह ‘प्रीतलड़ी’ के घर जा रहे हैं। उन्होंने ही सन् 1937 के आसपास ‘प्रीतनगर’ बनाया था।“
”अब यहाँ कौन रहता है?“
”प्रीतलड़ी जी के बेटे हृदयपाल सिंह और उनकी बेटी उमा यहाँ रहते हैं।“
प्रो. रंधावा और उपाध्याय जी की कयादत में लड़कों-लड़कियों का पूरा ग्रुप एक बड़े से लिविंग रूम में पहुँच गया। ऊँची छत, खुले-खुले रोशनदान, चिकना साफ फर्श, बहुत आर्टिस्टिक फर्नीचर...किताबें...प्रो. रंधावा के ठहाकों से जब कुछ फुरसत मिली तो हम लोगों का काम शुरू हुआ। मैंने अपना टेपरकाॅर्डर हृदयपाल जी के सामने रख दिया।
”प्रीतनगर भारत-पाक सीमा से सिर्फ़ आठ किलोमीटर पंजाबी के मशहूर लेखक गुरुबख्श सिंह प्रीतलड़ी का एक सपना है। प्रीतलड़ी को सपना साज़ और लफ्ज़ों का जादूगर भी कहा जाता है। गुरुबख्श सिंह प्रीतलड़ी मिशीगन यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग पढ़कर आए थे। उनका संबंध एक औसत दर्जे के घराने से था जिस वजह से उन्हें दूसरों की मदद की जरूरत पड़ती रहती थी। यह बात उन्होंने गाँठ से बाँध ली थी कि तरक्की का रास्ता मिल-जुलकर ही निकाला जा सकता है...अपने आदर्शों के लिए सपना साज़ ने एक सपना देखा था...इससे पहले 1933 में वो ‘प्रीतलड़ी’ रिसाला शुरू कर चुके थे। उनकी गिनती पंजाब के श्रेष्ठ लेखकों में होने लगी थी...1937 में उन्होंने अपने सपनों को विस्तार दिया और एक ‘आइडियल कम्युनिटी विलेज’ बनाने का फैसला किया...एक ऐसी आबादी जो उनके सपनों से मेल खाती हो...जो आदर्श बन सके...1937-38 में उन्होंने इस इलाके में अपने दोस्तों के साथ रहना शुरू किया। आठ मकान बनाए गए जिनमें नानक सिंह, चमन लाल, दलीप सिंह, प्यारा सिंह सराई जैसे बुद्धिजीवी लेखक और विचारक शामिल थे। ये सोचा गया कि हर घर में अलग खाना पकाया जाता है जिसमें औरतों का सारा वक़्त चला जाता है। इसलिए एक कम्युनिटी किचन, सांझा चूल्हा बनाया गया, कम्युनिटी बाथरूम बनाए गए जहाँ इस्तेमाल किया गया पानी बाक़ायदा रि-साइकिल होता था। किचन गार्डेन बनाया गया... एक्टिविटी स्कूल खोला गया...जहाँ पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ कल्चरल एक्टिविटीज होती थीं।...और प्रीतलड़ी जी ने ‘एवरक्लीन लैट्रिन’ डिवलप किया जो अपने ज़माने का एक बहुत ज़रूरी और उपयोगी क़दम था। इस एवरक्लीन लैट्रिन का डिज़ाइन यहाँ से बिनोवा भावे भी ले गये थे। एवरक्लीन लैट्रिन बन जाने से सफाई का काम करने वालों को पढ़ा-लिखाकर दूसरे काम सिखाए गए...उनमें से कुछ दस्तकार बन गए... कुछ ने दूसरे पेश अपना लिए... सांझा चूल्हा की वजह से औरतों का टाइम बचा जो उन्होंने कम्युनिटी के स्कूल को दिया...कल्चरल एक्टिविटीज़ को बढ़ाया। प्रीतनगर को पंजाब का पहला प्लैंड टाउनशिप भी कहा जाता है। ये चंड़ीगढ़ वगै़रा तो बहुत बाद की चीजें़ हैं...एक और दिलचस्प बात है कि प्रीतलड़ी दीवारें उठाने, चैहद्दी खड़ी करने के खि़लाफ थे। उनका मानना था कि आने वाले के लिए रास्ते खुले होना चाहिए। इसलिए यहाँ जितने मकान बने उनमें ‘बाउंडरी वाल’ नहीं है...यहाँ काग़ज़ बनाया जाता...प्रीतलड़ी यहीं से छपती थी...यहाँ अपने इस्तेमाल के लिए साबुन, तेल, कपड़ा और दीगर चीजें बनती थीं। एक पूरी काटेज इंडस्ट्री डिवलप हो गई थी।“
चाय आ गई। थोड़ी देर के लिए हृदय पाल जी ने बातचीत का रुख बदल दिया। आजकल जो काम प्रीतनगर में हो रहा हे उसकी चर्चा होने लगी। नाटकों का मंचन, वर्कशाप, ट्रेनिंग प्रोग्राम, लायबे्ररी...
”उस ज़माने में प्रीतनगर ने बड़े-बड़े लोगों को आकर्षित किया था। जवाहरलाल नेहरू यहाँ आए थे। टैगोर यहाँ आए थे और उन्होंने इसे पंजाब का शान्ति निकेतन कहा था। यहाँ उस जमाने में पक्की सड़कें होती थीं जिन्हें धोया जाता था...धीरे-धीरे यह देश प्रेमियों का गढ़ बनता गया और इसका स्वरूप पहले भी एंटी ब्रिटिश था, बात में और ज़्यादा होता चला गया। जैसे-जैसे राष्ट्रीय आन्दोलन बढ़ा वैसे-वैसे प्रीतनगर में ब्रितानी साम्राज्य के खि़लाफ भावना बढ़ी...यहाँ बलवंत गार्गी ने नाटक किए हैं, अचना सचदेव ने किए हैं। यहाँ फैज अहमद फैज, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, साहिर लुधियानवी जैसे लोग काम कर चुके हैं।
सन् 1943 में शीला भाटिया ने अपना मशहूर नाटक ‘हुल्ले हुलारे’ यहाँ किया था। यह पहले लाहौर में खेला जा चुका था...इसी ज़माने में बलराज साहनी, मुल्कराज आनंद, पृथ्वीराज कपूर, जगदीश सिंह अरोड़ा, रविन्दर रवि और प्रख्यात डाक्युमेंट्री मेकर सुखदेव यहाँ रहकर काम कर चुके थे...शीला भाटिया का नाटक बहुत पसंद किया गया था। हज़ारों लोगों ने उसे देखा था...यह एंटी साम्राज्यवादी नाटक था। उस ज़माने में अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर को सरकार ने आदेश दिया था कि नाटक किसी भी सूरत से रोका जाए। ब्रिटिश सरकार यहाँ के प्रमुख लोगों के नाम गिरफ्तारी के वारेंट निकलवा दिए थे। शीला भाटिया को गिरफ़्तार कर लिया गया था। दूसरे लोग अंडरग्राउंड हो गए थे...पूरे प्रीतनगर पर सख्ती की जाने लगी...इसी दौरान पार्टीशन की आग भड़क उठी...पहले ये सुनने में आया कि प्रीतनगर पाकिस्तान में चला जाएगा...यहाँ बड़ी खलबली मच गई थी...एक महीने बाद पता चला नहीं...बार्डर यहाँ से आठ किलोमीटर दूर होगा...फिर फसाद शुरू हो गए...।“
बीच-बीच में कोई कुछ पूछ लेता है तो बात विस्तार ले लेती है।
”फिर क्या हुआ?“
”बस दीवानगी, पागलपन का दौर शुरू हो गया...भयानक मार-काट मची...आग और खू़न...इस दौरान सरदार जी के पास कुछ ग़रीब मुसलमान आए और कहा कि हम लोग पाकिस्तान जा रहे हैं, पर हालात ऐसे नहीं कि अपने बीवी बच्चों को साथ ले जा सकें...आप उन्हें कुछ दिन के लिए अपने यहाँ रख लीजिए...कुछ शान्ति होते ही हम आकर ले जाएंगे...दार जी ने मुसलमान औरतों और बच्चों को रख लिया।“
एक आध महीना बाद वे लोग आए और अपने बाल बच्चों को ले गए। तब यह बात इलाके वालों को पता चली। नफरत इनती बढ़ गई थी कि लोग दारजी के खून के प्यासे हो गए...ये कहा कि इन्होंने हमारे दुश्मनों को छिपा कर रखा था...हालात खराब होते चले गए...हमले होने लगे...स्कूल में आग लगा दी गई...जान बचाना मुश्किल हो गया...इसलिए दारजी ने प्रीतनगर आर्मी के हवाले कर दिया और दिल्ली चले गए...जब हालात साज़गार हुए तो वापस आए...पर काफी कुछ तबाह हो चुका था। धीरे-धीरे फिर जमना शुरू किया...लेकिन बार्डर पर होने की वजह से यह हुआ कि इलाका स्मग्लरों का अड्डा बन गया...यहाँ वह सब होने लगा जो पहले कभी नहीं हुआ था। ऐसे हालात पैदा हो गए कि माफिया ताकतवर होता चला गया। हम लोग अपने को असहाय महसूस करने लगे...उसके बाद 1965 में जंग छिड़ गई। ये इलाका हमसे ख़ाली करा लिया गया। फिर 1971 की जंग छिड़ी...फिर इलाका खाली करा लिया गया।...आप जो सामने जगह देख रहे हैं यहाँ एंटी एयरक्राफ्ट गनें लगा दी गई थीं... तोपें तैनात हो गई थीं...पूरी सिवीलियन आबादी से इलाका खाली करा लिया जाता है...अब हमेशा ये डर लगा रहता है कि पता नहीं, कब क्या हो जाए?
”तो पार्टीशन ने एक और सपना तोड़ दिया।“ किसी ने कहा।
”नहीं...नहीं, टूटा नहीं है...हम लोग लगे हुए...अभी देखा आपने, नई बिल्डिंग बनाई है...वहाँ नाटक होते हैं...और दूसरी एक्टिविटीज़ होती हैं।“
...मैं प्रीतलड़ी जी की बेटी उमा सिंह के साथ ‘एवरक्लीन लैट्रिन’ देखने के लिए लिविंग रूम से निकलकर पीछे के कमरे में आ गई। ये शायद खाने का कमरा था। उसके बराबर गैलरी में बैडरूम के बाहर उमा जी ने मुझे ‘एवरक्लीन लैट्रिन’ दिखाया। ये सोचकर कुछ हैरत हुई कि प्रीतलड़ी ने इसे 1936-37 के आसपास डिज़ाइन किया था।
‘एवरक्लीन लैट्रिन’ के ऊपर कैमरों की फ्लैश पड़ने लगीं।
कोठी के पीछे धूप में खड़े होकर फिर बातचीत प्रीतनगर पर आ गई। उमा जी ने बताया-”यहाँ कोई गुरुद्वारा, मंदिर, मस्जिद नहीं थी। एक कमरा था जिसे ‘प्रेयर रूम’ कहा जाता था। जहाँ कोई धार्मिक प्रतीक चिन्ह नहीं था। उस कमरे में किसी भी धर्म को मानने वाला जाकर प्रार्थना, पूजा, नमाज़ अदा कर सकता था।“
फिर चाय आ गई। सब धूप में खड़े होकर चाय पीने लगे।
”वो उधर सामने का मकान देख रही हो।“ उमा जी ने मुझसे पूछा।
”हाँ-हाँ।“
”उसी मकान में प्रीतलड़ी जी ने मुसलमान औरतों और बच्चों को पनाह दी थी।“ वे बोलीं।
मैं सोचने लगी प्रीतलड़ी को यह मालूम होगा कि मैं मुसलमानों को पनाह देने जा रहा हूँ और ये बात अगर पता चल गई तो बदले की आग में जलने वाले प्रीतनगर को भस्म कर देंगे...सपना देखने वाले...उसूलों के लिए...सपनों का कुर्बान भी कर सकते हैं...
खेत की मेड़ पर चलते हुए सायमा ने नवजोत से कहा, ”मुझे ऐसी तारीख़ी इमारतें पसन्द हैं जिनकी देखरेख न की जाती हो?“
”वाह जी...ये तो अजीब बात है? क्यों?“
”इसलिए कि उन इमारतों में तारीख़ मतलब हिस्ट्री नज़र आ जाती है...नहीं तो हिस्टॉरिकल मोनुमेंट्स’ में सिर्फ़ ‘टूरिज़्म’ दिखाई पड़ता है।“ वह बोली।
”तब तो सामने वाली इमारत तुमको अच्छी लगेगी।“ नवजोत बोला।
लंच करने के बाद कदीमी तालाब के दूसरी तरफ बनी पुरानी तारीख़ी इमारत को देखकर सायमा ने पूछा था कि यह क्या है?
”नूरजहाँ...वही ताजमहल वाली नूरजहाँ...जानती हो न?“
”क्यों न जानूँगी?“
”सुना है, तुम्हारे यहाँ दूसरी तरह से हिस्ट्री पढ़ाते हैं।“
”वह सब छोड़...मैं कोई सीरियस बात करने के मूड में नहीं हूँ...ये बता कि इस खंडहरनुमा इमारत का नूरजहाँ से क्या ताल्लुक है?“ वह बोली।
”सुन, मुग़लों को कश्मीर बहुत पसन्द था।“
”पाकिस्तानियों को भी कश्मीर बहुत पसन्द है।“ सायमा हँसकर बोली।
”देख, तू कह रही थी कि सीरियल बात करने के मूड़ में नहीं है।“ नवजोत बोला।
”अरे, तो क्या मैंने कोई सीरियस बात कह दी ?“ वह हँसकर बोली और दोनों हँसने लगे।
”चल-चल, बता...साॅरी।“ सायमा बोली।
”मुग़ल किंग शाहजहाँ की मल्का नूरजहाँ आगरा से कश्मीर जाया करती थीं तो उनके रास्ते में ठहरने के लिए सैकड़ों इमारतें बनाई गई होंगी...उनमें से एक इमारत यह भी है...इसे नूरजहाँ की आरामगाह कहते हैं।“ नवजोत बोला।
”गे्रट...उस जमाने में कश्मीर का रास्ता लाहौर होकर जाता था।“
”हाँ, और लाहौर का रास्ता अमृतसर से गुज़रता है।“ नवजोत ने कहा।
इमारत के अंदर आकर सायमा ने कहा, ”ये तो बहुत शानदार इमारत है।“
”बादशाहों ने बनवाई है, शानदार तो होना ही चाहिए...देख इसमें ‘इको’ होता है।“ नवजोत ज़ोर से चीख़ा...‘सायमा’ और आवाज़ रिपीट होने लगी; सायमा, सायमा, सायमा, सायमा...
”अब मैं किसका नाम लूँ?“ सायमा ने पूछा।
”अपने प्रेमी का नाम ले ले।“ नवजोत बोला।
”शिश..मेरा कोई प्रेरमी नहीं है।“ सायमा बोली।
”अरे...बिना प्रेमी के इतनी बड़ी हो गई।“ नवजोत बोला और सायमा हँसने लगी।
”मतलब आजकल नहीं है।“
”तो बना लो।“ नवजोत ने कहा।
”इतना आसान होता तो क्या था।“ वह गंभीरता से बोली। नवजोत उसकी तरफ देखने लगा। अजीब लड़की है। कभी-कभी इतना खु़श लगती है...इतनी खुली हुई...महकती हुई और कभी-कभी बिल्कुल बंद दरवाज़ा हो जाती है...
अब्दुल रज़्ज़ाक साहब मेरी जान के दुश्मन हैं...एक तो उन्होंने मुझे एक ऐसी स्टोरी पर लगा दिया है जो खुलने का नाम ही नहीं ले रही है...मैं अजनाला के बार्डर एरिया की मनो धूल खा चुकी हूँ लेकिन आज तक ये पता नहीं चला कि शेर अली कौन था? कहाँ से आया था? क्यों आया था? किससे मिला था? कैसे मरा? क्या पुलिस को वहीं मिला जहाँ पुलिस कहती है?...इन सब सवालों से उलझने का काम एक तरफ है और दूसरी तरफ रज़्ज़ाक साहब मुझसे ये उम्मीद करते हैं कि मैं बॉर्डर पर जो सपने टूटे पड़े हैं उनकी किरचें बटोरकर अख़बार में भेजती रहूँ...बहुत ‘डेमाडिंग एडीटर’ हैं...लेकिन कुछ सीखने-समझने का मौक़ा भी ऐसे ही हालात में मिलता है। उनका ई-मेल आया है, ”सायमा तुम कमाल कर रही हो...प्रीतनगर वाली स्टोरी भी बहुत अच्छी है...बार्डर पर सपने टूटे पड़े हैं...उन्हें कौन जोड़ेगा...कई लोगों के फोन आ चुके हैं और कई ई-मेल मिले हैं...उर्दू के अख़बार ‘नवाये वक़्त’ ने तुम्हारा ‘पीस’ मुझसे पूछकर उठा लिया है...अच्छा, जब तक अपने शेर अली का सुराग़ नहीं मिलता तुम...एक स्टोरी तो सआदत हसन मंटो पर कर सकती है...उनके फारमेटिव साल अमृतसर में ही गुज़रे थे...उन जगहों के हवाले मंटो की कहानियों और ख़ाको में बिखरे पड़े हैं...देखो शहर के साथ मंटो का क्या ताल्लुक था...
(जारी)
© असग़र वजाहत
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