रात होटल के कमरे में सायमा बहुत देर तक सो नहीं पाई...उसने आज का एक्सपीरियंस लिखकर दोस्तों को ई-मेल कर डाला। उसके बाद भी नींद नहीं आ रही थी।...मेल चेक किया तो एक दो जवाब आ गए थे...ये सब क्या है? एटैचमेंट...आप अपनी जड़ों से नहीं कट सकते हैं? जड़े सिर्फ़ लोगों की होती हैं, परिवारों की होती हैं या देशों की होती हैं?...हाँ तो ये बड़ी सीरियस बात है...उसने रज़्ज़ाक साहब को दो लाइन का मेल भेजा-क्या देशों की भी जड़ें होती हैं और वे अपनी जड़ों से कटकर नहीं जी सकते तो पाकिस्तान की क्या जड़ें हैं...भारत की क्या जड़ें हैं?
...रज़्ज़ाक साहब, हो सकता है ये जो मैं टाइप कर रही हूँ आपको कभी न दिखाऊँ...हो सकता है किसी और को भी न दिखाऊँ...ये जो मैं लिख रही हूँ...अपने दिमाग़ के दरवाज़ों पर दस्तक देने के लिए लिख रही हूँ।...मैं पाकिस्तान में पैदा हुई...मैंने पार्टीशन नहीं देखा...न मेरे घर-ख़ानदान से कोई आया न गया...सब कुछ बिल्कुल नार्मल रहा...स्कूलों और काॅलिजों में मुझे पाकिस्तान की तारीख़ पढ़ाई गई...पाकिस्तान से प्यार करना सिखाया गया...टू नेशन थ्यिोरी समझाई गई और बताया गया कि हिन्दुस्तान का पार्टीशन बिल्कुल वाजिव और सही था... हिन्दुस्तान में हिन्दू और मुसलमान नाम की दो ‘नेशनल्टीज़’ थीं जिनका साथ रह पाना नामुमकिन था...इस्लाम और उर्दू को बचाना भी लाज़िम था इसलिए पाकिस्तान बनाया गया...यहाँ भारत में बहुत से लोगों से मिलती हूँ तो ये कहते हैं कि टू नेशन थ्यिोरी ग़लत थी...राष्ट्रीयता का आधार धर्म नहीं हो सकता... पाकिस्तान के नाम पर हिन्दुस्तान का मालदार मुसलमान एक ‘सेफ पेराडाइज़’ बनाना चाहता था...और कुछ नहीं था...अब सवाल ये है कि सच्चाई क्या है? मैं कहती हूँ अगर इस्लाम पाकिस्तान का आधार नहीं बन सकता तो ‘जूडेइज़्म’ इज़राइल का ‘बेस’ कैसे बना? और पूरे योरोप और अमेरिका ने इस ज़रूरत को क्यों महसूस किया कि यहूदियों को एक मुल्क दिया जाना चाहिए? चलिए अगर मान भी लें कि टू नेशन थ्यिोरी ग़लत थी तो क्या आज पाकिस्तान के करोड़ों लोगों का मुल्क और वजूद ही ग़लत ठहराया जाएगा?...मतलब...यह कितना सीरियस होगा? अगर उसका वजूद ग़लत है ...तो क्या पाकिस्तान को भारत में मिला दिया जाए? तब तो बांग्लादेश के साथ भी यही किया जाना चाहिए...उसका केस तो पाकिस्तान से ज़्यादा पक्का है...तब?...फिर अफगानिस्तान? म्याँमार, नेपाल, श्रीलंका...? रज़्ज़ाक साहब, छोड़िए इन बड़े-बड़े लफ़्ज़ों और मोटे-मोटे उसूलों को और बात को दूसरे कोने से शुरू करें...ये कोना है जहाँ लोगों का दिल है, उनके जज्बात हैं, हम आप सबसे ये मानते हैं कि जो कुछ भी है, मतलब पूरी नालेज, साइंस, टेक्नाॅलाजी, सरकारें, संविधान सब लोगों के लिए हैं...मुल्क लोगों के लिए हैं या होने चाहिए.....तो देखना चाहिए भारत पाकिस्तान में रहने वाले लोग कौन हैं? कौन-सी ज़बाने बोलते हैं? उनकी तहज़ीब क्या है? उनकी तारीख़ क्या है? इसमें कोई शक नहीं...ये मैंने अपनी आँखों से पहली बार देखा और महसूस किया है कि इन मुल्कों में रहने वाले दुश्मन नहीं हैं...इनको दुश्मन क्यों बना दिया गया है...मैंने कहीं पढ़ा है कि कायदे आजम़ पाकिस्तान में अपनी ज़रूरी जिम्मेदारियाँ पूरी करके बंबई में जाकर रहना चाहते थे क्योंकि वह शहर उन्हें पसंद था...गाँधीजी पाकिस्तान जाना चाहते थे...क्यों? इन दोनों हज़रात का क्या ख़याल था इन दो मुल्कों के बारे में? अफ़सोस ये है कि दोनों को अपने इन ख़यालात को पूरा करने के लिए वक़्त नहीं मिल सका...लेकिन इतना तय है कि इंसानी रिश्तों, जज़्बों को कुचलकर सरहदें नहीं बनाई जानी चाहिए...मुझे नवजोत ने एक हिन्दी नज़्म का पंजाबी तरजुमा सुनाया...शायर का नाम तो मुझे याद नहीं है लेकिन ये नज़्म 1971 की हिंद-पाक जंग के बाद ही लिखी होगी...नज़्म सरहद पर है.... सरहद कौन पार करता है? मुल्कों के प्रीसीडेंट और प्राइम मिनिस्टर, सरकारी ओहदेदार, बड़े कारोबारी या हाथ में बंदूक लिए सिपाही...आम लोगों को सरहद पार करने का मौका क्यों नहीं मिलता?...रज़्ज़ाक साहब मैं इतना कुछ जुनून में लिख गई हूँ...लेकिन कितनी अच्छी बात है कि ये आपको पढ़ना नहीं पड़ेगा...
धीरे-धीरे वह खिसकता हुआ ‘लैपटाप’ माॅनीटर से बिल्कुल क़रीब आ गया है। उसकी धुँधली और और बेजान-सी आँखें स्क्रीन पर नज़र आने वाली तस्वीर की हर ‘डिटेल’ देख लेना चाहती है। मुझे लग रहा है कि शायद मुझे ये नहीं करना चाहिए था। अतीत में जाकर सुरक्षित वापस निकल आना शायद मुश्किल काम है।
”तुसी चश्मा क्यों नहीं लगांदे?“ मैंने सतवीर से पूछा।
वह तस्वीरें देखने में इतना डूबा हुआ था कि मुझे अपना सवाल दोहराना पड़ा। तब उसने बताया कि हाल बाज़ार में चश्मा बनवाया तो था पर उसे भी जाने कितने साल हो गए और न जाने कहाँ चला गया।
”तो तुम्हें सब दिखाई दे रहा है।“ मैंने पूछा।
वह कुछ नहीं बोला। लेकिन ज़रूर उसे सब दिखाई दे रहा होगा क्योंकि क़रीब-क़रीब हर तस्वीर को देखकर वह कुछ-न-कुछ ज़रूर बुदबुदाता था जो कभी मुझे सुनाई पड़ जाता था और कभी नहीं।
सुबह नौ बजे रिसेप्शन से फोन आया था कि मुझसे मिलने सतवीर आया है। पहले तो कुछ समझ नहीं पाई कौन सतवीर है जो सुबह नौ बजे मिलने चला आया। पर बाद में लोकेट कर लिया। मैं उससे मिलने नीचे गई तो वह अपनी बीवी को भी साथ लाया था।
”ले ये तेरे लिए पिन्नियाँ लाई है बनाकर।“ उसने मुझे एक डिब्बा पकड़ाते हुए कहा था।
...लेकिन क्यों? ये पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी और अच्छा ही हुआ क्योंकि दूसरे ही लम्हे वह बोला था, ”तू हमारे पिंड की बेटी है...ये तो तेरे लिए परदेस जैसा है...मैं तो सोचता था कि घर का मक्खन ले चलूँ, पर ये बोली कि मक्खन से अच्छा है पिन्नियाँ बना लूँ।“
मैं एकटक उन दोनों की तरफ देखती रही। बिल्कुल इसी तरह होते हैं हमारी तरफ के किसान। बिल्कुल दिल की बात धड़ से कहने वाले और अपना हक जताने वाले।
”...क्यों तकलीफ की आपने।“ मैंने सतवीर की पत्नी से कहा।
”चल हट...बड़ी आई तकलीफ बताने वाली...ये तो रात भर मारे खुशी के सो नहीं पाए हैं...वही सतघरा की बातें करते रहे...परिवार की बातें, गाँव की बातें...लोगों की बातें...“
”अरे, इन्ने सालां बाद वी ते याद आई न...कौन-सी रोज़-रोज़ आंदी है...“ सतवीर बोला।
मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं यहाँ होटल में इनकी क्या खातिरदारी करूँ।
”चाय पियोगे?“
”नहीं जी, हम चाय नहीं पीते।“ वह फटाक से बोला।
”लस्सी पी लो।“
”लस्सी पीकर और रोटी खाकर चले हैं...तू उसकी फिक्र न कर।“
”तो कुछ और खाओ न।“
”अरे बस रहने दे...बस बैठ जा...और देख ये फुलकारी लाई हूँ तेरे लिए
...“
सतवीर की पत्नी ने फुलकारी निकालकर दिखाई।
”बहुत खूबसूरत है।“
”सतघरा में तेरा मकान किधर है?“ वह बोला।
”जी वड्डा फाटक है न उसके पास समझो सज्जे हत्त फसील से मिला हुआ
...पहला मकान है।“
”सोचने दे...सोचने दे...अब तक सब साफ-साफ याद है...। एक-एक तिनका
... झाड़ी...पेड़...पत्थर...सब याद है...अच्छा तो वड्डा फाटक...हाँ समझ गया...उसके सज्जे हत्त...हाँ...हाँ...ये तो हकीम तुफैल का मकान कहलाता था...“ वह खु़श होकर बोला।
”हाँ, हकीम तुफैल मेरे दादा थे।“
”तेरे दादा थे...वाह जी वाह...मुझे तो याद है जी उनकी सग्गड़ पूरे इलाके में मशहूर थी और बैलों का जोड़ा भी हमेशा चंगा ही रखते थे हकीम तुफैल।“
इसके बाद वह एक-एक गली और घर के बारे में पूछने लगा। ऐसे नाम लेने लगा जो कभी सुने ही नहीं थे। आखि़रकार मुझे बताना पड़ा कि हम लोग पिछले तीस-चालीस साल से लाहौर में रह रहे हैं। सतघरा में मकान है वहाँ भी रिश्तेदार रहते हैं लेकिन हम...अब वहाँ नहीं रहते।
”दो तीन साल विच एक अध बार जांदी ते होंएगी?“
”हाँ-हाँ, क्यों नहीं...बचपन में गर्मियों की छुट्टियों में हम सब सतघरा जाया करते थे।“
यह कहते-कहते मुझे याद आया कि मेरे लेपटाॅप में सतधरा की कुछ तस्वीरें पड़ी हैं जो मैं सतवीर को दिखा सकती हूँ...शायद उससे बड़ा कोई और तोहफा उसके लिए नहीं हो सकता।
”चलो, तुम्हें दर्शन करा दें।“ मैंने सतवीर से कहा।
”कहाँ के दर्शन?“
”छोटा ननकाणा साहिब के दर्शन।“ मैैंने कहा।
उसकी आँखें हैरत से फैल गईं और लगा उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। वह बिल्कुल बिन कुछ सोचे समझे मूर्ति की तरह मुझे देखने लगा।
”मेरे कम्प्यूटर में छोटा ननकाणा साहब के फोटो है...देख लो...आओ।“
तस्वीरें देखने में सतवीर पूरी तरह डूबा हुआ है और उसके कमेंट जारी हैं। बुर्ज को देखकर उसने कहा कि लगता है कि अब देख-रेख का काम कम हो गया है...।
‘चाकरे आज़म’ को देखकर वह पहचान गया और बोला, ”यहाँ लड़कपन बीता है...गन्ने चूसे हैं...डंगर चराने यहीं आया करता था।“
छोटा ननकाणा साहब देखकर उसने स्क्रीन के सामने मत्था टेका और फिर हाथ जोड़कर कुछ बोला भी जिसे मैं नहीं समझ सकी। मैंने भी जानबूझकर छोटा ननकाणा साहब का फोटो स्क्रीन पर बहुत देर रोके रखा ताकि सतवीर और उसकी पत्नी ठीक से देख लें।
”बापू रोज़ सुबह हम दोनों भाइयों को लेकर यहाँ जाया करते थे...। शब्द कीर्तन के बाद कड़ाह प्रसाद मिलता था...जब छोटा था तो गुरु परब में पालकी के साथ-साथ चला करता था...पर जल्दी ही मैं गतका खेलने लगा था। कत्तक के महीने की धूप में गुरुद्वारा जगमगाता था...नगर कीर्तन में पंज प्यारे, पालकी, कीर्तनी जत्था और पिंड के लोग होते थे...।“ वह बोलता चला गया। पता नहीं, क्या-क्या कहता चला गया। शायद किसी और को नहीं, अपने आप को सुना रहा था।
”ये तस्वीरें तू मुझे दे सकदी है?“ सतवीर ने कुछ देर बाद पूछा।
”हाँ-हाँ, ले लेना...। मैं बनवा दूँगी...होर देखोगे...कटास के मंदिरों के फोटो भी हैं मेरे कोल।“
”कटास?...देख्या है मेरा। पिंड से जत्था गया था वे वापसी वेले कटास भी गए थे...दिखा कटास के फोटो।“ वह बोला।
मैंने फोटो फोल्डर में से कटास के फोटो स्लाइड शो पर लगा दिए।
”कुल सात मंदिर हैं वहाँ।“ मैंने उसे बताया।
”हाँ, पता है मैनूं...और गुरुद्वारा साब भी है।“
वह बोला।
”देखो, यह पहला मंदिर है...“ मैंने कहा। वह देखने लगा।
आगे आधे से ज़्यादा गिरे हुए मंदिर के पीछे से सूरज की रोशनी इस तरह आ रही है कि सामने के हिस्से से कुछ नज़र नहीं आ रहा था। सतवीर ने एक बार फिर चेहरा कम्प्यूटर के स्क्रीन के साथ सटा लिया और देखने लगा।
”अरे निकल गया...फिर दिखा।“ वह बोला और मैंने स्लाइड शो बंद कर दिया। वह ज़रा ज़्यादा तफसील से देखना चाहता है। ये तो मुझे पहले ही सोचना चाहिए था।
”एते ढै़ गया है बिल्कुल।“ वह बोला।
”हाँ...तुसी ठीक कैंदे हो देखभाल की बहुत कमी है।“
”मेरा बापू बताता था कि यहाँ इन्हें पांडवों ने बनवाया था...। इसका जिकर महाभारत में है।“
तस्वीर आती रही और वह टकटकी लगाए देखता रहा।
”हाँ, ये...हरिसिंह नलवा की हवेली है...इसके लिए गुरुद्वारा साब है...ये सरोवर है...हँ।“
दोपहर का खाना खिलाने के बाद सतवीर और उसकी पत्नी को विदा करने से पहले मैंने सोचा अपना सवाल भी इनसे भी पूछा लूँ। हो सकता है कोई जवाब मिले।
”तुसी ए दसो...ये शेर अली का क्या मामला है?“
”तुझे उससे क्या मतलब?“ सतवीर बोला।
”ताया जी मैं...शेर अली की खोजबीन करने ही यहाँ आई हूँ।“
”पर क्यों? वो तेरा कौन था?“
”वो मेरा कोई नहीं था।“
”कोई नहीं था तो तुझे क्या लेना-देना।“
”ताया जी, मैं अख़बार में काम करती हूँ...नौकरी करती हूँ...मुझे यह काम दिया गया है के शेर अली के बारे में...पता लगाकर लाऊँ...इसी वजह से मैं अमृतसर आई हूँ...पंद्रह दिन से इलाके़ की ख़ाक छान रही हूँ।“
वह चुपचाप मुझे देखने लगा। फिर बोला, ”अच्छा है, तू इसे छड्ड दे, धोये ते वापस चली जा।“
”क्यों?“
”इससे अब किसी को क्या मिलेगा।“
”पर सच्चाई तो पता चलेगी।“
”उससे क्या होगा?“
”अरे तायाजी, अख़बार का यही काम है।“
वह सोच में पड़ गया। फिर धीरे से बोला, ”देख, पता ही लगाना है तो गुरजोत से पूछ ले।“
”गुरजोत कौन?“
”हमारे ही पिंड में रहता है... नाले के पास उसका घर है।“
”उसे मालूम है?“
”हाँ...पर उसे यह न बताना कि मैंने तुझे कुछ बताया है...ये पिंड की बात है...खुलनी नहीं चाहिए...क्या जाने और दो-चार लाशें गिर जाएँ?“
”लाशें गिर जाएँ...कैसी लाशें।“
”बस...अब मुझसे मत पूछ...गुरजोत ही बताएगा।“
”तुसी जानदें हो कि नहीं?“
”जानदा ते सारा पिंड है...पर बोल्दा कोई नइ।“ वह बोला।
”जितना तुम्हें पता है, तुम बता दो...।“ आगे का मैं गुरजीत से पूछ लूँगी।“ मैंने कहा।
वह सोच में डूब गया। उसने बेचारगी से मेरी तरफ देखा। वह तय नहीं कर पा रहा था कि बताए या न बताए...इसी उधेड़बुन में उसके चेहरे पर कई तरह के भाव आ रहे थे।
”देख, बात ये है कि शेर अली गुरजोत का दोस्त था...। वह भी बँटवारे से पहले इसी पिंड में रहता था...।“ वह चुप हो गया।
”फिर?“
”फिर वह पिंड आया...गुरजोत के घर ठहरा...।“
- फिर ?
”अब गुरजोत से ही पूछ।“ वह खड़ा हो गया।
(जारी)
© असग़र वजाहत
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