बसंत इंटर कान्टीनेंटल की लाॅबी में जोत ठीक नौ बजे आ गया। सायमा सामने बैठी ‘ट्रिब्यून’ के वरक पलट रही थी।
”गुड मार्निंग जी...तुसी रेडी हो?“
”हाँ जी, बिल्कुल रेडी।“ वह बोली।
”मोटर साइकिल में बैठने से कोई एतराज़ तो...“
”मैंने गाड़ी मंगा ली है।“ सायमा बोली।
”बहुत बढ़िया जी।“ जोत ने कहा लेकिन एक परछाई उसके चेहरे पर आकर चली गई।
”तो मोटर साइकिल मैं इत्थे खड़ी कर देता हूँ।“
”हाँ-हाँ...।“
गाड़ी जल्दी ही आबाद इलाके के बाहर आ गई। दोनों तरफ हरियाली है...खेत छोटे हैं लेकिन हरियाली है। पता नहीं क्यों सायमा लाहौर के देहाती इलाकों से इस इलाके की तुलना करने लगी। टैक्टरों की आवाजाही भी उसे ज़्यादा लगी। सड़क पतली लेकिन अच्छी है।
”ये सड़क सीधी अजनाला तक जाती है...वहाँ से हमें राइन टर्न लेना होगा और तब हम इलाके में पहुँचेंगे...“
”तुम इधर आ चुके हो?“
”नहीं...मैंने किसी से पूछा है।“
सायमा ने नक्शा उसके सामने फैला दिया।
”देखो, पुलिस का बयान है कि शेर अली की लाश थोबा और पंजगराई के बीच एक चैराहे पर मिली थी...तो ये है...बीच के गाँव...गग्गोहल, अवाण, कोटली हमें यहीं चलना होगा...“
अजनाला का नक्शा देखकर नवजोत की आँखें खुली-की-खुली रह गई।
”ये तुझे कहाँ से मिला?“ उसने सायमा से पूछा।
”इंटरनेट...कल पता चला था कि भारत सरकार अमृतसर का नक्शा नहीं छापती।“ वह हँसकर बोली।
”ये तो बहुत...‘डिटेल’ मैप है।“ वह झुककर देखने लगा।
गाड़ी अजनाला पहुँच गई। अच्छा-खासा कस्बा भरा-पूरा बाज़ार और सामान से पटी हुई दुकानें देखकर यही कहा जा सकता है कि इलाके के लोगों में ‘परचेजिंग पावर’ है...सबकुछ यहाँ मौजूद है...इंटरनेशनल ब्रांडेड सामान भी ख़रीदा जा सकता है।
”चाय काफी लेना है?“ जोत ने पूछा।
”इस बास्केट में सब है...काॅफी का फ्लास्क, सैंडवीचेज़, बिस्कुट और थोड़ी-सी लाहौर की मिठाई भी।“
”वाह जी वाह...बड़ी तैयारी से निकले हो....सिटी यूनिवर्सिटी?“ जोत ने पूछा।
”हाँ, लंदन की सिटी यूनिवर्सिटी, जहाँ से मैंने जर्नलिज्म़ किया है। ...हमारे डीन मिस्टर जाॅनसन कहते थे...जर्नलिस्ट सिपाही है जो पेट पर चलता है...मतलब पेट ख़ाली है तो सिपाही रुक जाएगा।“
”वाह जी वाह...ये बात तो प्रो. रंधावा को बताने की है।“ जोत ने कहा।
”शायद वे जानते हैं...खाने-पीने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है उन्होंने।“ सायमा ने कहा।
”हाँ, उसी तरह स्टूडेंट्स के खाने-पीने का भी ध्यान रखें।“ जोत हँसने लगा।
दोनों तरफ दुकानों के बीच फँसे ट्रैफिक में गाड़ी की रफ्तार ज़ीरो हो गई। पता नहीं क्यों, सायमा इस भीड़-भाड़, अव्यवस्था और अराजकता की तुलना लंदन से करने लगी।
”अंगे्रज़ों ने हमारे ऊपर दो सौ साल हुकूमत की, लेकिन अपनी अच्छी बातें हमें नहीं सिखाई।“ सायमा ने भीड़ को देखते हुए जोत से कहा।
”अजी अंगे्रज़ों से मुझे तो सबसे बड़ी नाराज़गी यही है कि हमारे मुल्क को दो टुकड़ों में बाँट दिया?“
”उन्होंने बाँट दिया? ये तो हमारी, क़ायदे-आजाम की, मुस्लिम लीग की डिमांड थी।“ सायमा को हकीकत में गुस्सा आ गया।
”पर ऐसा...मतलब कोई अच्छा नहीं हुआ।“ वह उदासी से बोला।
”बहुत अच्छा हुआ...“ सायमा ने कहा और जोत कुछ सिटपिटा सा गया। जोत के पास सायमा के सवाल के कई जवाब थे लेकिन वह ख़ामोश रहा।
सामने सड़क पर टैक्टर ट्रालियाँ, ट्रक और कारों की लम्बी लाइन लगी है।
”ये सीधी सड़क अटारी बार्डर तक जाती है...और अब आप जानती हो पाकिस्तान के साथ बिजनेस खुला है।“
सायमा ने फिर इधर-उधर देखना शुरू कर दिया। गाड़ी अब सड़क से उतरकर एक पतले रास्ते पर आ गई थी जो इतना कम चौड़ा था कि दो गाड़ियाँ मुुश्किल से एक-दूसरे को क्रास कर सकती थीं। लेकिन ये रास्ता भी पक्का था। बेहद टेढ़ा-मेढ़ा होने के बावजूद कच्चा नहीं था और इधर-उधर एक इंच ज़मीन ऐसी न थी जिस पर हरियाली न हो।
”सत्त सिरी अकाल जी“ जोत ने एक से कहा जो सिर पर कुछ उठाये सामने आ रहा था।
”सत्त सिरी अकाल।“
”तोहाडे नाल एक गल्ल करनी है।“
”हाँ जी, करो।“
”इस इलाके में कुछ रोज़ पहले कोई लाश पाई गई थी? पुलिस लै गई है...कहते हैं कोई पाकिस्तानी था...?“
”सुन्या ते है...पर जानदे नइ।“
”की सुन्या है?“
”यही जी के एक लाश इधर मिली थी।“
”कहाँ मिली थी?“
”ये तो जी नइ पता।“
”कुछ तो सुना होगा?“
”तुसी ऐसा करो...सरपंच के पास चले जाओ...ओही दस्सणगे।“
”कित्थे रहेंदें ने सरपंच जी?“
”ओजी सीधे जाओ...खब्बे हाथ को मुड़ जाना...दूजा मकान है।“
...ऐसा हमारे साथ उन सभी गाँवों में हुआ जहाँ-जहाँ हम गए। इतना ज़रूर था कि गाँव सरपंच चाय पिलाता था। लेकिन जहाँ तक ‘इनफारमेशन’ का सवाल है, कुछ नहीं मिलता था। सरपंच तो ये राय देते थे कि हम पुलिस के पास चले जाएं और वहाँ से हमें पक्की जानकारी मिल जाएगी...मुझे लगता है कि इलाके के लोगों को पुलिस ने धमका दिया है और उनकी ज़बानें बंद हैं। वो हमें कुछ भी बताने के लिए तैयार नहीं हैं...दिन भर चलने के बाद हम लोग एक जगह रुके। मैंने बास्केट से सैंडविच निकाले जोत को दिए...काॅफी दी...हम दोनों ही परेशान थे कि गाँव का कोई भी आदमी हमें किसी भी तरह की जानकारी क्यों नहीं दे रहा। ये सब जानते थे कि लाश इसी इलाके़ से मिली है। ये भी सबको पता है कि वह आदमी पाकिस्तानी था लेकिन ये बताने को कोई तैयार नहीं है कि वह यहाँ मरने से पहले देखा गया था या नहीं? ये भी कोई नहीं बताता था कि वह मरा कैसे?
...अगले दिन हम दोनों कुछ और गाँवों में गए। वहाँ भी बिल्कुल इसी तरह की बात हुई। बेसिक इन्फोरमेशन सबको है, उससे आगे कोई बताने को तैयार नहीं है...।
गाँवों में कच्चे मकान तो अब देखने में नहीं आए। लेकिन गाँवों में न तो किसी तरह की प्लानिंग है और न रख रखाव। अजीब बेढंगे तरह से गाँवों का विकास हुआ है। पतली गलियाँ हैं, नालियाँ हैं, गंदगी है और बेहिसाब मकान हैं जिनकी लाल और नंगी ईटें आँखों को चुमती हैं।
एक गाँव में एक छोटा-सा चर्च नज़र आया तो सायमा को लगा कि ठीक ही है अमृतसर के चर्चों का कुछ असर गाँव तक चला आया है। लेकिन बाद में पिंडी सईदा, दयालपट्टी, वसोहा में लगातार चर्च नज़र आते रहे तो सायमा का पत्रकार दिमाग़ नई स्टोरी की तलाश में लग गया।
”ये चर्च क्या पुराने हैं?“ उसने जोत से पूछा।
”चलो, चलके पूछ लेते हैं।“
गाड़ी गाँव के बाहर कच्चे टीले के नीचे रोक ली गई। दोनों उतरकर गाँव की तरफ बढे़। मकानों की लाल टीनें और कच्ची गलियों के बीच गुज़रते जोत को कई बार ‘सतश्री अकाल’ कहा गया उसने जवाब दिया।
”क्यों जी, ये चर्च कब का बना है?“
”ये जी!“ ...वह कुछ झिझका...”आठवाँ साल है।“
”आप, गाँव में कब से रह रहे हैं।“ सायमा ने पूछा।
”मेरा तो जन्म इसी गाँव का है...पचास की उम्र है।“ वह बोला।
”इस इलाकेे में जो चर्च हैं वो सब नए बने लगते हैं...मतलब यही पाँच-दस साल पुराने...।“
”हाँ...तुसी ठीक कैंदे हो...पर क्यों पुछदे हो?“ वह बोला।
”कुछ नहीं जी...कुछ नहीं...इधर से निकल रहे थे...तो पूछ लिया...“ जोत बोला।
...रज़्ज़ाक साहब को लम्बा ई-मेल भेजा। और बताया था कि यहाँ हालत ये है कि तीन दिन उस इलाके में खाक छानते हो गए हैं लेकिन कोई नतीजा बरामद नहीं हुआ है। बल्कि मुझे लग रहा है कि हमारे गाँवों में जाने की ख़बर फैल रही है और सब लोग बहुत ‘कांशस’ हो गये हैं। कोई कुछ बताने के लिए तैयार नहीं है...इस ई-मेल का जवाब आया तो मैं अपना सिर पकड़कर बैठ गई। रज़्ज़ाक साहब ने लिखा था। इतनी जल्दी फैसला मत करो। लोग नहीं बता रहे हैं तो इसका मतलब बड़ी शानदार स्टोरी कहीं छुपी पड़ी है। तुम इसी स्टोरी की तलाश में गई हो। अभी से दिल छोटा न करो...कोशिश करती रहो...आॅल द बेस्ट...
सायमा के पास से एक अजीब-सी खु़शबू आती है जो किसी आर्टीफिशियल परफ्यूम की नहीं हो सकती। जोत उठते-बैठते सायमा की खू़बसूरती को निहारता रहता है। एक अजीब-सी आत्मविश्वास, बौधिकता और गौरव है उसकी पर्सनाल्टी में जो बहुत कम देखने को मिलता है। यह वही सुन्दरता है जो जोत को अमृता शेरगिल की तस्वीरों में दिखाई देती है।...जोत के सपनों की दुनिया में पंख लगने लगे...धीरे-धीरे पंख फड़फड़ाने लगे। अमृता शेरगिल की तस्वीरों की दुनिया और उनके पीछे एक प्यार करने वाली शक्सियत जोत की दुनिया में समाते चले गए। धीरे-धीरे जोत को सायमा अमृता शेरगिल ही दिखाई पड़ने लगी। जब जोत पूरी तरह कन्विस हो गया तो एक दिन...बरगद के एक पुराने पेड़ के नीचे काफी पीते हुए जोत ने सायमा से कह ही दिया, ”त्वाडी शकल अमृता शेरगिल से मिलती है?“
”अमृता शेरगिल...!“ सायमा का लैपटाप खुल गया और गूगल सर्च पर अमृता शेरगिल की कई तस्वीरें उभर आईं।
”तुसी ठीक कहन्दे हो।“ सायमा ने जोत की तरफ देखकर पूरी गंभीरता से कहा और फिर हँस दी क्योंकि वह यह नहीं चाहती थी कि जोत उसके साथ जिस धरातल पर आना चाहता है वह न आए।
”तुसी जब हँसती हो तो अमृता शेरगिल से भी अच्छी लगती हो।“ जोत ने कहा।
”अब तुसी ऐन्नी ऊँची उड़ान न भरो।“ सायमा ने कहा।
”क्यों?“
”इसलिए कि हम ज़मीन पर चल रहे हैं।“ सायमा ने ज़मीन लफ़्ज़ पर ख़ासा जोर दिया और जोत को यह समझने में देर नहीं लगी कि वह क्या चाहती है।
ये तो सायमा को बहुत पहले ही लग गया था कि नवजोत उसमें दिलचस्पी ले रहा है। और हकीकत में यह सायमा को बुरा भी नहीं लगा था, लेकिन उसका ख़्याल था कि दिलचस्पी लेने के लिए जान-पहचान कुछ ज़्यादा होना चाहिए और फिर लम्बे कद, सीधे-साधे नक्शेवाला नवजोत उसे बच्चा नहीं, अपने से काफी कम उम्र का लगता है। उसे ये सोचकर कुछ शर्म आती है कि वह नवजोत से प्रेम करेगी...ऐसा नहीं है कि सायमा का यह पहला प्यार होगा लेकिन फिर भी वह एक अजीब तरह लगाव और अलगाव है उसके मन में जो सामने आता रहता है और नवजोत ‘कन्फ्यूज़’ होता रहता है...सायमा यह जानती है और सोचती है कि नवजोत के ‘कन्फ्यूज़’ को ख़त्म कर देना चाहिए लेकिन इस सिलसिले में वह पक्का फैसला नहीं कर पाई है। नवजोत ने इस दौरान उससे उसके घर-बार, दोस्तों के बारे में भी बात करने की कोशिश की है, लेकिन सायमा बड़ी खूबसूरती से बात को टाल जाती है। वह रिश्तों को बनाने में काफी मोहतात है।
सायमा यह जानती है कि नवजोत उससे किस तरह का रिश्ता बनाना चाहता है। उसे लगता है नवजोत उससे छोटा ही नहीं बल्कि बहुत सरल और सच्चा इंसान है जो इस तरह के रिश्तों की बारीकियों से वाकिफ नहीं होते। उसके लिए सायमा एक सुन्दर लड़की है और हर सुंदर लड़की से प्यार किया जा सकता है। लेकिन सायमा को ये सोचकर हँसी आती है। नवजोत उसे अच्छा लगता है। कभी-कभी उसकी शरारतों के जवाब में वह उसे कुछ और नजदीक आने का मौक़ा भी दे देती है, लेकिन उसके लिए यह सोच पाना कुछ मुश्किल है कि वो नवजोत को प्यार करने लगी है। वह यह भी नहीं जानती है कि उसके दिल में नवजोत के लिए जो भाव हैं उन्हें क्या छिपाकर रखा जाए? इसलिए कभी-कभी ऐसे मौकों पर उसकी प्रतिक्रिया नवजोत को ‘कन्फ्यूज़’ कर देती है।
सफारी फिर टेढ़े-सीधे रास्तों पर आगे बढ़ने लगी। सामने से एक अजीब किस्म की घोड़ा गाड़ी पर स्कूल के बच्चे गाँव लौटते दिखाई पड़े। सायमा ने कैमरा सीधा किया। उसने यह मार्क किया कि इस इलाके में स्कूल बहुत हैं। शायद लाहौर के आसपास, इस तरह के इलाकों के मुकाबले में बहुत ज़्यादा। इंडिया आए सायमा को बारह दिन हो चुके हैं और हर लम्हे वो इंडिया पाकिस्तान का मुकाबला करती रहती है और चूंकि किसी से कुछ कहती नहीं, इसलिए ये कोशिश बड़ी ईमानदार होती है। उसे भारत में ग़रीबी ज़्यादा नज़र आई...पाकिस्तान में इतनी नहीं है...उसे भारत में अमीरी भी बहुत ज़्यादा नज़र आई उतनी पाकिस्तान में नहीं है...उसे एक खुलापन नज़र आया।...लेकिन अमृतसर के दुकानदारों में वो तमीज़ नहीं है जो लाहौर के दुकानदारों में है। जैसे लाहौरी कुल्चे में से कीमा निकालकर आलू भर दिया गया हो।
”वो क्या है उधर?“ सायमा ने हरे खेतों से दूर पेड़ों के झुरमुट के ऊपर नज़र आती दो मीनारों की तरफ किया।
”मसीत होगी।“ जोत ने कहा।
”मस्जिद?“
”हाँ, मस्जद।“ जोत ने जवाब दिया।
”मस्जिद?“ सायमा के लहजे में अविश्वास और आश्चर्य बढ़ गया था।
सायमा की इन्फार्मेशन के मुताबिक़ 1947 में पंजाब से माइगे्रशन सौ परसेंट था। और मुसलमानों के हिजरत कर जाने के बाद पंजाब की मस्जिदें और दूसरे मजहबी इमारतें या तो गुरुद्वारों और मंदिरों में तब्दील कर ली गई थीं या तोड़ दी गई थीं। ये किसी हद तक समझ में आता है। जब मुसलमान ही नहीं बचे तो मस्जिदें कैसे बची रहेंगी? यही उधर यानी पाकिस्तान में भी अक्सरो-बेश्तर हुआ था...लेकिन यहाँ गेहूँ के हरे खेतों और आम के ऊँचे पेड़ों के पीछे बिल्कुल सफेद मीनारें मस्जिद की कैसे हो सकती है? ये शायद झूठ बोल रहा है? या शायद ये पता नहीं किस इमारत को मस्जिद समझ रहा है?
जोत ने उसकी तरफ देखा कि इसमें इतनी हैरत की क्या बात है।
”चलो, उधर चलो।“ सायमा के कहने पर गाड़ी मोड़ ली गई।
खेतों के बीच मस्जिद के पास गाड़ी रुक गई। मस्जिद के बराबर एक अहाते में कई क़ब्रें हैं जिन पर हरे रंग का साफ कपड़ा चढ़ा है। लाइन में बनी ये सात-आठ तो होंगी। अहाते के कोने में एक हुजरा-सा बना है। जिसकी जालियों के अंदर एक बड़ी क़ब्र दिखाई दे रही है। अहाते में कब्रों के पास बेरी और अमरूद के कुछ पुराने पेड़ हैं और जिनकी शाखे़ं बड़े कलात्मक ढंग से मुड़-तुड़ गई हैं।
अहाते से मिली हुई मस्जिद है। छोटी और पतली ईंटों की बनी मस्जिद देखने में ही कई सौ साल पुरानी लगती है। मस्जिद के ऊपर भी चूने की पुताई है। सहन साफ-सुथरा है। दो बड़ी मीनारें पीछे हैं और दो छोटी आगे।
सायमा हैरत से यह देखने लगी। आसपास कोई नहीं था। दूर किसी गाँव के घर दिखाई पड़ रहे थे।
”ये क्या है?“ सायमा की आवाज़ काँप रही थी।
”मसीत है जी...“ जोत को अजीब-सा लगा।
”लेकिन यहाँ कोई मुसलमान नहीं है।“
”हाँ, यहाँ कोई मुसलमान नहीं है।“
”फिर...इसकी देखभाल कौन करता है? सफेदी कौन करता है? क्या रात में फरिश्ते आते हैं?“
”नहीं जी, ये तो गाँव वाले ही करते हैं।“
सायमा ने बैठकर बड़े जतन के साथ अपने स्पोर्ट शूज़ उतारे और मस्जिद के सहन में आ गई। उसके पीछे-पीछे जोत भी...सहन से आगे बढ़कर वह मस्जिद के अंदर आ गई। बीच के गुम्बद के नीचे मिम्बर की सीढ़ियाँ मौजूद हैं। मस्जिद के अंदर की हवा भारी नहीं है। न वहाँ अबाबीलें हैं और मकड़ी के जाले। एक ताक में मोमबत्तियाँ जलाने के ताजे़ निशान हैं।
सायमा का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। उसे लगा कि रोंगटे खड़े हो गए हैं।
”ये सब कौन करता है जोत?“
”गाँव वाले करते हैं।“ जोत को हैरानी हो रही थी कि सायमा उस पर यकीन क्यों नहीं कर रही है। जबकि सायमा एक ऐसी हकीकत को स्वीकार करने की प्रक्रिया में थी जो उसके लिए चमत्कार से ज़्यादा बड़ी थी।
वह मस्जिद की दीवारों को इस तरह देखने लगी जैसे दीवारों पर कुछ लिखा हुआ हो। या जैसे कोई निशान देखना चाहती हो। ऊपर बड़े गुम्बद की छत और छोटे गुम्बदों की छतों के नीचे वह कुछ आवाजें सुनने के लिए रुक गई...अचानक बहुत दूर से...शायद गै़ब से उसे बहुत मद्धिम लेकिन बहुत साफ और गहरी आवाज़ में सुनाई देने लगी...अल्लाहो अकबर...’ उसने जल्दी से सिर ढाँक लिया। ...वह अंदर से काँप रही थी...ऐसा इससे पहले तो कभी नहीं हुआ था।
”जोत मैं यहाँ नमाज़ पढूँगी।“ वह दृढ़ता से बोली।
”ज़रूर पढ़ों जी...मसीत में नमाज़ ही पढ़ी जाती है।“
जोत ने उसे मिनरल वाटर की बोतल थमा दी। उसने मस्जिद की दीवार के पास, सीढ़ियों पर बैठकर वज़ू किया और मस्जिद के पहले दर में खड़ी हो गई। एक सिहरन और कंपकंपी ने उसके वजूद को हिला दिया...पता नहीं, कितने सालों बाद कोई यहाँ नमाज़ पढ़ रहा है...पता नहीं, सजदों में लोग कितना गिड़गिड़ाए और रोए होंगे कि अल्ला मियाँ ऐसा कर दें कि हम अपने खेतों से जुदा न हों...हम अपने घरों में रहें...हमारी जाने बच जाएँ...चीख़ों की आवाजें...जलते हुए गाँव...बहता हुआ ख़ून...नंगी औरतों का जुलूस...बेकफन पड़ीं लाशें...सायमा की आँखों से आँसू निकलने लगे...वह दबी-दबी सिसकियाँ रोक नहीं पाई...उसने लाख कोशिश की लेकिन उसके आँसू रुकने को तैयार ही न थे...उसने लाचार होकर अपने आपको जज़्बात के हवाले कर दिया। पता नहीं वह कितनी देर खड़ी रही और आँसू बहते रहे...पीछे मुड़कर उसने देखा तो जोत वहाँ नहीं था...वह मुड़ी...सीढ़ियों पर मिनरल वाटर की बोतल रखी थी। उसने चेहरे पर पानी के कई छींटे डाले और सीढ़ियाँ उतर गई।
क़ब्रों के सामने जोत किसी किसान से कह रहा था, ‘पाकिस्तान से कुड़ी आई है, नमाज़ पढ़ रही है।’
कहो जी, पढ़ ली नमाज़।“ जोत ने पूछा।
”हाँ, पढ़ ली।“ सायमा ने जल्दी से काला चश्मा लगा लिया। वह नहीं चाहती थी कि उसकी सुर्ख़ आँखें देखी जाएँ।
”ये जी इसी गाँव में रहता है...कुछ गल्ल करना चाहो तो कर सकदी हो।“ जोत ने उस आदमी की तरफ इशारा किया। सायमा के अंदर का खोया पत्रकार फिर जग गया।
”ऐ दस्सो इत्थे देख-भाल कौन करदा है?“ सायमा ने पंजाबी में सवाल पूछा। वह यहाँ पहली बार पंजाबी बोली और बिल्कुल बेख़याली में बोल गई। जोत उसे हैरत से देखने लगा। सायमा को भी लगा कि एक पर्दा जो उसने बिला वजह टाँग रखा था...हवा के तेज़ झटके से उड़ गया है।
”ऐसा है जी...पिंडवाले मिलजुल के करदे ने...पर सेवादार बच्चन सिंह है।“
”पिंड विच कोई मुसलमान तो नहीं।“
”नइ जी...कोई नइ है।“
”ओर इत्थे की होंदा है?“
”बैसाख में जी उरस होंदा है...मलेर कोटला तों और दूरों-दूरों तो कव्वाल आते हैं।“
”क्यों?“
”इनकी जी...सैयद पीर बाबा की बड़ी मानता है...पूरा इलाका भी मन्नत माँगने आता है।“ वह मज़ार की तरफ हाथ उठाकर बोला।
सैयद बाबा पाकिस्तान नहीं गए। सायमा ने सोचा।
”ऐ दस्सो कि इस इलाके विच कोई मुसलमान है कि नहीं?“ सयमा ने पूछा।
”हाँ जी...ओंग पिंड विच इक मुसलमान रहन्दा है...ए सुना है जी।“
”ओंगा पिंड...“
”किन्नी दूर है।“
”ऐइ कोई दो-तीन कोह होएगा।...सीधे थोबावाली रोड से चले जाओ।“ वह बोला।
”चलो ओंगा पिंड चलते हैं।“ सायमा ने कहा।
”क्या? हम तो...“
”नहीं...ओंगे पिंड...“
सड़क के किनारे कुछ ऊबड़-खाबड़ दुकानें-चाय, नमकीन और मिठाई के ढाबे, टायर-ट्यूब पंक्चर जोड़ने वालों के खोखे। कुछ दूसरे तरह की दुकानें।
गाड़ी को जोत ने एक चाय की दुकान के पास रुकवा लिया। सायमा गाड़ी से उतरी तो सबकी नज़रें उसका पीछा करने लगीं।
”बस जी, इत्थे इ पूछदे हाँ।“ जोत बोला।
चाय की दुकान में आर्डर देने के बाद जोत ने चायवाले से पूछा-
”क्यों जी, इत्थे कोई मुसलमान बंदा रहंदा है?“
”हाँ जी मोमद है...इत्थे द उसदा घर है। वो देखो सामने टायर की दुकान है न...ओ सरदार जी बूटासिंह...मोमद का दोस्त है, उससे पूछो।
गाँव की खरंजा लगी लेकिन टेढ़ी-सीधी गलियों से हम मोमद के घर की तरफ बढ़ने लगे। सरदार जी रास्ता दिखा रहा है। वह ख़ास माझा पंजाबी में बता रहा है कि मोमद बड़ा नेक बंदा है। काम-से-काम रखदा है। मदद करने को तैयार रहंदा है...कई गलियों और कई मोड़ों से होते एक दरवाजे़ के सामने पड़े पर्दे को हटाकर अंदर आ गए।
आँगन की एक तरफ हैंड पप्प है, कोने में भैंस बँधी है, पास में ऊपलों का ढेर, अलगनी पर सूखते कपड़े। टीन के शेड के नीचे चूल्हा, पास में आटा गूँधती एक औरत...एक तरफ प्लास्टिक की दो कुर्सियाँ...
मोमद और सरदार बूटा सिंह में कोई फ़र्क़ नहीं नज़र आता। मोमद भी छोटी-सी पगड़ी बाँधे है। उसके चेहरे पर भी दाढ़ी है। वह भी कमीज, शलवार पहने है। उसका चेहरा भी धूप में तपकर ताम्बे जैसा हो गया।
बातचीत होने लगी। चाय आ गई।
”आप जी पिंड में अकेले मुसलमान हो?“ सायमा ने इधर-उधर की बातचीत के बाद पूछा।
”हाँ जी...पिंड में ही नहीं...इस पूरे इलाके़ में...दस पंद्रह पिंडा विच अकेला मुसलमान है।“ मोमद के बोलने से पहले बूटा सिंह बोला।
”त्वाडे कुनबे विच कौन-कौन है?“
”जी तीन मुण्डे हैं...तिना दा ब्याह हो ग्या है...दो ने इसी पिंड विच अलग-अलग घर बनाए हैं...तीसरा मेरे साथ रहंदा है।“
बूटा सिंह मोमद के लड़कों के कामधाम के बारे में बताने लगा। एक लड़के ने हवा-पंचर की दुकान खोली है, दूसरा टियूबवेल का मैकेनिक हो गया है, तीसरा दर्जी का काम सीखा हुआ है।
सामने आँगन में औरतें अपने काम में जुटी थीं। लगता था बूढ़ी औरत जो आटा गूँध रही है, मोमद की पत्नी और जवान औरत उसकी छोटी बहू है।
”तुहानू पिंड विच कोई परेशानी, तकलीफ?“
”नई जी, कोई नइ...सब बड़ा ध्यान रखदे हैं...बहुत ध्यान...“ वह बोला और बूटा सिंह सिर हिलाने लगा।
मोमद की बहू चाय लेकर आ गई।
”मैं इससे बात करना चाहती हूँ।“ सायमा ने बहू की तरफ़ इशारा करके कहा।
”हाँ जी, करो...जरूर करो।...“
”आओ...मेरे साथ...“ सायमा बहू के साथ आँगन में आकर छोटी पीढ़ी पर बैठ गई।
”क्या नाम है?“
”नरगस...?“
”किन्ने बच्चे ने?“
”दो मुण्डे ने।“ वह कुछ गर्व से बोली।
”कुछ पढ़ी हो।“
”कुरान पढ़ा था...दो पारे।“
”कहाँ?“
”पिंड विच मदरसे...जांदी सी।“
”किस पिंड में?“
”मलेर कोटला के पास...रजेड़ी...“
”यहाँ खु़श हो।“
”हाँ, जी।“
सायमा उसे देखने लगी। सायमा को लगा इन लोगों से इस तरह के सवालों का कोई मतलब नहीं है। ये इससे ऊपर हैं। सायमा कुछ देर बाद अंदर कमरे में आ गई जहाँ जोत मोमद और बूटा सिंह को बता रहा था कि सायमा लाहौर से आई है।
”ताहीं इन्नी चंगी पंजाबी बोलदी है।“ बूटा सिंह बोला।
”ये बताओ...जब सब पाकिस्तान जा रहे थे। आप लोग क्यों नहीं गए?“ सायमा ने पूछा।
”जी बात ये है कि वालिद साब साँप काटे का ज़हर उतारना जानदे सी...वो अपने मुँह से ज़हर चूस लैन्दा सी...उसने मरदे हुए लोगों को जिन्दा किता...यही वजह रही कि पिंडवालियाँ ने हमारे परिवार को रोक लिया।“
”ये बताओ...आप नमाज़ पढ़ते हो?“ सायमा ने मोमद से पूछा।
”हाँ जी, हाँ...मुल्ला जी आते हैं...नमाज़ पढ़ाते हैं।“ सायमा ने बूटा सिंह की तरफ देखा।
”मस्जिद है पिंड में।“
”हाँ जी...बना रहे हैं।“
”क्या मतलब?“
”ओ जी...गिर गई थी।“
”कैसे?“
बूटा सिंह कुछ समझाता रहा जो सायमा को समझ में नहीं आया।
”ये बताओ कि आप पूरे इलाके़ में अकेले मुसलमान हो...क्या अब आपको नहीं लगता कि अगर पाकिस्तान चले ही गए होते तो अच्छा होता?“ सायमा ने मोमद से पूछा।
”सच बताऊँ जी?“
”हाँ...हाँ, सच बताओ।“
”देखो जी, गल्ल ए है...त्योहार आते हैं, खु़शी ग़म के मौके आते हैं...सब चान्दे हैं कि बिरादरी रिश्तेदारी दे लोग आण...मिल बैठे...पर जी इत्थे हमारा एक ही घर है...हर समय वही तीन...वही...पर ये है जी पिंड विच मेरी बड़ी इज्जत है...बड़ा मान है...बहुत प्यार मोहब्बत है...और अब जी क्या कहाँ जावें...यहीं सबसे अच्छा है।“ मोमद ने अपनी बात ख़त्म कर दी।
(जारी)
© असग़र वजाहत
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