घृणा भी एक प्रक्रिया है। कोई किसी से पैदाइशी घृणा शायद न करता हो। एक बालक तो मल से भी घृणा नहीं करता, और अक्सर अभिभावकों को डाँट कर बच्चे को इसे छूने से मना करना पड़ता है। पेरियार के अंदर घृणा ने एक दिन में जन्म नहीं लिया। यह एक प्रक्रिया थी।
जब गांधी मद्रास आए थे, पेरियार का नाम ई. वी. रामास्वामी नाइकर हुआ करता था। वह एक धनी व्यवसायी परिवार के थे। ब्राह्मणों का उनके घर नियमित आना-जाना था। उनके साथ कोई छूआ-छूत नहीं था। पहले उनकी आलोचना हँसी-मज़ाक से एक ईमानदार जिज्ञासा के स्पेक्ट्रम तक थी। यूँ तो धर्म की सकारात्मक आलोचना भारत की प्राचीन परंपरा रही थी। चार्वाक से कबीर दास तक।
उनकी जीवनी के एक फ़िल्मी क़िस्से से बात शुरू करता हूँ। एक पारिवारिक विवाह के अवसर पर वह यूँ ही दोस्तों के साथ बैठ कर्म-कांडों पर मज़ाक कर रहे थे। तभी एक शर्मीली सी दिख रही धर्मनिष्ठ युवती ने उन्हें टोक दिया कि यूँ धर्म पर तंज न करें। जब नज़रें मिली, रामास्वामी को उसी वक्त उनसे प्रेम हो गया। उन्होंने जल्द ही विवाह प्रस्ताव रख दिया।
नागम्मल नामक वह युवती किसी भी तमिल स्त्री की तरह मंदिरों और पूजा में व्यस्त रहती। रामास्वामी भी उन्हें नहीं रोकते, यूँ ही कभी-कभार प्रेम भरे तंज करते कि तुम्हारे भगवान साथ न देंगे, मैं ही जीवन भर साथ दूँगा। एक दिन जब नागम्मल मंदिर से लौट रही थी, तो कुछ सड़क किनारे खड़े लफंगे छेड़ने लगे।
उस वक्त किसी हीरो की स्टाइल में रामास्वामी (पेरियार) ने आकर रक्षा की और कहा- “देखो! ईश्वर से मिल कर आ रही हो, और यहीं मंदिर के बाहर क्या चल रहा है।”
इसमें शरारत यह थी कि गुंडों के भेष में पेरियार के ही दोस्त थे, और यह योजना उनकी ही थी!
उन दिनों एक आम भारतीय युवक की तरह रामास्वामी के अंदर भी राष्ट्रवाद कुलाँचे मार रहा था। कांग्रेस के तमिल ब्राह्मण-बहुल होने के बाद भी उन्हें उन पर विश्वास था कि वे अच्छा कार्य कर रहे हैं। उन दिनों एक ब्राह्मण वकील नियमित ईरोड आकर उनसे मिलते, और दोनों जल्द ही घनिष्ठ मित्र बन गए। उनका नाम था सी. राजागोपालाचारी। वह गांधी से मिल कर आए थे।
“कैसा है यह गांधी? सुना है धोती पहनता है, थर्ड क्लास में घूमता है? तुम्हारी कांग्रेस की ‘टी पार्टी’ में बैठेगा?”
“मुझे उसकी आँखों में कुछ बदलाव की धमक दिखी। लेकिन, वह कुछ अस्पष्ट लगा। वह अंग्रेज़ों की तारीफ़ कर रहा था, और समाज में बदलाव की बात कर रहा था।”
“बिल्कुल सही कह रहा था। जब तक समाज नहीं बदलेगा, अंग्रेज़ रहें या जाएँ, क्या फर्क पड़ता है? कांग्रेस को ही देख लो”
“चिंता मत करो। अब कांग्रेस ब्राह्मणों की ‘टी-पार्टी’ से बदल कर एक जनता आंदोलन में बदलेगी, जिसमें हर जाति, हर धर्म, हर वर्ग के लोग होंगे। तुम शुरुआत तो करो। हमें ज्वाइन करो।”
1917 में जब मॉन्टागु भारत आए, और चुनाव-सुधार की बात हुई, तो मद्रास प्रेसीडेंसी के कांग्रेसी वायसराय से मिलने गए। उन्होंने रामास्वामी को दिखा कर कहा कि हमारे पास ग़ैर-ब्राह्मण समुदाय के लोग भी हैं, और कई अन्य जुड़ रहे हैं। जबकि जस्टिस पार्टी (साउथ इंडिया लिबरेशन फेडरेशन) ने पुन: यह आरोप लगाया कि कांग्रेस सिर्फ़ ब्राह्मणों का दल है।
एक तरफ़ नए आम चुनाव की घोषणा हो रही थी, और कांग्रेस अपना जनमत बढ़ा रही थी; दूसरी तरफ़ 1919 में जालियाँवाला बाग नरसंहार हो गया। रामास्वामी कुछ गरम खून तो थे ही, उन्होंने न सिर्फ़ ईरोड नगर निगम का अध्यक्ष पद त्यागा, बल्कि 29 अन्य पद त्याग दिए। वह असहयोग आंदोलन में खद्दर-धोती पहन कर घूमने लगे। उस समय उनकी पत्नी ने भी अपने सभी रेशमी साड़ियाँ एक नाटक-मंडली को दे दी, और वह भी सूती वस्त्र में आ गयी।
नगर निगम के अध्यक्ष रहे रामास्वामी जब एक झोले में खादी वस्त्र लिए लोगों के दरवाजे खटखटाने लगे, तो यह बिकना ही था। राजागोपालाचारी ने उनको खादी प्रचार का नेतृत्व ही दे दिया। उस वक्त गांधी शराब-बंदी का आह्वान कर रहे थे, और मद्रास के ताड़ी केंद्रों को बंद करने कह रहे थे। रामास्वामी के पास एक पूरा बागान ही था, जहाँ से ताड़ी निकाली जाती थी। उन्होंने एक झटके में वे सभी पेड़ कटवा दिए।
बहरहाल, चुनाव हुए। कांग्रेस ने चुनाव का बहिष्कार किया, और नहीं शामिल हुई। नतीजतन जस्टिस पार्टी आराम से जीत गयी। खद्दर में घूम रहे रामास्वामी ने उन्हें देशद्रोही कहा।
ऐसे निष्ठावान कांग्रेसी आखिर कैसे कांग्रेस के कट्टर शत्रु बन गए? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें चलना होगा त्रावणकोर राज के एक नगर- वायकौम।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास (11)
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