कहते हैं दुनिया में दो ही जाति है- एक अमीर, दूसरा गरीब। चाहे कोई राजवंशी हो, किसी बड़े व्यापारी परिवार से हो, या किसी श्रेणीबद्ध समाज में ऊँची श्रेणी से हो; अगर वह गरीब है, तो वह बाकी गरीबों में से ही एक है। उसे अमीरों की चौखट पर कोई इज़्ज़त नहीं मिलने वाली।
जस्टिस पार्टी, ब्राह्मण-विरोधी बन कर सामाजिक न्याय दिलाने तो आयी, मगर उसके बाद अपनी तिजोरियाँ भरने, जमींदारों को शह देने, और गरीबों पर कहर ढाने में लग गयी। वह भूल गयी कि आखिर वह गरीबों और पिछड़ी जातियों का नुमाइंदा बन कर चुनाव जीती थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और गांधी विरोध के कारण जस्टिस पार्टी को अंग्रेज़ों का एजेंट भी कहा जाने लगा। जब पेरियार जेल भेजे गए, तो वह मुख्यमंत्री राजा बोबिली को गरीबों पर अत्याचार करने वाला तानाशाह कहने लगे।
पेरियार ने जेल में राजाजी से कहा कि मैं कांग्रेस का साथ देने को तैयार हूँ, अगर वह समाजवादी रुख अपनाए। उन्होंने अपनी योजना उन्हें बतायी, जो ‘इरोड योजना’ नाम से जानी जाती है, जिसमें जमींदारी को धीरे-धीरे खत्म करने, और गरीबों को शिक्षा-स्वास्थ्य मुहैया करने की बात थी। राजाजी ने उन्हें समझाया कि कांग्रेस भी राजा, ज़मींदारों और व्यापारियों के चंदे से ही चलती रही है। लेकिन अब हवा बदलने लगी थी। अब कांग्रेस समाजवाद की राह पर बढ़ रही थी।
समाजवाद का औपचारिक बिगुल दक्षिण में या बंबई में नहीं बजा। वह दूर उत्तर के उस प्रांत में बजा जहाँ 1934 के भूकंप ने ऐसी त्रासदी की, जिसे गांधी ‘प्राकृतिक न्याय’ कह गए। इस भूकंप ने जमींदारों के महल गिरा दिए, सब कुछ सपाट कर दिया। कई रसूखदार भी कटोरा लेकर घूमने लगे। दो वर्ष बाद पटना में एक किसान सभा आयोजित हुई, जिसमें एक चबूतरे पर राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण नामक दो युवा नेता खड़े थे। वहाँ बन रही थी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी।
यह लहर दक्षिण तक भी आयी। कांग्रेस के समाजवादी जत्थे गाँवों में घूम कर ज़मींदारी के ख़िलाफ़ और जस्टिस पार्टी के ख़िलाफ़ जागरूकता लाने लगे। पेरियार अब भी कांग्रेस के साथ नहीं थे, लेकिन वह जयप्रकाश नारायण से मिले। जेपी ने बताया कि कम्युनिस्टों से अलग समाजवादी सोच के लोग साथ मिल रहे हैं, जिनमें पेरियार का स्वागत है।
पेरियार कम्युनिस्टों से अब पक चुके थे। इसका एक कारण यह भी था कि सरकार कम्युनिस्टों को पकड़ कर जेल भेजने लगी थी, और सबसे पहले पेरियार को ही पकड़ कर ले जाती। उन्होंने कम्युनिस्टों से स्पष्ट ही कहा,
“मुझे यूँ नायक बन कर जेल जाने का कोई शौक नहीं है। मुझे बाहर रह कर जातिवाद के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई लड़नी है।”
पेरियार को जस्टिस पार्टी ने यह आश्वासन दिया कि अब वह उनके कहे राह पर चलेगी।
1935 में भारत सरकार अधिनियम के बाद 1937 में होने वाला यह चुनाव अनोखा था। तमाम रियासतों में बिखरा भारत एक साथ आम चुनाव के लिए जा रहा था। हालाँकि कई रियासत इसमें शामिल नहीं हुए, न ही पंद्रह प्रतिशत से अधिक मतदाता थे, न ही डोमिनियन दर्जा मिला, लेकिन भारत देश का एक खाका दिख रहा था। सदियों से भारत एक इकाई या संघ रूप में था ही नहीं, अब तकनीकी तौर पर यह लगा कि मद्रास और ढाका एक ही देश के अंग हो सकते हैं। जब अधिकांश प्रांतों में कांग्रेस की जीत हुई, तो यह भी दिखा कि भारत का ठीक-ठाक हिस्सा एक सोच के साथ है।
मद्रास में कांग्रेस ने भारी जीत हासिल की। पेरियार समर्थित जस्टिस पार्टी चारों खाने चित हो गयी। राजाजी मुख्यमंत्री बने। पेरियार ने हार के बाद अपने ही अंदाज़ में कहा, “हम अब्राह्मणों को इस चुनावी हार से हताश नहीं होना चाहिए। बल्कि ब्राह्मणों का धन्यवाद करना चाहिए कि हमें इस चुनाव से नयी सीख दी।”
एक ईकाई, एक संघ, एक भारत की सोच यूँ तो रूमानी थी। लेकिन, इसे ज़मीन पर उतारना आसान नहीं था। इस चुनाव में मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग मुसलमानों के प्रतिनिधित्व का दावा कर रही थी। वे एक अलग देश बनाने की योजना बना रहे थे। इसने पेरियार के मन में भी एक आइडिया को जन्म दिया- एक द्रविड़ देश (द्रविड़ नाडु) का। इसके लिए उन्हें मुस्लिम लीग की ही तरह एक द्रविड़ दल की ज़रूरत थी।
उन्हें चुनाव प्रचार के दौरान एक युवक मिले, जिनमें उन्हें अपना ही यौवन, अपनी ही ऊर्जा दिखने लगी। वह भविष्य में पेरियार के राजनैतिक उत्तराधिकारी और उनके विरोधी, दोनों बने। वह अट्ठाइस वर्ष के नवयुवक तमिल राजनीति में एक नए दल के साथ एक ग्लैमरस चीज लाने वाले थे- सिनेमा। उस नवयुवक का नाम तो हम जानते ही हैं- सी एन अन्नादुरइ उर्फ़ ‘अन्ना’।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास - दो (12)
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