अगर किसान मरते हैं तो यह एक चुनावी मुद्दा बनता है, फिर अगर जवान मरते हैं तो यह चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बन सकता है ?
यह सुभाषित प्रधानमंत्री जी का है। किसानों के मरने से अर्थ किसानों की आत्महत्या है और जवानों के मरने का अभिप्राय जवानों की शहादत है। शायद यही नरेंद्र मोदी जी कहना चाहते हैं कि जब लोग किसानों की आत्महत्या को चुनावी मुद्दा बनाते हैं तो जवानों की शहादत को मुद्दा बनाने पर क्यों ऐतराज़ करते हैं ?
दरअसल मुद्दा किसानों की आत्महत्या नहीं है बल्कि वे परिस्थितियां हैं जिनसे मजबूर होकर किसान आत्महत्या करते हैं। क्या कभी सरकार ने पिछले पांच साल में कोई ऐसी स्टडी करायी है कि किन किन क्षेत्रो में किसानो की आत्महत्या दर क्या है ? आत्महत्या की मूल वजहें क्या रही हैं ? उन कारणों के पीछे सरकार की किन योजनाओं की विफलता रही है ? आत्महत्या न हो उसे रोकने के लिये क्या क्या कदम उठाये गये हैं ? किसानों के बड़े बड़े मार्च और आंदोलन जो महाराष्ट्र, राजस्थान और मध्यप्रदेश में पिछले पांच सालों में हुए उनके मूल कारण क्या थे ? उन आंदोलनों को समाप्त करने के लिये जो आश्वासन दिए गए उनमें से कितने पूरे हुए ? कितने पूरे नहीं हो पाए तो उनके क्या कारण थे ? 2014 के संकल्पपत्र में स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार किसानों को उनकी उपज का दाम देना था, वह क्यों नहीं हो पाया ? अब कहा जा रहा है कि 2022 तक किसानों की आय दुगुनी होगी तो यह लक्ष्य कैसे और किस रोडमैप से प्राप्त होगा ?
आत्महत्या के कारण इसी प्रश्नचिह्न के अंकुश में छिपे हैं जो सरकार, भाजपा और उसके समर्थकों को बराबर असहज करते हैं। मुद्दा किसान का मरना नहीं है मुद्दा उन व्याधियों और कारणों का समाधान है जिनसे किसान मरता है या आत्महत्या करता है । क्या इन सभी सवालों को मुद्दा बनाने और इस पर सरकार द्वारा ईमानदार जवाब देने को नरेंद्र मोदी चुनावी मुद्दा बना सकते हैं ?
जय किसान के बाद अब जय जवान की बात । जवान और किसान दोनों में कोई मौलिक अंतर नहीं है। दोनों एक ही परिवार से आते हैं। सामान्य कृषक परिवार से ही अधिकतर रिक्रूटमेंट फौज में होता है । पांच साल में जब यह चीखते हुए ताली पीट कर कहा जाता है कि पांच साल में कोई धमाका हुआ क्या ? तब अग्रिम पंक्ति में बैठे प्रायोजित समूह कहता है नहीं। फिर मोदी मोदी का समूह प्रायोजित घोष। लेकिन पांच सालों में तीन बड़े हमले हुए, पठानकोट, उरी और पुलवामा। सरकार के खाते में दो सर्जिकल स्ट्राइक भी दर्ज है। उरी और बालाकोट । मैं इन सर्जिकल स्ट्राइक में हुयी दुश्मन की जनहानि की कोई चर्चा नहीं कर रहा हूँ। क्योंकि यह सर्जिकल स्ट्राइक इन हमलों का ही बदला था। लेकिन बदला तभी तो हुआ जब उस बदले के पहले कोई घटना हुयी। अगर पठानकोट, उरी और पुलवामा जैसी बड़े स्केल पर घटनाएं नहीं हुयी होतीं तो यह दोनों सर्जिकल स्ट्राइक जिसे सबसे बड़ी सैन्य उपलब्धि कह कर आत्ममुग्ध हुआ जा रहा है, नहीं करनी पड़ती । गाड़ी के आगे घोड़ा रखा जाता है गाड़ी के पीछे नहीं ।
पुलवामा के शहीदों के नाम वोट मांगने के पहले क्या क्षण मात्र के लिये भी प्रधानमंत्री जी और सरकार के मन मे यह सवाल कौंधा कि आखिर यह घटना हुयी क्यों ? क्या इसे रोका जा सकता था ? अगर रोका जा सकता था तो क्यों नहीं रोका गया ? जिन लोगों पर इस काफिले को अपने प्रारंभ से अंत तक सुरक्षित पहुचाने की जिम्मेदारी थी, क्या उन्हें इसके बारे में कोई अग्रिम अभिसूचना एलर्ट मिला था ? क्या एलर्ट पर जो कार्यवाही की जानी चाहिये थी वह की गयी ? अगर नहीं की गयी तो कौन उसके लिये जिम्मेदार है और उसके खिलाफ कोई कार्यवाही क्यों नहीं की गयी ? एक उपद्रवग्रस्त और अशांत क्षेत्र में इतनी लंबी दूरी के काफिले को सड़क मार्ग के बजाय हवाई मार्ग से ले जाने के विकल्प पर क्यों नहीं विचार किया गया ?
हो सकता है इन सारे सवालों पर सरकार ने जांच करायी हो या जांच हो रही हो, पर यह सवाल कोई उपलब्धि नहीं है बल्कि सुरक्षा चूक हैं और यह एक गंभीर सुरक्षा चूक है । जब कोई अपनी ही गलती से 40 शहीदों के शव के नाम पर खुल कर वोट मांगता है तो उसे क्या कहा जाय ? यह निकम्मापन ही नहीं है, निंदनीय ही नहीं है बल्कि यह बेहद घटिया और निकृष्ट हरकत है। आज तक दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में हमले में अपनी ही गलतियों से मारे गए अपने ही सुरक्षा बलों के शहीदों के नाम पर किसी भी राजनेता ने वोट नहीं मांगे होंगे।
होना तो यह चाहिये था कि घटना के दिन ही तुरन्त सरकार इस सुरक्षा चूक की जिम्मेदारी लेती, और जो भी जिम्मेदार होतें उनके खिलाफ जांच के बाद कार्यवाही की जाती। चूक की जिम्मेदारी लेना सरकार को एक जिम्मेदार सरकार के रूप में जनता के सामने रखता । दुनियाभर में शायद ही कोई सरकार ऐसी हो जिससे प्रशासनिक और राजनीतिक चूकें न हुयी हों। पर चूक की जिम्मेदारी से भागना कायरता है, क्लीवता है। अब जिस प्रकार पुलवामा के शहीदों के नाम पर वोट मांगा जा रहा है उससे तो यही लगता है कि अगर सौभाग्य से पुलवामा हमला न हुआ होता या यह विफल हो जाता और 40 जवान बच जाते तो, फिर पीएम किस मुद्दे पर वोट मांगते ? काम कुछ भी नहीं हुआ है क्या ?
सरकार, मृत्यु के नाम पर तो वोट न मांगिये । वोट ज़िंदगी के नाम पर मांगिये। मरने को तो 150 लोग नोटबन्दी की लाइनों में खड़े खड़े परलोक सिधार गये। पर पीएम को खुशी इसी बात की रही कि ' शादी है और घर मे पैसे नहीं।' कुछ सेकंड की यह क्लिप और इसमें प्रधानमंत्री जी की विद्रूपता भरी हंसी, मैं बहुत चाहता हूं कि मेरे जेहन से उतर जाए पर उतरती ही नहीं है। कभी इन 150 अभागो के प्रति सहानुभूति और नोटबंदी के दौरान हुए बैंकिंग असुविधा के लिये भी बोल दिया गया होता तो लगता कि सरकार कुछ न कुछ और कहीं न कहीं संवेदनशील है। हमेशा धमाके, दंगे और मौत ही क्यों कुछ लोगों के वोट मांगने का आधार बनता है ? जीवन, मनुष्य की प्रगतिशीलता और उसके बेहतर जीवन के लिये किये गए प्रयास क्यों नहीं वोट मांगने के मुद्दे बनते है ? मनुर्भव !
© विजय शंकर सिंह
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