पहली बार यूपीएससी ने बिना सिविल सर्विस की प्रतियोगिता से चयनित 11 अधिकारियों को जिनके बारे में कहा जाता है कि वे अपने अपने विषय के एक्सपर्ट हैं, को संयुक्त सचिव के पद के लिये चयनित किया है जिन्हें सरकार के विभिन्न विभागों में नियुक्त किया गया है। भारत सरकार के सचिवालय में संयुक्त सचिव का पद एक नीतिगत निर्णय लेने की कड़ी होती है और नौकरशाही में एक महत्वपूर्ण पद होता है। यहीं से नीति के बारे में पहली राय बनती है। इसी के बाद अपर सचिव, विशेष सचिव और सचिव से होते हुए सभी फाइलें अपनी अपनी प्राथमिकता और महत्ता के अनुसार सरकार के मंत्रियों और प्रधानमंत्री तक पहुंचती हैं। यह पद पहले भारतीय प्रशासनिक सेवा आईएएस के अधिकारियों के लिये नियत था, पर बाद में अन्य अखिल भारतीय सेवाओं और केंद्रीय सेवाओं के अधिकारियों की भी इस पद पर नियुक्तियां होने लगीं।
कहा गया है, लैटरल इंट्री प्रोफेशनल के लिये है। यह भर्ती तीन साल के लिये संविदा पर है जिसे परफॉर्मेंस के आधार पर पांच साल के लिये आगे बढाया जा सकता है। ब्यूरोक्रेसी में लैटरल एंट्री का पहला प्रस्ताव 2005 में आया था, जब इस विषय पर प्रशासनिक सुधार आयोग की पहली रिपोर्ट आई थी, लेकिन उसे अस्वीकार कर दिया गया था। यह भी कहा जाता है कि इस प्रस्ताव को इस प्रकार अस्वीकार किये जाने के जहां और कई कारण थे, वहीं एक कारण यह भी था कि इसको लेकर उच्च प्रशासनिक तंत्र आईएए लॉबी में कई तरह के संशय और भय व्याप्त थे। 2010 में दूसरी प्रशासनिक सुधार रिपोर्ट में फिर इस प्रकार के भर्ती की सिफारिश की गई, तब भी बात आगे नहीं ही बढ़ी। 2014 के बाद सरकार ने इस प्रस्ताव पर विचार के लिए एक कमेटी बनाई जिसने इसके क्रियान्वयन की संस्तुति की । फिर कुछ आंशिक बदलावों के साथ इसे स्वीकार कर लिया गया।
हर सरकार के कार्यकाल अपने पसंदीदा अफसरो के ग्रुप विकसित हो जाते हैं। यह कोई अनोखी बात नहीं है। भारत सरकार में उसके बड़े आकार और अलग कार्यशैली के कारण यह खेमेबाजी कम होती है जबकि राज्य सरकारों में यह एक सामान्य तंत्र बन गया है। बात नेता अफसर ट्यूनिंग की है। यह ट्यूनिंग अक्सर जातिगत, क्षेत्रीय और अन्य कारणों से जिसे आप वैचारिक भी कह सकते हैं हो सकती हैं। अफसरों की यह खेमेबंदी भी अफसरो के कैडर से ही होती है और उसमें भी वरिष्ठता और सेवा संवर्ग की पेंच रहती है। लेकिन लैटरल इंट्री ने एक नया रास्ता खोला है। वह रास्ता है सरकार द्वारा मनपसंद अफसर का चयन और वह भी खुले बाजार से। यह नौकरशाही का बाजारीकरण कहा जा सकता है। खुले बाजार से आने वाला अफसर सरकार के प्रति प्रतिबद्ध रहेगा या संविधान के प्रति यह तो जब ऐसे अफसरों का कामकाज देखा जाय तभी कुछ कहा जा सकता है।
दुनियाभर में एक स्थायी, प्रतियोगिता से चयनित और नियमित नौकरशाही की दीर्घ परम्परा चीन की रही है। वहां यह परंपरा 2000 साल पुरानी है। हमारे यहां यह परम्परा डेढ़ सौ साल पुरानी है। यह ब्रिटिश राज की देन है। अंग्रेजों ने अपनी हुक़ूमत को मजबूती और नियंत्रित रूप से चलाने के लिये पहले इंडियन सिविल सर्विस आईसीएस और पुलिस व्यवस्था के लिये इंडियन पुलिस आईपी का गठन किया जो आज़ादी के बाद आईएएस और आईपीएस में बदल गयी।
1947 के पहले हम ब्रिटिश उपनिवेश थे। पर आज़ादी के बाद जो संविधान बना उसका आधार कल्याणकारी राज्य बना। राज्य का उद्देश्य ही जनता का कल्याण बना और उसी को दृष्टिगत रखते हुए सरकारी योजनाओं को जनहित का रूप दिया गया। बदलते समय के साथ आईएएस का काम केवल कानून व्यवस्था और लगान वसूलना ही नहीं रहा, बल्कि वह सभी सरकारी योजनाओं और सामान्य प्रशासन का मुख्य केंद्र विंदु बन गया।
आज़ादी के बाद जब आईसीएस सेवा बनाये रखी जाय या उसे हटा दिया जाय पर बहस छिड़ी थी तो इसे बनाये रखने की सबसे पुरजोर वकालत सरदार पटेल ने ही की थी। वे एक ऐसी सेवा चाहते थे जो सरकार की राजनैतिक विचारधारा से निरपेक्ष केवल नियम कानून और संविधान के अनुरूप अपना काम करे और उसकी प्रतिबद्धता सरकार में शामिल राजनैतिक दल या दलों के प्रति नहीं बल्कि उस अमूर्त सरकार के प्रति हो जो संविधान के अनुसार चलने के लिये शपथबद्ध और प्रतिबद्ध है।
लैटरल इंट्री पर कुछ उचित शंकाएं भी उठ रही हैं। क्या लैटरल भर्ती से आने वाले नौकरशाह अमूर्त सरकार के प्रति प्रतिबद्ध होंगे या जिस दल की सरकार के कार्यकाल में वे चुने गए हैं उसके प्रति ?
यह कहा जा सकता है कि आज कल भी नौकरशाही राजनीतिक खेमेबाजी में बंट जाती है पर यह बात ध्यान देने की है कि पूरी नौकरशाही खेमे बाज़ी में नहीं बंटती है बल्कि कुछ अफसरों के समूह होते हैं। पर यहां यह संभावना अधिक है । क्योंकि लैटरल भर्ती में अफसर की नियुक्ति ही अल्प समय के लिये एक सरकार के कार्यकाल तक के लिये हो रही है। ऐसी नियुक्तियां अफसर को मानसिक रूप से एक सत्तारूढ़ दल और सरकार के प्रति प्रतिबद्ध तो बना सकती हैं पर अन्य सरकार तथा दलों के पति उनका रवैय्या विपरीत हो सकता है। इससे न केवल शिकायतें बढ़ेंगी बल्कि नौकरशाही एक खेमेबाजी में बंट जाएगी जो अनावश्यक रूप से एक शीतयुद्ध को जन्म दे सकता है। इसका सीधा असर सरकार के कामकाज पर पड़ेगा।
क्या तीन साल या पांच साल का कार्यकाल उन्हें सरकार की नौकरशाही की तरह विभिन्न विभागीय नियम उपनियम, मैनुअल आदि जो कार्य निष्पादन की स्थापित पद्धति है में पारंगत करने के लिये पर्याप्त है ?
यह संभव नहीं है। सीधी भर्ती से आने काले आईएएस जो ज्वाइंट मैजिस्ट्रेट से नौकरी शुरू करते हैं जब संयुक्त सचिव के पद पर पहुंचते हैं तो उन्हें विभिन्न विभागों में नियुक्ति के कारण सरकार, सचिवालय और फील्ड के काम का व्यापक अनुभव और पर्याप्त जानकारी हो जाती है, जो लैटरल भर्ती से आये अफसर को नहीं मिल पायेगी। अनुभव और काम की जानकारी का अभाव एक प्रकार की हीनग्रंथि भी विकसित कर सकती है। फिर ऐसा अफसर वही करेगा जो उसे कहा जायेगा। भले ही नियम और कानून प्रतिकूल राय रखते हों।
निजी क्षेत्रों या कॉरपोरेट से आये हुए ये अधिकारी क्या अपने अधीनस्थों का विश्वास भी उसी प्रकार से प्राप्त कर सकेंगे जो एक रेगुलर नौकरशाह जो मिलता है ?
यह एक बड़ा पेचीदा सवाल है। संयुक्त सचिव तो बन गए पर उसके नीचे, निदेशक, उप सचिव, सेक्शन अधिकारी, उस विभाग से जुड़े फील्ड के तमाम अधिकारियों का सहयोग जितना एक रेगुलर संयुक्त सचिव को मिलता है उतना तीन साल या पांच साल वाले संयुक्त सचिव को उपलब्ध नहीं होगा।
निजी क्षेत्र में सारे मातहत चाहे वे किसी भी बड़े पद पर हों उस कम्पनी के मालिक के प्रति वफादार होते हैं, जहां वे काम करते हैं। यह वफादारी काफी हद तक निजी हो जाती है। सारे नियम कानून कंपनी के मालिक चेयरमैन या एमडी की मर्ज़ी से कंपनी के हित मे बनते हैं और संशोधित होते हैं। कम्पनी का मूल उद्देश्य ही बाज़ार का विस्तार और लाभ का क्षेत्र बढाना होता है। कितना भी बड़ा अफसर हो अगर वह कंपनी का विस्तार नहीं कर सकता, मुनाफा नहीं कमवा सकता तो वह तुरंत भगा दिया जाता है। हायर और फायर निजी क्षेत्र का मूल मंत्र है। ऐसी स्थिति में ऐसे परिवेश से आया हुआ व्यक्ति एक व्यक्ति के प्रति ही प्रतिबद्ध रहने की मानसिकता का होगा न कि नियम कानून और संविधान के प्रति प्रतिबद्धता की मानसिकता का।
क्या चयन प्रक्रिया में समुचित पारदर्शिता कायम रहेगी ? अगर नहीं तो क्या इससे स्टीलफ्रेम कही जाने वाली देश की नौकरशाही का महत्व कम नहीं होगा ? खासकर जब ये नियुक्तियां राजनीतिक हस्तक्षेप से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पायेंगी तो। ऐसे असुविधाजनक सवालों के संदर्भ में सरकार कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दे पा रही हैं। इससे अभी से ही यह लगने लगा है कि यह व्यवस्था इतनी पारदर्शी नहीं होने जा रही कि लैटरल इंट्री संबंधी सरकार की नीति और नीयत को असंदिग्ध या सवालों से परे माना जा सके। वैसे भी दुनियाभर का कॉरपोरेट सेक्टर जैसी अनैतिक प्रवृत्तियों व प्रतिस्पर्धाओं को प्रोत्साहित करने के लिए बदनाम है, उसे देखते हुये कॉरपोरेट क्षेत्र से आने वाली ‘प्रतिभाओं’ की निष्ठाओं को इनसे अलग बताये जाने को लेकर शायद ही कोई आश्वस्त हो सके।
आईएएस एसोशिएशन की एक मीटिंग में टीएन शेषन को भी भाषण देने को बुलाया गया था। शेषन अपने दबंग और मुंहफट स्वभाव के लिये जाने जाते थे। उन्होंने तंज कसते हुए इस एलीट सेवा को कह दिया कि " ये वेश्या की तरह हैं जैसे पोलिटिकल बॉस कहता है वैसे ही लेट जाते हैं। " निश्चित ही यह कमेंट अभद्र और आपत्तिजनक था। इस पर प्रतिक्रिया भी हुयी। पर जब शेषन ने कहा कि मैं सबको नहीं कह रहा हूँ यह कुछ लोगों के लिये हैं। उनके कहने का आशय यह था कि नौकरशाही ही सारे कानूनों और नियमों को ताक पर रख कर राजनीतिक आकाओं के अनुसार दस्तावेज में हेराफेरी करते हैं।
आईएएस या समकक्ष सेवाओ में प्रतिभा की कमी नहीं है। प्रतिभा बराबर निखरती रहे इसके लिये समय समय पर ट्रेनिंग कोर्सेस भी कराए जाते हैं। यह बात सही है कि यह विशेषज्ञ सेवा नहीं है बल्कि यह एक सामान्य सेवा है। विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञों के पैनल बना कर उनसे राय ली जा सकती है पर उन्हें सीधे कुछ साल के लिये ही नियुक्त कर के सरकार भ्रम ही अधिक पैदा करेगी। सरकार और कॉरपोरेट का कार्य, उद्देश्य, कार्य संस्कृति और नियम कायदे अलग अलग होते हैं। उनकी मानसिकता अलग होती हैं। ऐसे संयुक्त सचिव हो सकता है खुद को ही ऐसे माहौल में असहज पायें। जब तक यह सिस्टम काम नहीं करने लगता तब तक इस भर्ती सिस्टम की सफलता का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है।
सेवा के नियमों के अनुसार जितना संरक्षण आईएएस तथा अन्य समकक्ष सेवाओ को कानून देता है, उसके बावजूद नौकरशाही पर यह आरोप लगता है कि नौकरशाही ने राजनीतिक आकाओं के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया है। यह एक सामान्य धारणा है। यह धारणा जब एक रेगुलर, और एक ऐसी नौकरशाही के प्रति है जो जन्म से ही सेवा में है तो लैटरल इंट्री वाले तीनसाला और पांचसाला नौकरशाह जो सरकार के ही रहमोकरम पर हैं से निष्पक्षता और विधिसम्मत कार्य करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है ?
जब देश की राजनीतिक सत्ताओं ने संवैधानिक कवच से सज्जित और संरक्षित स्टीलफ्रेम नौकरशाही को भी ‘झुकने को कहे जाने पर रेंगने लग जाने’ की नियति को प्राप्त करा दिया है तो ऐसी ‘निजी’ प्रतिभाओं को ‘इस्तेमाल’ करने में क्योंकर चूकेंगी, जो पहले से अपने मालिकों के स्वार्थों के अनुसार दायें-बांयें होने की अभ्यस्त हों !
© विजय शंकर सिंह
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