Sunday, 9 January 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - दो (1)

“हम अ-ब्राह्मणों को अपना अधिकार ब्रिटिशों के रहते ही लेना होगा। अन्यथा यह ब्राह्मण सत्ता कभी खत्म नहीं होगी, और हम द्रविड़ों को सदा के लिए Brahmanocracy के अत्याचार में जीना होगा”

- ई वी रामास्वामी ‘पेरियार’ [सेलम में 1924 में दिए एक भाषण में]

मैं बचपन में एक बार बिहार के एक कांग्रेस कार्यालय गया। उन दिनों जगन्नाथ मिश्र नामक मुख्यमंत्री का आखिरी समय चल रहा था। वह जिला कार्यालय फौरी तौर पर ब्राह्मणों का जमावड़ा लग रहा था। अब भी सदाकत आश्रम (बिहार कांग्रेस) की स्थिति कमो-बेश यही है। कांग्रेस की संरचना मुख्यत: सवर्णों से बनी थी, और बाद में जब भाजपा रूप में दूसरी बड़ी पार्टी उभरी तो उसकी भी संरचना यही रही। अस्सी के दशक के अंत में अहीरों के राजनैतिक उदय के बाद उत्तर भारत में कुछ सत्ता बदलाव अवश्य हुए जिसे समाजवाद नाम दिया गया। लेकिन, यह उफ़ान भी स्थायी नहीं रह सकी। और तमिलनाडु में?

तमिलनाडु में भी आज़ादी के बाद ब्राह्मण-बहुल कांग्रेस की ही सरकार रही। मद्रास के पहले मुख्यमंत्री राजागोपालाचारी बने। उनके बाद के कामराज आए और तमिल कांग्रेस में ब्राह्मणों का नेतृत्व क्रमश: घटता गया। आज़ादी के बीस साल बाद पहली बार द्रविड़ दल सत्ता में आयी, और उसके बाद से वह और उसकी एक शाखा पक्ष और विपक्ष में रहे। दोनों ही दलों में एक नाम कॉमन है- द्रविड़ मुनेत्र कझगम (द्रविड़ विकास दल)।

ऐसा क्यों हुआ कि उत्तर भारत में सवर्णों की राजनैतिक सत्ता कायम रही, जबकि तमिल प्रदेश में चली गयी? 

उत्तर भारत में सवर्ण की परिभाषा बृहत है, जिसमें बुद्धिजीवी ब्राह्मण-कायस्थ, सामंत क्षत्रिय, और व्यापारी वैश्य सभी शामिल हैं। उनके पास धन, बल, बुद्धि तीनों है। यह एक अजेय टीम थी और आज भी थोड़ी-बहुत है। 

जबकि मद्रास में पेरियार ने सिर्फ़ ब्राह्मणों को अलग कर दिया, और शेष सभी एक द्रविड़ छत्र के नीचे आ गए। द्रविड़ों में धनाढ्य जमींदार भी थे, व्यापारी भी, किसान भी, कुछ मुंशी भी और कहीं कोने में दुबके वास्तविक दलित-अछूत भी। यह भी एक अजेय टीम थी और आज तक है। 

प्रश्न तो अब भी ज्यों का त्यों है कि वहाँ यह लॉजिक चल कैसे गया? वहाँ सवर्णों में ब्राह्मणों के साथ अन्य समृद्ध वर्ग क्यों नहीं जुड़े? इस प्रश्न के उत्तर के लिए पुन: ‘आर्य प्रवास/आक्रमण सिद्धांत’ पर लौटना होगा।

जैसा पहले लिखा है कि भाषा के आधार पर मैक्समूलर ने आर्य भाषाओं का समूह बनाया, और काल्डवेल ने द्रविड़ भाषाओं का। यही समूह नस्ल में तब्दील होते गए। एक तर्क का निर्माण हुआ। दरअसल इन दोनों भाषाविदों से पूर्व 1838 में एक किताब छपी थी- ‘भारत तीन हज़ार वर्ष पूर्व’,  जिसे एक स्कॉटिश मिशनरी यूहान विल्सन ने लिखा था। इसी पुस्तक में उन्होंने लिखा,

“इन्होंने (आर्यों ने) संभवत: यहाँ के मूल निवासियों पर आक्रमण किया जो परिस्थितियों से स्पष्ट है। इन मूल निवासियों का समूह जो इनका दास बनता गया, वह कहलाया ‘शूद्र’।”

उस समय इस पुस्तक पर भारतीयों का ध्यान अधिक नहीं गया, लेकिन महाराष्ट्र के एक व्यक्ति ज्योतिराव गोविंदराव फुले तक यह पुस्तक पहुँची। उन्होंने इस आधार पर ‘गुलामगिरी’ नामक एक पुस्तक लिखी, जिसमें इस सिद्धांत के प्रायोगिक उदाहरण थे। उन्होंने यह भी अनुमान लगाया कि मूल निवासियों का एक जत्था, जो दास नहीं बना, वह दक्षिण भारत में सिकुड़ गया। जहाँ उत्तर भारत के आर्य-दमित शूद्र कहलाए दलित, दक्षिण भारत के ये आर्य-निष्काषित मूल निवासी कहलाए द्रविड़।

उसके बाद एक प्रमेय से उप-प्रमेय जन्मते चले गए। मद्रासियों को नया नाम, नयी पहचान मिली। नया उत्तरदायित्व भी मिल गया। द्रविड़ों की मर्यादा का। पेरियार के ‘सेल्फ रेस्पेक्ट मूवमेंट’ के शुरुआत का। जब सामूहिक रूप से एक पुस्तिका जलायी गयी, जिसका शीर्षक था- मनुस्मृति। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास (19)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/19.html
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