लोकसभा चुनाव 2019 के सात चरणों के मतदान में आज 23 अप्रैल को तीसरा चरण है। आज के बाद लगभग आधा चुनाव सम्पन्न हो जाएगा और सेफोलॉजिस्ट्स के निष्कर्षों पर विश्वास करें तो 23 मई 2019 को जो कुछ भी होने वाला होगा, उसके परिणामों का रुझान मिल जाएगा। पर अनुमान और वास्तविकता में सदैव अंतर रहता है, हो सकता है इस बार भी हो।
पर यह चुनाव हो किन मुद्दों पर रहा है यह आज तक कोई दल तय नहीं कर पाया है। 2014 का चुनाव भ्रष्टाचार और कुशासन के मुद्दे पर लड़ा गया था। जनता यूपीए 2 के कार्यकाल में हुयी भ्रष्टाचार के घटनाओं पर ऊबी थी और उसके सामने एक नया उम्मीदों से भरा नेतृत्व था, विकास के नए और प्रचारित मॉडल के रूप में गुजरात मॉडल था, बीजेपी के सभी कोर मुद्दे पीछे थे और सबका साथ सबका विकास, 2 करोड़ नौकरियां हर साल, 100 स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन आदि मध्य वर्ग को लुभाने वाले मुद्दों ने जनता को एक नयी उम्मीद और भविष्य की अनन्त संभावनाएं दिखा दीं थीं। नतीजा, जनता का भरोसा नरेंद मोदी पर जमा और वे देश के प्रधानमंत्री बने।
पर आज पांच साल बाद जब बीजेपी की साइट पर जा कर उनके वादों की फेहरिस्त पढिये और खिड़की का पर्दा उठा कर देखिये तो बाहर कोई बदलाव नही है। सरकार से और भाजपा के मित्रों से पूछिये कि क्या बदला है इन पांच सालों में तो वे जवाब नहीं देंगे बल्कि यह सवाल कर बैठेंगे कि सत्तर सालों में क्या बदला है ? अगर सत्तर साल में कुछ नहीं बदला है और सत्तर साल वाले नालायक हैं तो क्या यह मान लिया जाय कि 2014 से उम्मीद के सप्ताश्व रथ पर सवार हो कर आये लोग भी नालायक हैं और इन्होंने कुछ नहीं बदला है ! गज़ब का तर्क है ।
2019 के चुनावी मुद्दे होने चाहिये थे, 2014 के वादों की समीक्षा और फिर कोई नए वादे या उन्ही अधूरे वादों को पूरा करने का सिलसिला। पर 2014 के वादों पर तो कोई अब बात ही नहीं करता है। अब बात भ्रष्टाचार पर नहीं होती, होती भी है तो यूपीए 2 के भ्रष्टाचार पर, पर 2014 के बाद की हुयी भ्रष्टाचार पर शातिराना चुप्पी। अब बात 100 स्मार्ट सिटीज पर नहीं होती और न इस पर होती है कि पिछले पांच सालों में कितना बजट कितनी स्मार्ट सिटी के लिए आया और उसमें कितने धन का उपयोग किया गया। अब बात 2 करोड़ प्रतिवर्ष नौकरियों के वादे पर नहीं होती है बल्कि सरकार एक अपरिपक्व प्रशासक की तरह यह कहती है कि इतनी सड़कें बन रही हैं, रेलवे ट्रैक बन रहे हैं 20 करोड़ लोग मुद्रा लोन ले चुके हैं, क्या वे रोजगार नहीं कर रहे होंगे। अब बात किसानों को मिलने वाली न्यूनतम समर्थन मूल्य जो 2014 का वादा था कि वह स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा के अनुरूप दिया जाएगा, पर नहीं होती, बात होती है, एक और वायदे पर, कि 2022 में किसानों की आय दुगुनी हो जाएगी। पर यह हो कैसे जाएगी, इस पर न सरकार के पास कोई रोडमैप है और न ही नीती आयोग के पास । मैं, रामजन्मभूमि, धारा 370, और समान नागरिक संहिता जैसे कोर मुद्दे की बात ही फिलहाल नहीं कर रहा हूँ।
अब अगर इस चुनाव में 2 करोड़ नौकरियों के वादे का ज़िक्र कीजिये तो सरकार के पास कोई आंकड़ा ही नहीं है और 2016 के बाद सरकार ने सारे आंकड़े देने बंद कर दिए हैं। गंदगी और जाले अगर आप देखना नहीं चाहते तो उन्हें कालीन के नीचे सरका देने से वे छुप तो जाते हैं पर वे साफ नहीं होते। इस मामले में भी यही हो रहा है। प्रथम दृष्टया तो यह बात सही है कि इतने प्रोजेक्ट चल रहे हैं और इतने मुद्रा लोन बंट गये हैं तो उनसे रोजगार तो बढ़ा ही होगा तार्किक लगता है। पर सरकार के पास यह आंकड़े तो हैं कि कितने लोगों ने मुद्रा लोन लिया है पर वह लोन कितने रोजगारों का सृजन कर सका है, क्या ऐसा कोई आंकड़ा सरकार के पास है ? सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है। अगर उन मुद्रा लोन से रोजगारों का सृजन नहीं हुआ है और उस पैसे का दुरुपयोग हुआ है तो यह अर्थतंत्र पर एक नया झटका होगा। मुद्रा लोन मुक्तहस्त से बांटा गया है। पर इस लोन का दुरुपयोग हुआ और वापस नहीं हुआ तो निश्चित रूप से बैंकों का एनपीए बढ़ेगा जिससे आर्थिक स्थिति और खराब होगी। प्रोजेक्ट ज़रूर बढ़े हैं विशेषकर सड़क प्रोजेक्ट। निश्चित ही इसमें रोजगार सृजन हुआ होगा। पर कितना और कितने धन के निवेश पर कितनो को रोजगार मिला इसका भी कोई आंकड़ा नहीं है, और न ही ऑडिट किया गया है।
2014 और 2019 के बीच जो महत्त्वपूर्ण कदम सरकार ने उठाये थे उनमें दो कदमो की बहुत चर्चा होती थी पर इस चुनाव में वह कोई मुद्दा सत्तारूढ़ दल की तरफ से नहीं बनाया गया है। वे मुद्दे हैं नोटबंदी और जीएसटी के रूप में एक देश एक कर की घोषणा। नोटबंदी जिस रात हुयी थी उसके प्रातः काल इसे गेम चेंजर, मास्टरस्ट्रोक और न जाने क्या कह कर के प्रचारित किया गया था। कहा गया था, यह आतंकवाद का शमन करेगा, कालेधन का प्रसार रोकेगा, नक़ली नोटों का कारोबार रोकेगा। पर अब जो आंकड़े आ रहे हैं उनसे यही लगता है कि तीनों में से कोई भी उद्देश्य इस कदम से पूरा नहीं हुआ । कैशलेस, लेशकैश आदि बातें कुछ दिन चली। पर अब जितनी नकदी पहले थी उससे अधिक अब प्रसार में आ गयी है, कालेधन पर कितना रोक लगा इसका कोई आंकड़ा नहीं है और आतंकवाद की घटनाएं बढ़ी ही हैं कम नहीं हुयी हैं। इसके विपरीत नोटबंदी के कारण छोटे व्यापारी, असंगठित क्षेत्र के लोग, कम पूंजी के रोज़ कमाने खाने वाले लोग अधिक तबाह हुए हैं।
यही बात जीएसटी को लेकर कही जा रही है। जीएसटी सैद्धांतिक रूप से एक बेहतर कर प्रणाली है और इसे दुनियाभर के देश अपने अपने हिसाब से अपना रहे हैं। भारत मे भी यह योजना यूपीए 2 के समय की है। तब वर्तमान प्रधानमंत्री जो तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे ने जीएसटी का विरोध किया था। पर यह कर प्रणाली उन्ही के द्वारा लागू की गयी जो इसका विरोध करते थे। पर इसकी जटिल प्रक्रिया, न समझ मे आने वाले कायदा कानून और कुछ भ्रष्ट कर संग्रह अधिकारियों के कारण इस कर व्यवस्था ने व्यापार और बाज़ार का नुकसान ही किया। उद्योग और बाज़ार पर विपरीत असर पड़ा, कर संग्रह घटा, उत्पादन, वितरण की श्रृंखला टूटने लगी, मांग और आपूर्ति के अंतर ने औद्योगिक उत्पादन को प्रभावित किया जिससे इकाइयों का उत्पादन या तो गिरा या वे बंद हुयीं परिणामस्वरूप लोगों की नौकरियां गयी। यह प्रशासनिक विफलता है और नीतिगत विकलांगता। यह मुद्दा क्यों नहीं बनता है ?
अभी हाल ही में जेट एयरवेज ज़मीन पर आ गयी। 20,000 लोग बेरोजगार हो गये। असंगठित क्षेत्र के लाखों नोटबंदी और सरकार की आर्थिक नीतियों से बेरोजगार हुये तो वह महत्वपूर्ण खबर नहीं बनी। पर जेट का ज़मीन पर बैठना एक खबर बन गयी। यह एलीट, कोट पैंट टाई की बेरोजगारी थी। यह उस मध्यवर्ग की बेरोजगारी है जो अक्सर किसी भी जनहित के मुद्दे पर उदासीन पड़ा रहता है। जेट के साथ बीएसएनएल, ओएनजीसी, गैल, एचएएल जैसी बड़ी और लगातार मुनाफा देने वाली कम्पनियां इन पांच सालों में घाटे में आ गयीं और अब हालत यह है कि इन कम्पनियों को बेचने की बात सरकार कर रही है। इनमे काम करने वाले लोग बेरोजगार होंगे और सरकार तो सरकार उसके समर्थक भी इस मुद्दे पर खामोश है। वे इसे भी एक उपलब्धि ही मान रहे हैं।
फिर 2019 का मुद्दा क्या है ? अगर सत्तारूढ़ दल के नेताओ के भाषणों को सुनिए तो उनके सारे भाषण, आतंकी हमलों, उसकी प्रतिक्रिया में की गयी सर्जिकल स्ट्राइकों, पाकिस्तान के खिलाफ, पर चीन के खिलाफ बिलकुल नहीं, और अब एक नया मुद्दा मिल गया है वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति की तर्ज पर साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का श्राप और आतंकी हमलों का मुकाबला करते हुए शहीद हो जाने वाले पुलिसजन को देशद्रोही कह देना, पर केंद्रित हैं।
आतंकवाद एक बड़ा मुद्दा है और भारत इस समस्या से अस्सी के दशक से ही जूझ रहा है। पहले खालिस्तान आंदोलन के अलगाववादी समूहों द्वारा फिर 1990 से जम्मू कश्मीर में चल रहे आतंकी और अलगाववादी समूहों द्वारा की गयी अनेक हिंसात्मक घटनाओं के कारण यह एक राष्ट्रीय समस्या है। यह दोनों आंदोलन पाकिस्तान प्रायोजित है। पंजाब में यह समस्या हल हो गयी, पर कश्मीर में यह आज तक हल नहीं हो पायी। दरअसल यह दोनों ही आतंकी गतिविधियां मूल रूप से आईएसआई की एक बड़ी साजिश का हिस्सा हैं। इस साजिश के तार 1947 से भी पीछे जाते हैं। यह साज़िश है भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप और सामाजिक सद्भाव के तानेबाने को तोड़ना। पंजाब में खालिस्तानी आतंकियों का भीयही उद्देश्य रहा कि वहां हिन्दू और सिख कौमों में अविश्वास पनपे और दोनों में दूरी बढ़े। इसी कारण पंजाब के आतंकवाद के समय हिन्दू समुदाय पर हमले हुए और उसकी प्रतिक्रिया पूरे देश मे सिखों पर भेदभाव को लेकर हुयी। 1984 का दंगा जो मूलतः इंदिरा गांधी की हत्या से उपजा था पर अवचेतन में वह इसी साज़िश का एक अंग था। इस दंगे में कांग्रेस और संघ दोनों की ही भूमिका थी। पर यह दंगा भी हफ्ते भर में दब गया पर यह जो ज़ख्म दे गया वह आज भी टीसता है।
पंजाब के आतंकवाद के बाद पाकिस्तान के जैश ए मोहम्मद, सहित और भी बहुत सी आतंकी तंजीमें जो कश्मीर में सक्रिय हैं वे शेष भारत मे भी सक्रिय हो गयीं। कई बड़ी घटनाएं हुयी जिसका असर यह हुआ कि हिन्दू मुस्लिम के बीच जो एक स्वाभाविक भाईचारा है उसपर असर पड़ा। भारत की सबसे बड़ी ताकत उसकी सामाजिक एकता है और यही एकता पाकिस्तान के आंख की किरकिरी है। आतंकवाद से कोई भी लड़ाई इस सामाजिक एकता को दरकिनार करके नहीं लड़ी जा सकती है क्योंकि अगर यह एकता टूटती है तो देश का जो आंतरिक स्वरूप है वह भरभरा कर गिर जाएगा। 1857 के विप्लव से अंग्रेज़ इसे समझ गए थे और दोनों में आपसी फूट डालने का संस्थागत षडयंत्र तभी से शुरू हो गया था। मैं यह ऐतिहासिक आधार इस लिये दे रहा हूँ कि आतंकवाद के विरुद्ध कोई भी लड़ाई धार्मिक और जातिगत आधार पर बिखर कर नहीं लड़ी जा सकती है। लेकिन गौरक्षा और बीफ के मुद्दे पर सरकार की नजरअंदाजी ने सामाजिक सद्भाव को बड़ा नुकसान पहुंचाया।
इस चुनाव में जो भी मुद्दे उठाये जांय वे भावनाओं पर आधारित न हों बल्कि देश के आर्थिक और सामाजिक स्वस्थ्य को लेकर ही उठाये जांय। बढ़ती बेरोजगारी, घटता उद्योग धंधा, उजड़ते किसान, बंद होते हुए उद्योग, घटता व्यापार, कम होता हुआ कर संग्रह, समाज मे फैलता हुआ परस्पर अविश्वास, धर्म और जाति के नाम पर होती हुयी हिंसक वारदातें, कर्ज़ और एनपीए के बोझ से दरकता बैंकिंग सिस्टम, यह जानते हुए भी कि नौकरशाही और राजनीतिक तंत्र में भ्रष्टाचार है फिर भी उसके खिलाफ कार्यवाही न करने की इच्छाशक्ति, और अपने अपने आतंकवाद आदि बड़े मुद्दे हैं जिनका समाधान ज़रूरी है।
सरकार का उद्देश्य एक जिम्मेदार और विधिपालक तंत्र की स्थापना करना है जो जनता को जनोन्मुखी विधिसम्मत प्रशासन दे सके और देश तथा समाज को प्रगतिशील पथ पर आगे ले जाये। पर इन असल मुद्दों पर न कोई चर्चा है और न उनसे निपटने की कोई कार्ययोजना। जो कोर मुद्दे हैं राममंदिर, धारा 370, समान नागरिक संहिता, कश्मीरी पंडितों की वापसी, इन पर भी पिछले पांच साल में कोई कार्ययोजना नहीं बनी बस ये वायदे ही बने रहे। कभी भी प्रधानमंत्री या भाजपा के नेता जनता से जुड़े रोजी रोटी शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दों पर बात नहीं करते हैं। वे बचते हैं। जबकि विपक्ष के नेता इस मुद्दे पर बात करते है। क्योंकि वे सत्ता में आना चाहते हैं, इसलिये बात करते हैं। 2014 में जब भाजपा सत्ता में आना चाहती थी तो वह जनता से जुड़े असल मुद्दों पर ही बात करती थी। क्योंकि उसको पता था कि जनता अपनी समस्याओं को लेकर ही सचेत रहती है और यह चैतन्यता आशा का संचार करती है और यही उम्मीद सरकार बनवाती है। अब विपक्ष उसी एजेंडे पर है जहां 2014 में भाजपा थी। वक़्त के साथ साथ पात्र और भूमिकाएं भी बदल गयी हैं।
पर 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा रोटी रोजी शिक्षा स्वास्थ्य आदि मौलिक मुद्दों से किनारा कर रही है। सुरक्षा चूक से उपजे पुलवामा हमले में शहीद हुए 40 जवानों पर वोट मांगा जा रहा है, अभिनंदन के नाम पर वोट मांगा जा रहा है, पाकिस्तान की बिगड़ती हुयी माली कारण का श्रेय लेकर उसके नाम पर वोट मांगा जा रहा है, न्यूक्लियर बम दीवाली के लिये नहीं है यह कह कर के अत्यंत संवेदनशील मुद्दे पर बेहद गैरजिम्मेदाराना रवैय्या दिखा कर खुद को एक मिथ्या नायक के रूप में प्रतिष्ठित करके वोट मांगा जा रहा है, धमाकों के मुक़दमे में ट्रायल झेल रहे है को प्रत्याशी के रूप में चुनाव में खड़ा करके, आतंकवाद का खात्मा करने के नाम पर वोट मांगा जा रहा है, गम्भीर अपराधों में अपने मुख्यमंत्री, मंत्रियों के मुक़दमे वापस ले कर अपराध उन्मूलन और भयमुक्त समाज के लिये वोट मांगा जा रहा है ! पर 2014 के किये, अनकिये औरअधूरे वादों पर एक शब्द भी नहीं कहा जा रहा है । इस रणनीति को क्या कहा जाय यह आप सब अपने विवेक से तय करते रहिए !
अक्सर मुद्दों की मृग मरीचिका में भटकता चुनाव प्रचार एक बेहतर और जिम्मेदार सरकार नहीं चुनने देता है। वह हमेशा भावुक मुद्दों के अरण्य में भटकाता रहता है। जनता से जुड़े मुद्दों को भटकने और दरकिनार मत होने दीजिये। हम एक बेहतर भविष्य और प्रगतिशील समाज के लिये सरकार चुन रहे हैं । यह तभी संभव है जब समाज एकजुट, सजग, सतर्क, समृद्ध, शिक्षित और स्वस्थ रहे। जीवन के असल मुद्दों को आंखों और विवेक से ओझल न होने दें, चुनावी हंगामों के बीच इसे याद रखना बहुत ज़रूरी है।
© विजय शंकर सिंह
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