Thursday, 18 April 2019

प्रेस की आज़ादी के इंडेक्स में हम थोड़ा और लुढ़के ! / विजय शंकर सिंह

जहां प्रेस कभी एक मिशन रहा हो और, लोकमान्य तिलक के केसरी, महात्मा गांधी का यंग इंडियन, गणेश शंकर विद्यार्थी के प्रताप जैसे अखबारों ने ब्रिटिश साम्राज्य की कभी नींद हराम कर रखी हो, जिस देश की संस्कृति में ईश्वर की आलोचना और निंदा को कभी किसी अपराध की श्रेणी में न रखा गया हो, आज़ादी की लड़ाई के दौरान, जहां तमाम अखबारों ने देश के स्वतंत्रता संग्राम को अलग धार दी हो, वहीं का प्रेस, अब अपनी आज़ादी नहीं बचा पा रहा है और जी जहाँपनाह के मोड़ में आ गया है ! इस पर भी  विडंबना यह कि यह आज़ादी कोई औए छीन नहीं रहा है, खुद ही हांथ बांध कर प्रेस लेटने की मुद्रा में हो जा रहा हैं। यह बात हैरान भी करती है और दुखी भी।

स्क्रॉल की एक खबर के अनुसार, ‘रिपोर्ट्स विदआउट बॉर्डर्स’ की सालाना रिपोर्ट में भारत प्रेस की आजादी के मामले में दो पायदान खिसक गया है। 180 देशों में भारत का स्थान 140 वां है। दक्षिण एशिया में प्रेस की आजादी के मामले में पाकिस्तान तीन पायदान लुढ़कर 142 वें स्थान पर है जबकि बांग्लादेश चार पायदान लुढ़कर 150 वें स्थान पर है । नॉर्वे लगातार तीसरे साल पहले पायदान पर है, जबकि फिनलैंड दूसरे स्थान पर है। फिनलैंड दुनिया का सबसे खुशहाल मुल्क भी है। क्या प्रेस की आज़ादी से समाज की खुशहाली का भी कोई सम्बंध है ?

गुरुवार 18 अप्रैल को जारी एक रिपोर्ट में भारत में चल रहे चुनाव प्रचार के दौर को पत्रकारों के लिए खासतौर पर खतरनाक वक्त के तौर पर चिन्हित किया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में प्रेस स्वतंत्रता की वर्तमान स्थिति में से पत्रकारों के खिलाफ हिंसक वातावरण है। इसमें पुलिस की हिंसा, माओवादियों के हमले, अपराधी समूहों या राजनीतिज्ञों का प्रतिशोध शामिल है। इस अध्ययन के अनुसार, 2018 में अपने काम की वजह से भारत में कम से कम छह पत्रकारों की जान गई है। रिपोर्ट में भारत में धर्मांधता विरोध के विषयों पर बोलने या लिखने वाले पत्रकारों के खिलाफ सोशल मीडिया पर चल रहे घृणित अभियानों पर भी चिंता जताई गई है।

प्रेस की आज़ादी पर सूचकांक जारी करने वाला यह संस्थान ‘रिपोर्टर्स सैन्स फ्रंटियर्स’ (आरएसएफ) या ‘रिपोर्ट्स विदआउट बॉर्डर्स’ एक गैर लाभकारी संगठन है, जो दुनिया भर के पत्रकारों पर हमलों का दस्तावेजीकरण करता है। इस संस्थान का मुख्यालय पेरिस में है। 2019 के लिये जारी सूचकांक में संगठन ने पाया कि पत्रकारों के खिलाफ घृणा हिंसा में बदल गई है और इससे पूरी दुनिया भर के पत्रकारों में डर बढ़ा है।

भारत मे प्रेस का लुढ़कना साफ साफ दिख भी रहा है। जिन पत्रकारों ने कभी 2000 के नोट में चिप औ न जाने किन किन इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेस की खोज कर ली थी वे आज भी बिना अपनी इस कल्पना पर क्षमा मांगे बेशर्मी से अपने काम पर लगे हैं। न्यूज़ एंकर जो डिबेट का संचालन करते हैं वे बिना किसी हिचक के एक दल के साथ खड़े दिखते हैं। ऐसे महत्वपूर्ण घटनाक्रम जिनसे सत्तारूढ़ दल असहज हो सकता है जानबूझकर कर बहस से बाहर रखे जाते हैं। यह पत्रकार की मजबूरी है या उस मीडिया हाउस की रणनीति या वैचारिक प्रतिबद्धता या आर्थिक विवशता, यह मुझे पता नहीं है।

एक स्पष्टवक्ता और पेशेवराना सोच वाला पत्रकार आम जनता को छोड़ कर किसी को भी रास नहीं आता। कभी कभी उस संस्थान को भी नहीं जिसके लिये वह काम करता है। इसका कारण, आर्थिक दबाव भी हो सकता है और वैचारिक रुझान भी। लेकिन स्वतंत्र पत्रकारिता जिसे लोकतंत्र में चौथा खम्भा कहा जाता है का क्षरण या क्लीवता अगर इसी प्रकार पतनोन्मुख बनी रही तो लोकतंत्र को ही विकलांग बना देगी। दुनियाभर की सरकारें आज़ाद प्रेस से डरती हैं क्योंकि उनके पास छुपाने को बहुत होता है। हाल ही में विकीलीक्स के जूलियस असांजे की शातिराना गिरफ्तारी यह बात प्रमाणित करती है कि परिपक्व लोकतंत्र का मुखौटा ओढ़े, विभिन्न सुभाषितों को अपना प्रेरणा आधार बनाने वाली लोकशाही के अनेक झंडाबरदार जब कोई नक़ाब उतारता है तो कैसे असहज और नंगे हो जाते हैं।

लेकिन सोशल मीडिया के प्रसार ने परंपरागत मीडिया को एक जबरदस्त चुनौती दी है। हालांकि फेक खबरें, फ़ोटो शॉप की गई तस्वीरों से संक्रमित यह माध्यम भी सद्यःविश्वसनीय नहीं रहा फिर भी खबरों में जो पकड़, पैनापन और साफगोई होनी चाहिये वह इसमे है। प्रेस की आज़ादी की बात जब की जाती है तो वह पत्रकार या अखबार की आज़ादी ही नहीं है बल्कि वह जनता को स्वर देने की आज़ादी है। सत्ता की आलोचना और निंदा करने की आज़ादी है। इस लुढ़कते इंडेक्स से अगर यह आभास होता है प्रेस सरीसृप हो रहा है तो इसका एक अर्थ यह भी है कि वह हम सबकी आवाज़ को जो मुखरता देनी चाहिये नहीं दे पा रहा है।

फिर भी कुछ लोग, और कुछ संस्थान इस लुढ़काव के बावजूद अपने पेशे को मिशन के रूप में लेकर जनपक्षधरिता की पत्रकारिता कर रहे हैं। उनके हौसले और प्रोफेशनलिज़्म की सराहना की जानी चाहिये। निदा फ़ाज़ली साहब के शब्दों में कहूँ तो,
जिन चिरागों को हवा का कोई खौफ नहीं,
उन चिरागों को हवाओं से बचाया जाय !!

© विजय शंकर सिंह

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