सभी सरकारी विभागों में पुलिस ही एक ऐसा विभाग है जो सबसे अधिक निंदित और आलोचना के केंद्र में रहता है। सम्मान भी पाता है पर वह सम्मान कब असम्मान में बदल जाय, कहा नहीं जा सकता है। कल जब से प्रज्ञा ठाकुर ने यह रहस्य खोला है कि उन्हें पुलिस पूछताछ के दौरान अमानवीय यातनायें दी गयी हैं कुछ लोग पुलिस के इस अमानवीय स्वरूप और भूमिका के खिलाफ हो गए हैं। जागरूक नागरिक जब इस कदर जागरूक हो जांय कि वे पुलिस कस्टडी में होने वाले पूछताछ के दौरान की जाने वाली मारपीट की घटनाओं पर विरोध में खुल कर बोलने लगे तो यह एक अच्छा संकेत है। पुलिसजन भी कोई जल्लाद और दैत्य तो हैं नहीं और न सैडिस्ट हैं कि किसी को यातनाएं देकर उन्हें शांति मिलती हैं। वे भी पढ़े लिखे, कानून की धाराओं के बारे में जानकारी रखने वाले लोग होते हैं। अच्छे परिवारों से हैं और प्रतिभासंपन्न भी हैं।
फिर पुलिसजन यह थर्ड डिग्री का प्रयोग करते क्यों हैं ? निजी दुश्मनी ? या सरकार या राज्यहित ? या वरिष्ठ अफसरों का दबाव ? या अपराध के बढ़ने से जो डांट फटकार ऊपर से पड़ती है उसका फ्रस्ट्रेशन ? या यह भी एक मनोरोग है ? या जहां कानून कमज़ोर हो जाता है इसलिए वहां यह गैर कानूनी काम पुलिस करती है ? या किसी खास मामले में कोई राजनीतिक दबाव होता है ? या फिर धन का लालच ?
इसके अलावा कोई और कारण हो तो आप उसे जोड़ सकते हैं। लेकिन यह स्वीकार करने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि पुलिस थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करती है और यह दुनिया भर की पुलिस करती है। सीबीआई, एनआईए तो करती ही है। अन्य एजेंसियां भी थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करती है। पर हम सबकी नजर में हैं तो निशाने पर भी हैं। दुनियाभर की पुलिस के पास तो हमारे यहां के मुकाबले यातना देने और सच उगलवाने के नये नये वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक तरीके और उपकरण भी उपलब्ध हैं । आप की रुचि हो तो आप उसे गूगल कर सकते हैं।
प्रज्ञा ठाकुर के ही सन्दर्भ में यह आलेख है। उन्ही के आरोप पर यह लिखने की मुझे सूझी कि अपने अधीनस्थ साथियों को यह बता दूं कि अब वे इस थर्ड डिग्री के थर्ड क्लास मानसिकता से बाहर आये। लोग बाहर आ भी रहे हैं। सरकार और पुलिस के बड़े अधिकारी भी अक्सर इस तरह के सर्कुलर जारी करते रहते हैं कि पुलिस थाने पर यातनाएं न दी जांय। पुलिस कस्टडी में इन यातनाओं से कोई कैदी मरने न पाए। हो सकता है लोगों को यह जानकारी न हो कि पुलिस कस्टडी में होने वाली मृत्यु सबसे गम्भीर अपराध माना जाता है। पर ऐसा है। किसी भी थाने में पुलिस कस्टडी में अगर मृत्यु होती है तो सबसे पहले वहां का थानाध्यक्ष निलंबित होता है और उसके खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज होता है। वह जेल भी जाता है। फिर वह अपना मुकदमा अकेले अपने पैसे से लड़ता है और कुछ तो तबाह भी हो जाते हैं। फिर उसके साथ न नेता रहता है न अफसर।
अब आप पूछेंगे कि फिर क्या ज़रूरत है यह खतरा उठाने की और मुल्ज़िम को यातना देने की ? इसका जवाब तो केस दर केस अलग अलग ही दिया जा सकता है। कुछ कारणों को मैंने ऊपर के पैरे में लिख दिया है।
पुलिस कस्टडी में यातना न हो इसके लिये कानूनी सावधानियां भी रखी गयीं हैं। जब भी अभियुक्त मजिस्ट्रेट के सामने जाएगा तो मैजिस्ट्रेट उससे पुलिस दुर्व्यवहार के बारे में पूछता है। शिकायत होने पर मेडिकल कराता है। जेल में जाने पर जेल के डॉक्टर से परीक्षण होता है। जब पुलिस कस्टडी रिमांड मिलता है तो मेडिकल परीक्षण करा कर के मुल्ज़िम लिया जाता है और मेडिकल परीक्षण करा के ही वापस जेल में भेजा जाता है। इतने सारे कानूनी और मेडिकल प्रतिबन्धों के बाद कोई यह कहे कि उसकी दस हड्डी टूट गयी और बीस हड्डी टूट गयी तो उस पर एक प्रोफेशनल पुलिस अफसर होने के कारण यकीन करना मुश्किल है।
अपशब्द और गाली गलौज आदि से शारीरिक चोट तो नहीं पहुंचती पर मानसिक और भावनात्मक घाव ज़रूर लगता है। अगर कोई संवेदनशील स्वभाव का है तो वह यह भुला भी नहीं पाता है। साथ ही यह किसी मेडिकल जांच में भी नहीं आता। इसके लिये मैं यही कहूंगा कि मुल्ज़िम से पूछताछ हो तो सच तक पहुंचने और सुबूत जुटाने के लिये कभी कभी सख्ती भी ज़रूरी है । सख्ती तो लाल लाल आंख दिखा कर और हड़का कर ही की जा सकती है। पर अगर इसपर भी जनता को ऐतराज़ है तो हर मुल्ज़िम से यही पूछा जाए कि ' सर आप उस मामले में थे। ' वह कहेगा ' नहीं। ' फिर दरोगा जी पूछेंगे ' आर यू श्योर सर ? ' वह कंधे उचका कर कहेगा, ' हां, बिलकुल। ' फिर दूसरे दिन एक पर्चा कटेगा कि पूछताछ में मुल्ज़िम ने कुछ नहीं बताया और फिर दूसरे दिन ही मुल्ज़िम रिहा। यह एक आदर्श पुलिसिंग है, परम मानवीय पुलिसिंग है और सत्ययुगीन पुलिसिंग है। पर हमें यह नहीं मालूम कि इसका क्या परिणाम आगे चल कर अपराध और कानून व्यवस्था पर पड़ेगा !
प्रज्ञा सिंह को दी गयी यातनाओं की जांच होनी चाहिये। मुल्ज़िम चाहे आतंकी घटना का हो या जेनक़तरी का उसके मानवाधिकार सुरक्षित हैं । जब भी प्रज्ञा ठाकुर को गिरफ्तार किया गया होगा तो उनका मेडिकल भी कराया गया होगा, पुलिस कस्टडी रिमांड के पहले भी मेडिकल कराया गया होगा और बाद में भी, हर बार मैजिस्ट्रेट ने उनसे पुलिस व्यवहार के बारे में पूछा भी होगा। इन्होंने भी अपनी व्यथा बतायी होगी। वह सब अदालत के अभिलेख में होंगे। राज्य और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग दोनों ही इस मामले में जांच करने का अधिकार रखते हैं। आयोग उन सभी पुलिस कर्मियों से जिन्होंने पूछताछ की है उनसे यातनाओं के बारे में पूछताछ कर सकता है और आरोप सही पाए जाने पर उनके खिलाफ कार्यवाही भी की जा सकती है। हेमंत करकरे अब इस संसार मे नहीं हैं। वह एटीएस प्रमुख थे इसका मतलब यह नहीं कि सारी गालियां मारपीट उन्होंने ने ही की होगी। पूछताछ के लिये पूरी इंटोरेगेशन टीम होती है जो पूछताछ करती है। उनमें से ऐसे बहुत से अफसर होंगे जो अभी सेवा में होंगे, और जो सेवा में नहीं होंगे उनसे भी इस मामले में पूछताछ और जांच की जा सकती है। जांच के बाद मुकदमा कायम किया जा सकता है। मैं समझता हूं कि प्रज्ञा ठाकुर की पीड़ा एक राष्ट्रीय आपदा बन गयी है। लोग उत्तेजित और उद्वेलित हैं। अचानक एक नायक, खलनायक के रूप में देखा जाने लगा है। प्रधानमंत्री स्वयं इस पीड़ा से मर्माहत हैं और वे चाहते हैं कि इसका समाधान हो। तो, पहले इसी आपदा का समाधान ज़रूरी है कि जिन्होंने इन साध्वी को यातना दी है उनके खिलाफ कार्यवाही की जाय। सौभाग्य से महाराष्ट्र में भाजपा सरकार है और उसे यह काम प्राथमिकता के आधार पर कर लेना चाहिये।
अपने पुलिस सेवाकाल में मैं थर्ड डिग्री के इस्तेमाल के स्वभावतः विरुद्ध रहा हूँ। मार पीट, गाली गलौज मेरी आदत में तब भी नहीं रहा है जब मैं वर्दी पहनता था, अब भी नहीं है जब वर्दी नहीं पहनता हूँ । लेकिन तब थर्ड डिग्री के सैद्धांतिक विरोध में होने के बावजूद मैं यह मानता था कि कहीं न कहीं या किसी न किसी केस में थर्ड डिग्री का इस्तेमाल ज़रूरी है। विशेषकर उन मामलों में जिनमे सुबूत सीधे तौर पर उपलब्ध नहीं है और कहीं न कहीं षडयंत्र के तार फैले है। तब थोड़ी सख्ती ज़रूरी हो जाती है। लेकिन अगर आप एक आदर्श स्थिति की बात कीजिएगा तो कानून इस थोड़ी सी सख्ती की भी इज़ाजत नहीं देता है।
अब, जब एक आतंकी हमले में शहीद हुए आईजी के बारे में, उसके शहादत के दस साल बाद, एक अभियुक्त से, जो आतंकी अपराध में ट्रायल झेल रही है, से यह सुनना पड़ रहा है कि उसकी दी गयी यातनाओं के कारण ही, मुल्ज़िम के श्राप से पुलिस वाला मर गया तो अच्छा नहीं लगता है। यह कैसा श्राप है जो पाकिस्तान से हमलावर लाता है और मुल्ज़िम को यातना देने वाला अकेले ही नहीं बीस पुलिसजन समेत 200 नागरिक को मार डालता है। श्राप भी सीधे जैश ए मोहम्मद को ही लाता है।भारतीय वांग्मय में सबसे अधिक श्राप की कथाएँ दुर्वासा ऋषि से जुड़ी है। वे तो राह चलते शाप दे देते थे। उनके शाप से देवता भी डरते थे। पर उन्होंने भी शापो के इतिहास में ऐसे शाप नहीं दिये होंगे। पर इधर प्रज्ञा ठाकुर का श्राप निकला और उधर जैश ए मोहम्मद दरियापार से उतर आया और जो हुआ हम सबने टीवी पर दस साल पहले लाइव देखा ही है। जिन्होंने नहीं देखा है वे यूट्यूब पर अब भी देख सकते हैं।
जब जनता की यह इच्छा जागृत हो ही गयी है कि पुलिस कस्टडी में थर्ड डिग्री बंद होनी चाहिये तो अब मेरे यूनिफार्म के साथियों को चाहिये कि वे इसे बंद कर दें। सीआरपीसी में सारे प्राविधान गिरफ्तारी, तलाशी और जब्ती के दिये गए हैं। जैसा कानून कहता है ठीक वैसा ही करें। मारना पीटना, गाली गलौज देना बंद कर दें और बिना इसकी चिंता किये कि मुकदमा खुलेगा या नहीं खुलेगा, सुबूत मिलेगा या नहीं मिलेगा, मुल्ज़िम सच बोलेगा या नहीं बोलेगा, अदालत मुकदमा छोड़ेगी या सज़ा देगी। शराफत से पूछताछ करें और जो भी पता लगे उसे वैसे ही लिख कर अदालत को बढ़ा दें। अब खतरा उठा कर पूछताछ करने की ज़रूरत नहीं है। क्या पता कब कौन आतंकी घटनाओं में लिप्त मुल्ज़िम देश का मंत्री बनने की योग्यता हासिल कर ले। या अपने और अपने मित्रों के खिलाफ दर्ज उन गम्भीर अपराधों को, जिनकी विवेचना बड़ी मेहनत से कर के चार्जशीट दायर की गयी है को एक सनक भरे आदेश से वापस ले ले। गैर कानूनी काम करने से बचें। टिटिहरी की इस मनोवृत्ति से दूर होइए कि आप के दम पर समाज मे अमन चैन है। इस मुगालते में न आइए कि अगर आप मारपीट नहीं कीजिएगा तो अपराध नहीं थमेगा। जब चारों ओर से हमले होने लगें और लोगो की नजरें आप पर मुसलसल गड़ी हों तो वही कीजिये जो कानून की किताब में लिखा है। बिल्कुल निष्काम भाव से फल की चिंता किये बगैर। कम से कम शापग्रस्त होने से तो बचिएगा ।
© विजय शंकर सिंह
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