" मैं इस फैसले का समापन गहरे दुःख और क्षोभ से कर रहा हूँ, क्योंकि एक भयानक हिंसा से जुड़े इस मुक़दमे का अंत मुझे ज़रूरी सुबूतों के अभाव में अभियुक्तों को दोषमुक्त कर के करना पड़ रहा है । "
यह शब्द हैं पंचकूला के एनआईए जज जगदीप सिंह के जिन्होंने समझौता बम धमाके के मुक़दमे की सुनवायी की। जज की यह टिप्पणी किसी भी कानूनी स्ट्रिक्चर से अधिक महत्वपूर्ण है। 2007 में हुए इस धमाके में कुल 70 लोग मारे गए थे। आज का विमर्श इसी मुक़दमे में मुल्जिमों के बरी होने और एनआईए की विवेचना के दौरान की गयी भूलों और गलतियों पर है जिसका जिक्र जज ने अपने फैसले में किया है।
यह घटना 18/19 फरवरी 2007 के रात की है जब समझौता एक्सप्रेस, पानीपत के पास पहुंची तो ट्रेन में एक जबरदस्त धमाका होता है और उक्त धमाके में कुल 70 लोग मारे जाते हैं। यह एक बड़ी घटना थी। इस मुक़दमे की विवेचना शुरू में एक एसआईटी गठित कर के की गयी फिर इसे नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी को विवेचना के लिये सौंप दिया गया।
विवेचना से यह तथ्य सामने आए कि यह एक कट्टरपंथी संघठन अभिनव भारत द्वारा की गयी आतंकी कार्यवाही है। इसमें स्वामी असीमानंद नामक एक व्यक्ति का नाम आया जो पहले भी 2007 में हुए मक्का मस्जिद और अजमेर दरगाह पर हुये विस्फोट कांड का मुल्ज़िम था। हालांकि वह उन दोनों ही मुकदमो में 2017 और 2018 में बरी हो गया है। समझौता एक्सप्रेस विस्फोट के मामले में असीमानंद के साथ लोकेश शर्मा, कमल चौहान और राजेंद्र चौधरी आदि भी मुल्ज़िम थे। ये सभी 20 मार्च को सुनाए गये 160 पृष्ठों वाले फैसले के अनुसार इल्ज़ाम से बरी हो गए हैं।
इस फैसले के आलोक में देश की सबसे बड़ी और सक्षम जांच एजेंसी, एनआईए, जिसके गठन का उद्देश्य ही आतंकी घटनाओं की विवेचना और तथ्यान्वेषण का रहा है की क्षमता, नीति और नीयत पर देश भर में आलोचना की जा रही है। जज के इस टिप्पणी पर कि एनआईए ने जानबूझकर कर स्वतंत्र गवाहों का न तो परीक्षण किया और न ही उनसे गहरी पूछताछ की। एनआईए ने उन सुबूतों को जानबूझकर अदालत से दूर रखा जिनसे विस्फोट के बारे में अन्य तथ्य जाने जा सकते थे। जज के ही शब्दों में, पढ़े " सबसे कारगर और प्रमाणित सुबूत अदालत में पेश ही नहीं किये गए। "
अभियोजन के अनुसार, इस मुक़दमे का आधार ही असीमानंद का इकबालिया बयान था जो सीआरपीसी की धारा 164 के अंतर्गत पुलिस ने लिया था। असीमानंद बाद में अपने इस बयान से मुकर गया। अगर कोई मुल्ज़िम 164 सीआरपीसी के अंतर्गत दिए गए अपने बयान से मुकर जाता है तो केवल उक्त बयान के ही आधार पर कुछ नहीं किया जा सकता है पर उससे जुड़े अन्य सुबूतों की खोज की जाती है। वैसे भी उक्त इकबालिया बयान में केवल एक बात स्वीकार की गयी थी यह धमाके एक अन्य मुल्ज़िम सुनील जोशी के कहने पर किये गये थे, और सुनील जोशी का देहांत मुक़दमे की सुनवायी के ही दौरान हो गया था।
इसके साथ ही असीमानंद फरारी की हालत में हरिद्वार में अजय सिंह और शक्ति सिंह के यहां रुका था और उन दोनों से अपने जुर्म की स्वीकारोक्ति की थी जिसे कानून की भाषा मे एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल कनफेशन कहा जाता है, पर अदालत में उक्त दोनों ने जिसके सामने यह कनफेशन हुआ था, इस बात से इनकार कर दिया और वे दोनों ही होस्टाइल हो गए।
अदालत ने विवेचना में कई गम्भीर त्रुटियां पायी हैं। जैसे,
* दिल्ली रेलवे स्टेशन पर लगे हुए सीसीटीवी कैमरे के फूटेज अदालत में पेश नहीं किये गए। जबकि सीसीटीवी कैमरे घटना के दिन सक्रिय थे। फैसले के अनुसार,
" यदि सीसीटीवी कैमरे के फूटेज के आधार पर तफ्तीश आगे की गयी होती तो निश्चय ही अपराधियों के खिलाफ और भी सुबूत मिले होते। "
* दिल्ली रेलवे स्टेशन की डॉरमेट्री के रजिस्टर सुबूत के रूप में नहीं पेश किए गए। एक रजिस्टर भी इसमें मिला था जिस पर असीमानंद के हस्ताक्षर थे पर उसकी भी पुष्टि नहीं करायी गयी।
* पुलिस ने उन बैग को बरामद किया था जिसमे बम लाये गये थे। वे बैग इंदौर के बने हुए थे। पर उनकी पहचान नहीं करायी गयी। जज ने इस पर भी हैरानी व्यक्त की है।
* जज ने इस बात पर भी हैरानी जतायी है कि जांच एजेंसी ने कोई शिनाख्त परेड क्यों नहीं करायी।
* जांच एजेंसी एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल कनफेशन के तथ्यों को भी प्रमाणित नहीं कर पायी।
* अभियोजन के एक गवाह इस्तकार अली ने यह बताया था कि दिल्ली से चलने के बाद थोड़ी दूर पर कुछ समय के लिये यह ट्रेन रोकी गयी थी और यह चर्चा थी की एक बैग रख कर कुछ लोग अंधेरे में उतर गए थे। जांच एजेंसी ने इस तथ्य की सघन जांच पड़ताल नहीं किया।
* अदालत ने इस बात पर भी टिप्पणी की कि सभी अभियुक्तों में तालमेल और षडयंत्र का आधार जानने के लिये जांच एजेंसी ने उनके बीच हुयी बातों का कॉल डिटेल रिकॉर्ड जो विवेचना की सबसे पहली सीढ़ी होती है एकत्र नहीं किया जिससे इस घटना का षडयंत्र अनावृत्त रहा।
* फिंगर प्रिंट के नमूनों का भी मिलान नहीं किया गया।
अदालत के यह कुछ ऑब्जर्वेशन हैं जो फैसले में हैं। ये विंदु लाइव लॉ से लिये गये हैं।
अदालतों द्वारा मुल्जिमों को बरी कर देना कोई अनोखी खबर नहीं है। आपराधिक मामलों में साज़याबी का प्रतिशत बहुत उत्साहजनक नहीं है। अगर हम सामूहिक हिंसा और अपराध के मामलों में सज़ायाबी का प्रतिशत देखें तो बहुत ही निराशाजनक स्थिति सामने आएगी। कई महत्वपूर्ण मामलों में अभियुक्तों को बरी किया जा चुका है। इसका कारण विवेचना की कमी है या गवाहों का टूट जाना या लंबे समय तक चलने वाले ट्रायल से गवाहों और अभियोजन की उदासीनता इस पर कोई कानून या पुलिस का संस्थान शोध करे तो रोचक तथ्य सामने आएंगे।
इसी मामले जज अपने फैसले में यह लिखते हैं कि " अभियोजन ने अपराध के मोटिव पर कोई टिप्पणी ही नहीं की जब कि किसी भी अपराध को साबित करने की यह पहली शर्त होती है। " इस घटना का मोटिव स्पष्ट था। मोटिव था कि भारत पाक के बीच तमाम विरोध और विवादों के बीच चलने वाली समझौता एक्सप्रेस जो जनता को आवागमन का एक आसान साधन उपलब्ध कराती है, को पटरी से उतारना। लेकिन यह बात अदालत में नहीं कही गयी।
इस मामले की विवेचना पहले एसआईटी करती है। फिर एनआईए को इसकी जांच सौंपी जाती है। 2014 के बाद जांच की दिशा केंद्र में सरकार बदलते ही स्वतः बदल जाती है। असीमानंद जिसका असली नाम नब कुमार दास है और आरएसएस का प्रचारक है जिसने अपने अपराध को स्वीकार किया है, सरकार बदलते ही अपने बयान से मुकर जाता है और देश की सबसे कुशल जांच एजेंसी जो आतंकी घटनाओं की विवेचना के लिये गठित हुयी है इस मामले में कोई और सुबूत जुटा नहीं पाती है और मुल्जिमों के बरी होने का एक आसान मार्ग दे देती है। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, "अभियोजन की थियरी के अदालत में खुलने के बाद अभियुक्तों को अपने बचाव में कुछ कहने के लिये रहा ही नहीं ! "
इसी विषय पर हरियाणा के पूर्व डीजी विकाश नारायण राय के एक लेख से निम्न अंश ले रहा हूँ पढ़े,
* एसआईटी की शुरुआती जांच में यह स्थापित हुआ कि इस अपराध का केंद्र बिंदु इंदौर था और इसके तार पाकिस्तानी संगठनों से नहीं बल्कि उग्र हिन्दुत्ववादी समूहों से जुड़े हुए थे।
* इसके बाद यह जांच सीबीआई को मिली जिसने करीब दो वर्ष जांच की मॉनिटरिंग की और जांच उपरोक्त लाइन पर ही आगे बढ़ी लेकिन कोई गिरफ्तारी नहीं की जा सकी|
* 2010 में एनआईए के गठन के बाद जांच उसके पास आ गयी और गिरफ्तारियां शुरू हुयीं। जांच की दिशा वही रही जो हरियाणा एसआईटी ने निर्धारित की थी। तीन अपराधी गिरफ्तार नहीं किये जा सके लेकिन नवम्बर 2011 में अदालत में चालान दे दिया गया।
* 2014 में भाजपा सरकार बनने बाद एनआइए चीफ शरद कुमार ने सरकार के दबाव में पलटी मारी और एजेंसी की सारी शक्ति केस में आरोपियों को बरी कराने में लग गयी। महत्वपूर्ण गवाह या तो बिठा दिए गए या उनकी गवाहियाँ ही नहीं कराई गयीं। तीन भगोड़े अपराधियों को पकड़ने के कोई प्रयास ही नहीं हुए। इस सब का लाभ आरोपियों को मिला।
सरकार के एक विचित्र निर्णय यह है कि, समझौता विस्फोट के मामले में अभियुक्तों के बरी होने के फैसले के विरुद्ध एनआईए ने हाईकोर्ट में अपील करने से मना कर दिया है । आपराधिक न्याय व्यवस्था में निचली अदालत के फैसले पर ऊपर की अदालत में अपील करने का एक वैधानिक प्राविधान है। पर सरकार का यह फैसला हैरान करने वाला है। लगता है कि एनआईए को जो दायित्व सौंपा गया था कि मुलजिम बचाओ उसे उसने अपनी तरफ से पूरा कर लिया है। अब अगर अपील होती है तो उसकी चाल खुल भी सकती है।
अगर सभी साक्ष्यों को प्रस्तुत, उनके परीक्षण तथा उस पर बहस के बाद मुलजिम बरी होते तो कोई बात नहीं है। पर जज ने फैसले में जो यह बात कही है कि महत्वपूर्ण सुबूत नहीं रखे गए यह अभियोजन और एनआईए की नीयत को ही संदिग्ध बना देते हैं। ऊपर से अपील न करने की सरकार की घोषणा ने तो सीधे मुलजिम छुड़ाने में मदद करने वाली एनआईए और अभियोजन को ही मुलजिम के कठघरे में खड़ा कर देती है।
यह एक्विटल अगर सही है तो फिर यह विस्फोट किया किसने था ? यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठेगा। क्या कारण है कि हाई प्रोफाइल मामलो में तफ्तीश 'जेसिका को किसी ने नहीं मारा' की तर्ज़ पर अनसुलझी रह जाती है ? यह तफ्तीश की कमी है, सुबूत नज़रअंदाज़ करने के कारण है या पहले से ही किसी निश्चित तयशुदा निष्कर्ष पर पहुंचने का इरादा ? यह पुलिस और एनआईए की विफलता तो है ही। पर सुबूत जानबूझकर अदालत तक नहीं पहुंचने देना यह नाकामी और प्रोफेशनल अक्षमता ही नहीं एक आपराधिक षडयंत्र है। यह अपराध है, अपराधी को बचाने का।
अदालतों से अभियुक्तों का बरी हो जाना एक गंभीर चूक समझी जाती है। इसकी जांच भी होती है और उन कारणों की पड़ताल कर के जिम्मेदारी भी तय की जाती है कि किसकी गलती से यह चूक हुयी है। साथ ही एक मज़बूत अपील तैयार करके बड़ी अदालत में दोषमुक्ति के फैसले को चुनौती दी जाती है। पर यहाँ तो सरकार ने बेशर्मी से ही अपील करने से मना कर दिया। एक पुलिस अफसर होने के नाते मेरे लिये यह सचमुच ही हैरान करने वाला निर्णय है। आपराधिक क्षवि के लोगों को लगभग सभी दल टिकट देते रहते हैं, पर अदालत में मुल्जिमों को बरी होने पर सरकार द्वारा अपील न करने की यह एक नयी परम्परा चल पड़ी है।
पुलिस के स्थानांतरण और नियुक्तियों में राजनीतिक संरक्षण आम बात है पर क्या विवेचना, गिरफ्तारी, अभियोजन आदि जो प्रोफेशनल पुलिसिंग है, वह भी सरकार और सत्तारूढ़ दल की मर्जी और सोच से निर्देशित होंगी ? अगर ऐसा हुआ तो कानून व्यवस्था की स्थिति भयावह हो जाएगी। यह फैसले पर यह सवाल भी उठता है कि क्या एनआईए को सरकार और सत्तारूढ़ दल की मर्जी के अनुसार मुकदमो की विवेचना करने के लिये एनआइए प्रमुख को रिटायर होने के बाद दो वर्ष तक सेवा विस्तार और फिर भारत सरकार के विजिलेंस कमिश्नर के पद से नवाजा गया ? क्या यह लाभ, समझौता विस्फोट और अन्य कई आतंकी मामलों में असीमानंद और उसके साथियों के विरुद्ध केस कमजोर करने के पुरस्कार स्वरूप दिया गया है ?
आतंकवाद एक जघन्य हिंसक कृत्य है। अगर हम मानवता के विरुद्ध होने वाले ऐसे अपराधों की जांच, अभियोजन और अपील पर सत्तारूढ़ दलों की सोच और मानसिकता से प्रेरित होकर निर्णय लेने लगेंगे तो आतंकवाद के विरुद्ध अपनी ही प्रतिबद्धता को खोखला कर बैठेंगे। अपराध अपराध है और उसे देश के कानून के अनुसार बिना किसी राजनैतिक सोच और ऊहापोह के प्रोफेशनल तरीके से निपटा जाना चाहिये।
© विजय शंकर सिंह
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