Tuesday, 16 April 2019

राजनीतिक वादे और चुनाव में बढ़ता झूठ / विजय शंकर सिंह

चुनाव जब शुरू होता है तो वायदे खूब याद आते हैं। जनता को भी और उनको भी जो जनता के पास वोट मांगने जाते हैं। वायदों की एक सिफत यह भी है कि यह कभी पूरे नहीं होते हैं। वायदों के न पूरे होने के उलाहनों से तो ईश्वर तक बच नहीं पाये हैं, हम सब तो नश्वर प्राणी ठहरे ! आज का विमर्श है राजनीतिक वायदों और चुनाव में बढ़ता झूठ ।

चुनाव में वायदों के पूरा न होने का उलाहना सरकार और सत्तारूढ़ दल से होता है क्योंकि पांच साल सत्ता में रह कर वायदों को पूरा करने का अवसर रहते हुए भी जब सत्तारूढ़ दल, कम से कम अपने उन वादों को पूरा नहीं करता है, जो उसके कोर वादे हैं तो उनकी आलोचना तो होगी ही। ऐसे ही दो कोर वादे सत्तारूढ़ दल के हैं। एक संविधान की धारा 370 और 35A को हटाने और दूसरा अयोध्या में राममंदिर के निर्माण का वादा।

कश्मीर के संबंध में धारा 370 और 35 A को खत्म करने का वादा नया नहीं है । भाजपा के हर संकल्पपत्र में यह वादा जगह पाता रहा है । यह अलग बात है कि सरकार बन जाने के बाद यह वादा बैकसीट ले लेता है। यह मुद्दा तभी उभरता है जब चुनाव घोषणापत्र जारी करना एक मज़बूरी बन जाती है । रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य आदि मौलिक समस्याओं को दरकिनार कर यह मुद्दा चुनाव के समय प्रासंगिक बना दिया जाता है । सरकार को क्या यह नहीं बताना चाहिये कि उसने 1999 से 2004 और 2014 से 2019 के बीच सत्ता में रहते हुए भी इस धाराओं को हटाने के लिये क्या प्रयास किया ?

भाजपा ने 2014 से सत्ता में रहने के बावजूद इस धारा को हटाने के लिये कोई भी प्रयास नहीं किया। अगर लोकसभा में इस धारा के हटाये जाने के विचार पर यह प्रस्ताव आया होता तो इस पर बहस हुयी होती, विभिन्न दलों के विचार इस धारा के संबंध में लोगों को पता चलते। सरकार भी यह बताती कि आखिर कैसे यह धारा देश के एक राज्य जम्मू कश्मीर को अलगाववाद की ओर प्रेरित करती है। सभी तर्क जनता के सामने आते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

एक बार वकील राम जेठमलानी ने धारा 370 पर यह कहा था कि उन्होंने धारा 370 क्यों नहीं हटायी जा सकती है, यह बात प्रधानमंत्री मोदी जी को बता दी थी, उसके बाद फिर मोदी जी ने इस धारा को हटाने के लिये कोई चर्चा नहीं की। यह बात इसलिए सच लगती है कि 2014 के बाद अब तक इस धारा को हटाने के लिये सरकार की तरफ से कोई पहल नहीं हुयी। हो सकता है राम जेठमलानी ने मोदी जी को इस धारा के हटाने से उत्पन्न खतरों को भी बता दिया हो।

एक काम सरकार और कर सकती थी जो उसने नहीं किया। सरकार संविधान मर्मज्ञों और न्यायविदों का एक पैनल गठित कर सकती थी और उसे यह काम सौंपा जा सकता था कि वह पैनल इस धारा की ज़रुरत और वर्तमान परिस्थितियों में इन  धाराओं 370 और 35A की आवश्यकता पर विचार करे। ऐसे एक्सपर्ट पैनल का सबसे बड़ा लाभ यह होता कि जनता को वास्तविक संवैधानिक और कानूनी स्थिति का अंदाज़ा भी लग जाता । लोगो का ज्ञान भी बढ़ता और अनावश्यक भ्रम नहीं फैलता। पर सरकार ने यह रास्ता भी नहीं अपनाया। क्या सरकार यह चाहती है कि इस मुद्दे पर वह सबको भ्रमित किये रहे, और भावुकता के नाम पर ध्रुवीकरण का एजेंडा साधती रहे। वैसे इसी दल के वे प्रत्याशी जो जम्मू कश्मीर से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं, कहते हैं कि यह धाराएं नहीं हटायी जा सकती है।

ऐसा ही एक कोर वादा अयोध्या में राममंदिर के निर्माण का है। इस पर भाजपा का ट्रैक रिकॉर्ड देखें।
1996 के लोकसभा चुनाव के बीजेपी के घोषणापत्र में यह अंकित था,
" सत्ता में आने पर भाजपा सरकार अयोध्या में जन्मस्थान पर एक भव्य राम मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करेगी। यह सपना हमारी मातृभूमि के करोड़ो लोगों का है। राम हमारी आत्मा में हैं । "
96 में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। एक त्रिशंकु लोकसभा अस्तित्व में आयी । अटल जी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी जो केवल 13 दिन चली और अटल जी लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध नहीं कर पाये।

फिर 1998 के भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में राममंदिर निर्माण का उल्लेख किया गया । उसके अनुसार,
" भाजपा अयोध्या में जन्मस्थान पर जहां एक अस्थायी मंदिर है वहां एक भव्य राममंदिर बनाने का मार्ग प्रशस्त करेगी। श्रीराम भारत की आत्मा में बसे हुए हैं। भाजपा इसके लिये, आपसी बातचीत, वैधानिक और संवैधानिक समाधान के लिये प्रयासरत रहेगी। भाजपा इस बात से आश्वस्त है कि राष्ट्र के उत्थान के लिये हिंदुत्व में राष्ट्र को अनुशासन के साथ पुनर्जीवित कर राष्ट्र निर्माण करने की अपार संभावनाएं हैं। इससे उच्चतम स्तर की देशभक्ति का प्रसार करके दक्षता और क्षमता के उच्च स्तर को प्राप्त किया जा सकता है। ऐसे ही निष्ठावान विचारों से भाजपा ने रामजन्मभूमि आंदोलन का प्रारंभ अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण के लिये किया है। "

1998 में भी अटल बिहारी वाजपेयी विभिन्न दलों के सहयोग से प्रधानमंत्री बने जो 13 महीने तक सत्ता में रहे।
1998 में बनी एनडीए सरकार लोकसभा में एक वोट से एआईडीएमके और बीएसपी द्वारा समर्थन वापस लेने के कारण गिर गयी और 1999 में पुनः चुनाव हुए।

1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का कोई अलग से घोषणापत्र जारी नहीं हुआ था, बल्कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन एनडीए ने एक साझा घोषणापत्र जारी किया था जिसमे राममंदिर का कोई उल्लेख नहीं था।

2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए के घोषणापत्र के साथ भाजपा का एक दृष्टिपत्र निकला जिसे विजन डॉक्युमेंट का नाम दिया गया। एनडीए के घोषणापत्र में राममंदिर के बारे में यह उल्लेख था कि, " अयोध्या मामले का शीघ्र और सर्वमान्य समाधान ढूंढा जाएगा। " जब कि भाजपा के दृष्टिपत्र में इस विषय पर पार्टी का अलग दृष्टिकोण था। दृष्टिपत्र के अनुसार, " भाजपा अयोध्या में राममंदिर के निर्माण के लिये प्रतिबद्ध है। मर्यादा पुरूषोत्तम के रूप में राम भारतीय संस्कृति के प्रेरणास्रोत हैं। उनका जन्मस्थान, अयोध्या करोड़ों हिंदुओं के लिये आस्था का केंद्र है। भाजपा इस प्रकरण पर प्रतिबद्ध है कि जो भी अदालती फैसला होगा वह सभी पक्षों के लिये बाध्यकारी होगा। "

लोकसभा चुनाव 2009 के घोषणापत्र के अनुसार,
" देश और विदेश के समस्त भारतीयों की यह इच्छा है कि अयोध्या में जहां कभी राम का भव्य मंदिर था, वहां एक नया मंदिर बनाया जाय। भाजपा, आपसी बातचीत और अदालती समाधान सहित अन्य सभी संभावनाओं पर विचार करेगी जिससे अयोध्या में राममंदिर बन सके । "

2014 के संकल्पपत्र मे राममंदिर के मुद्दे पर केवल दो पंक्तियां लिखी गयीं थीं। वे थीं,
" राम मंदिर : भाजपा संविधान की सीमाओं के अंतर्गत अयोध्या में राममंदिर के निर्माण के लिए सभी संभावनाओं की खोज करेगी। "
2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला। एनडीए की सरकार बनी और नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने।

2019 के संकल्पपत्र में भी 2014 का वही वाक्य " राम मंदिर : भाजपा संविधान की सीमाओं के अंतर्गत अयोध्या में राममंदिर के निर्माण के लिए सभी संभावनाओं की खोज करेगी। " जस का तस रख दिया गया है।

11 साल के राज्य में भाजपा / एनडीए ने एक भी ऐसा सार्थक कदम नहीं उठाया जिससे इस समस्या का समाधान हो सके। 6 दिसंबर 1992 के पहले अगर उन्मादित आस्था ने संविधान की सारी मर्यादाओं को ताख पर रख कर विवादित स्थल को ध्वस्त नहीं किया होता तो बातचीत के रास्ते समाधान की एक संभावना तो थी, भले ही वह क्षीण थी। पर अब केवल अदालत के निर्णय के जो सभी पक्षों पर कानूनी रूप से बाध्यकारी होगी और कोई मार्ग शेष नहीं दिखता है।

एक अन्य हल के रूप में, आपसी बातचीत की भी बात 1996 से भाजपा घोषणापत्रों में बराबर की जाती है। समाधान के इस उपाय का भी उल्लेख भाजपा ने अपने चुनावी वादों में कर रखा है। पर 11 साल में शायद कभी कोई मीटिंग सरकार के स्तर पर राममंदिर और बाबरी मस्जिद के पक्षकारों के बीच इसे हल करने के लिये आयोजित नहीं की गयी। चंद्रशेखर जी जब प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने पीएमओ के तत्वावधान में एक मीटिंग ज़रूर हिन्दू मुस्लिम संतो की बुलायी थी। उसमें कोई फैसला तो नहीं हुआ था पर एक गुफ्तगू तो शुरू हुयी थी। लेकिन 6 दिसंबर 1992 के बाद उभय पक्ष में इतनी खटास आ गयी कि बातचीत से समाधान का विंदु ही नेपथ्य में चला गया। अब जाकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से एक मेडिएशन हो रहा है। देखिये इसका क्या परिणाम होता है।

मैंने यहां केवल दो उन मुख्य वादों का उल्लेख किया है जो भाजपा बराबर हर चुनाव में दुहराती रहती है पर जब सत्ता में आती है तो इन वादों की ओर ज़रा भी नहीं देखती नहीं है । कश्मीरी पंडितों की वापसी, समान नागरिक संहिता को लागू करना सहित अन्य कोर वादें और भी हैं जिनपर सरकार में आने के बाद भाजपा ने कोई ऐसी कार्यवाही नहीं की जिससे यह लगे कि वह इन मुद्दों पर वाकई गम्भीर है।

अब एक और नए विवाद से यह चुनाव घिरा हुआ है वह है झूठे हलफनामे का। चुनाव के लिये जब कोई प्रत्याशी नामांकन करता है तो उससे कुछ निजी सूचनाएं भी मांगी जाती हैं। उन्हीं में एक सूचना शैक्षणिक योग्यता की भी होती है । अभी हाल में ही अमेठी से पर्चा दाखिल करने वाली भाजपा प्रत्याशी स्मृति ईरानी ने अपनी शैक्षणिक योग्यता इंटर पास लिखी है। जब कि 2004 के चुनाव में उन्होंने खुद को ग्रेजुएट, 2014 के चुनाव में ग्रेजुएट पर अधूरा और अब 2019 के नामांकन में केवल इंटर पास होना बताया है। इस पर यह विवाद उठ गया कि उनके द्वारा दी गयी कौन सी सूचना सही है ? 2004 वाली या 2019 की। केवल स्मृति ईरानी ही नहीं कुछ अन्य महत्वपूर्ण महानुभाव भी इसी आरोप में घिरे हैं जिन्होंने नामांकन के समय झूठी सूचना हलफनामे पर दिया है।

सांसद या विधायक होने के लिये किसी भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता की बाध्यता नहीं है। बहुत से प्रखर और सक्रिय राजनेता बिना शैक्षणिक योग्यता के ही बेहतर सांसद और विधायक रहे हैं। कुछ मंत्री भी रहे हैं और उनकी प्रशासनिक क्षमता भी सराहनीय रही है। इंग्लैंड के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल की कोई बहुत अधिक  शैक्षणिक योग्यता नहीं थी। लेकिन बिना किसी औपचारिक शिक्षा के ही उन्होंने न केवल इतिहास पर शोधपरक पुस्तकें लिखीं बल्कि उन्हें साहित्य का नोबल पुरस्कार भी 1953 में मिला। अतः सांसदों विधायकों के लिये शैक्षणिक योग्यता का कोई मुद्दा ही नहीं है। मुद्दा है हलफ उठा कर झूठी सूचना देने का। झूठा हलफनामा देना एक दंडनीय अपराध है।

हमने झूठे वायदों, झूठे आश्वासनों , संदिग्ध चरित्र के लोगों को अपना रहनुमा मानने का जब मन बना लिया है तो झूठे, मक्कार और आपराधिक मानसिकता के लोग जब हमारे भाग्य विधाता बनने लग जांय तो आश्चर्य किस बात का ? चूंकि यह व्याधि किसी एक राजनैतिक दल में नहीं है बल्कि लगभग सभी दल इससे पीड़ित हैं तो कोई एक दूसरे के खिलाफ तभी तक सवाल उठाता है जब तक कि वही सवाल उसके खिलाफ उठ कर उसे असहज न करने लगे।

अधिकत चुनाव वादों पर नहीं होते हैं। चुनाव व्यक्तिगत क्षवि के करिश्मे पर होने लगे हैं और वह क्षवि गढ़ी जाती है मार्केटिंग से। मार्केटिंग बिना झूठ के की नहीं जा सकती है।  चुनाव में लड़ने का जो रूपक है वह चुनाव को युद्ध मे सबकुछ जायज है के डिफॉल्ट सिद्धांत की ओर ले जाता है। तब हम पिछले वादे, कारनामे, आरोप प्रत्यारोप और नए वादे आदि सब भुला कर बस जिसके करिश्मे में मुब्तिला हैं, बस उसे ही जिताना चाहते हैं। इस दीवानगी में यह भूल भी जाते हैं कि ज़रा यह भी तो जान लें कि जिन हजरत और जिस दल को हम सरकार चलाने के लिये सौंप रहे हैं, आखिर उन्होंने अपने कार्यकाल में किया क्या और अपने किये वादे निभाये कितने ? हमें खुद को एक सजग, सचेत और सतर्क मतदाता होना होगा अन्यथा यह ठगे जाने का सिलसिला चलता रहेगा।

© विजय शंकर सिंह

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