गांधी में धैर्य इतना अधिक था, कि बाकियों का धैर्य टूटना भी स्वाभाविक था। जैसे जिन्ना का क़िस्सा है कि सवारी भेज कर वह गांधी की अपने बंगले पर प्रतीक्षा कर रहे थे। गांधी सवारी त्याग कर पैदल आ रहे थे तो उनका धैर्य टूटने लगा।
जब गांधी नाव से वायकौम पहुँचे, तो वहाँ तट पहुँचने से पहले ही कई नाव स्वागत में प्रतीक्षा कर रहे थे। गांधी ने कहा कि नावों को वापस ले जाएँ, मैं अपने नाव से ही तट तक आऊँगा। दो घंटे तक गांधी शांतचित्त अपने नाव पर बैठे, बाकी नावों के मार्ग से हटने की प्रतीक्षा करते रहे।
सत्याग्रही जोश में थे कि अब गांधी कुछ ऐक्शन लेंगे। जब नम्बूदिरी तक खबर पहुँची कि गांधी मिलना चाहते हैं, तो वे उनसे भिड़ने के लिए कमर कसने लगे। किंतु गांधी का अगला दिन मौन व्रत था, वह किसी से मिलने नहीं गए। उसके अगले दिन सुबह वह राजाजी, महादेव देसाई, पुत्र रामदास गांधी के साथ प्रधान नम्बूदिरी पुरोहित के द्वार पर पहुँचे। (पेरियार संभवत: साथ नहीं गए)
वहाँ जब गांधी पहुँचे तो उन्हें अछूतों से मिल कर आने और समुद्र-यात्रा करने के कारण ब्राह्मण घर में आने से मना कर दिया। आखिर, मान-मनौवल के बाद बाहर बैठक की गयी। वह पूरा संवाद महादेव देसाई ने लिखा है, जिसका मैं अंग्रेज़ी अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ।
“क्या यह उचित है कि आप किसी निम्न जाति के व्यक्ति को मंदिर का मार्ग न प्रयोग करने दें? जबकि एक ग़ैर-हिंदू, एक सवर्ण अपराधी या एक पशु भी इसका प्रयोग कर सकता है?”, गांधी ने कहा
“वे अपने कर्मों का फल भोग रहे हैं”, नंबूदिरी ने उत्तर दिया
“मैं सहमत हूँ कि उनके कर्मों का ही फल होगा कि इस तरह अछूत बन कर जीना पड़ा रह है। किंतु अब आप उन्हें एक अपराधी, एक दस्यु से भी बुरी सजा क्यों दे रहे हैं?”
“उनके कर्म अवश्य ऐसे ही होंगे। तभी ईश्वर ने यह सजा दी।”
“अब आगे सजा देना तो ईश्वर का कार्य है। हम कौन हैं सजा देने वाले?”
“हम ईश्वर के माध्यम हैं”
“अगर अवर्ण कहने लगे कि वे ईश्वर के माध्यम हैं, और आपको सजा देने लगें तो?”
“सरकार हमारी सहायता करेगी। महात्माजी! आप हम से हमारा विशेषाधिकार छीन कर अवर्णों को क्यों देना चाहते हैं?”
“क्या आप यह शास्त्र के माध्यम से सिद्ध कर सकते हैं कि आपको यह अधिकार मिला है कि कौन मार्ग का प्रयोग करेंगे? कहाँ लिखा है कि दलित इस मार्ग पर नहीं चल सकते?”
“आपको मालूम है वे हमारे द्वारा शोषित क्यों हैं?”
“हाँ! जैसे जनरल डायर के लिए जालियाँवाला बाग था।”
“आपको लगता है कि यह परंपरा लाने वाले डायर थे? शंकराचार्य डायर थे?”
“मैं किसी आचार्य को डायर नहीं कह रहा। किंतु जब मैं डायरवाद कहता हूँ तो ऐसे सभी व्यक्तियों के लिए कहता हूँ जो इतने अमानवीय शोषण करते हैं।”
“लेकिन, महात्माजी! हम परंपरा कैसे त्याग दें? आप कहते हैं कि सत्याग्रही पीड़ित हैं। जबकि उनकी इस अछूतों की भीड़ के कारण हमारा मंदिर प्रदूषित हो गया है।"
“अब मुझे भेड़िया और भेड़ की कथा याद आ रही है। आप तर्क तो ठीक रखिए”
“धर्म में कोई तर्क नहीं”
“अगर यह प्राचीन सनातनी व्यवस्था है, तो संपूर्ण भारत में क्यों नहीं?”
“पूरी दुनिया में है। हम कुछ अधिक करते हैं, बस।”
“आप इन्हें अपराधी कहते हैं। कल अगर ये मुसलमान या ईसाई बन गए तो अपराधी नहीं रहेंगे ?”
“(कोई उत्तर नहीं। एक दूसरे व्यक्ति कहते हैं - पुराने ईसाई और मुसलमान ही इस नियम से मुक्त होंगे। नए धर्म-परिवर्तित नहीं।)
(राजाजी कहते हैं- मतलब ईसाई और मुसलमान पर हमारे ईश्वर के नियम लागू नहीं?)”
“क्या आप शंकराचार्य लिखित शास्त्र दिखा सकते हैं, जहाँ यह नियम वर्णित हो?”
“हाँ”
“अगर नहीं दिखा सके, तो आप मान जाएँगे?”
“कई तथ्य हैं। लेकिन आप मानेंगे नहीं”
“मैं अवश्य जानकार पंडितों को दिखा कर आपकी बात मानूँगा।”
“अगर आपके पंडित हमारी परंपरा के विरूद्ध कहते हैं, तो हम नहीं मानेंगे।”
“इसका अर्थ कि आपकी परंपरा के सामने शंकराचार्य का शास्त्र भी ग़लत है? अगर न्यायालय कल अवर्णों के पक्ष में आदेश दे दे?”
“हम उस मार्ग जाना त्याग देंगे, जिस मार्ग से अवर्ण जाते हों।”
“आप हिंदूवाद के रक्षक हैं। मैं आपसे विनती करता हूँ कि आप इसका हल निकालें। क्या आप जनमत के लिए तैयार हैं?”
“अगर उसमें सिर्फ़ मंदिर जाने वाला वर्ग शामिल हो।”
“यह तो ज्यादती है। मैं सभी सवर्णों के जनमत के लिए तैयार हूँ। अवर्ण मत नहीं देंगे। फिर तो आप तैयार हैं?”
“(कोई उत्तर नहीं)”
“अगर कोई संस्कृत का पंडित शास्त्रों के आधार पर निर्णय ले तो”
“(कोई उत्तर नहीं। अन्य व्यक्ति कहते हैं- किस शास्त्र का? परशुराम ने मलाबार स्थापित किया था। आप परशुराम को कहाँ से ढूँढ कर लाएँगे?)”
“आखिरी माँग करता हूँ। आप एक पंडित तय करें। सत्याग्रहियों के पंडित (मदन मोहन मालवीय) उनसे शास्त्रार्थ करेंगे। दीवान साहब अंतिम निर्णय लेंगे। यह तो उचित है?”
“(कोई उत्तर नहीं)”
इस तरह गांधी सवर्ण पुरोहितों के कोर्ट में गेंद डाल कर आ गए कि वही निर्णय लें। गांधी की यह बात भी पेरियार को जमी नहीं।
किसी को बात जमे या न जमे, अपने इस धीमी और भीरू दिख रही चाल से गांधी ने सत्याग्रह को एक हफ्ते के अंदर मुकाम तक पहुँचा दिया।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास (15)
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