Monday, 29 April 2019

कानून के प्रति बढ़ता अवज्ञा भाव / विजय शंकर सिंह

हाल ही के दिनों में एक और प्रवित्ति जड़ जमा रही है और वह प्रवित्ति है कानून के प्रति अवज्ञा का भाव। सरकार अमूर्त होती है और वह अहर्निश गतिशील रहती है। सरकार से यहां मेरा आशय प्रधानमंत्री या मंत्रिमंडल से नहीं बल्कि उस तंत्र से है जो विभिन्न नियमों और कानूनों के अनुसार सदैव चलता रहता है। जिन कानूनों के आधार पर सरकार गतिशील रहती है वे ही कानून मूल रूप से सर्वोच्च होते हैं। तरह तरह के कानूनों के बीच सबसे महत्वपूर्ण कानून देश का संविधान होता है। देश मे कोई भी कानून चाहे वह कितना भी महत्वपूर्ण और आवश्यक क्यों न हो, पर संविधान के कानूनी प्राविधानों के विपरीत नहीं बन सकता है। अगर ऐसा कोई कानून विधायिका बना भी दे तो न्यायालय उस कानून को रद्द कर सकती है और ऐसे उदाहरण हैं भी। खुद संविधान में भी उसके मूल ढांचे से इतर उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। इसका सीधा अर्थ यह है कि कोई भी पद या व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं होता है और वह चाहे जितना भी ऊपर हो, कानून उसके ऊपर है। सरकार या किसी भी व्यक्ति को कानून के प्रति अवज्ञाभाव नहीं रखना चाहिये।


संविधान में ही सरकार के विभिन्न अंग बिना राजनीतिक स्वार्थ हित के अपने दायित्व का निर्वहन कर सकें इसलिए महत्वपूर्ण संस्थाओं जैसे न्यायपालिका, रिज़र्व बैंक, कम्पट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया, लोकसेवा आयोग, निर्वाचन आयोग आदि का गठन करके उनको मौलिक शक्तियां दी गयी है। इस संस्थाओं को सरकार के नियंत्रण के बाहर रखा गया है ताकि सरकार जो किसी न किसी राजनीतिक दल की ही होगी, के राजनीतिक स्वार्थ से मुक्त होकर वे अपने दायित्वों का निर्वहन कर सके। इसीलिए उनकी नियुक्ति भले ही सरकार करती है पर उन्हें निर्धारित अवधि के पूर्व पद से हटाने का कोई भी प्राविधान सरकार के पास नहीं है। पर सरकार कभी कभी इन संस्थाओं की स्वतंत्रता के विरुद्ध भी कुछ ऐसे निर्णय ले लेती है जिससे विवाद उत्पन्न हो जाता है।

कुछ हफ्ते पहले जब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई के विरुद्ध यौन उत्पीड़न का आरोप जब एक महिला ने लगाया तो इस घटना ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी। जज भी मनुष्य होते हैं। वे भी चारित्रिक रूप से फिसल सकते हैं और किसी भी अपराध के बारे में यह धारणा बना बैठना कि अमुक पद पर बैठे व्यक्ति से कोई अपराध नहीं हो सकता, अपराधों को पूर्वाग्रह की दृष्टि से देखना होगा। इस आरोप ने न केवल देश की सबसे अदालत के सबसे बड़े जज को सन्देहों के घेरे में ला दिया, बल्कि उनके समक्ष यह चुनौती भी खड़ी कर दी कि वे कैसे इस आरोप से बिना विधि की मर्यादा भंग किये न्यायपूर्ण तरीके से स्वच्छ होकर सामने आते हैं। किसी भी सत्ता, या संवैधानिक संस्थान की साख, क्षमता, और न्यायिक आधार की परख संकट काल मे ही होती है। चाहे वह सरकार की सत्ता हो या कोई भी संवैधानिक संस्थान। सुप्रीम कोर्ट ने तीन जजों की एक पीठ का गठन किया है और देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआई, एनआईए, और दिल्ली पुलिस को इस मामले की जांच करने को कहा है, साथ ही सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस एके पटनायक को इस जांच की निगरानी का काम सौंपा है। अभी जांच चल रही है।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह चुनौती इसलिए भी सबसे बड़ी है कि वह सभी कानूनों की व्याख्या और उसे लागू करने के लिये अंतिम और सर्वाधिकार सम्पन्न संस्था है। इस जांच में जो भी कार्यवाही होगी वह भविष्य में होने वाली ऐसी शिकायतों के जांच के लिये नज़ीर भी बनेगी। सुप्रीम कोर्ट के जज साहबान को इस आरोप की गम्भीरता का एहसास है।

सुप्रीम कोर्ट सबसे अधिक अधिकार सम्पन्न संवैधानिक संस्था है और संविधान के अंतर्गत इसे असीमित अधिकार प्राप्त हैं। लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई भरी अदालत में न्यायपीठ पर बैठ कर यह कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को धन और अधिकार के बल पर निष्क्रिय करने की चाल चली जा रही है तब चिंतित होना स्वाभाविक है। आज सबसे आखरी शरणस्थली न्यायपालिका है। न केवल मुकदमों के संबंध में बल्कि जनहित याचिकाओं के रूप में जनता को एक ऐसा तंत्र सुलभ है जो जनता को उनका असल अधिकार दिला सकता है और किसी भी प्रशासनिक और सत्ता के दमन के खिलाफ उपलब्ध एक सबल मंच है। अब जब सुप्रीम कोर्ट के जजों को यह आभास हो गया है कि वे धनबल, राजबल, और ऐश्वर्यबल के शातिर निशाने पर हैं तो उन्हें अपने संस्थान को ऐसे आघात से बचाने के लिये सन्नद्ध रहना चाहिये, और उम्मीद है वे होंगे भी।

अब एक और संवैधानिक संस्था रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया की बात करें। आरबीआई देश का सेंट्रल बैंक है और बैंकिंग व्यवस्था को तो नियंत्रित करता ही है बल्कि वह देश की अर्थव्यवस्था में मौद्रिक अनुशासन को बनाये रखता है। 8 नवम्बर 2016 को रात 8 बजे प्रधानमंत्री ने जिस नोटबंदी की घोषणा की वह कार्य मूल रूप से आरबीआई का था। पर अब जब बहुत सी बातें सामने आ गयीं हैं तो यह स्पष्ट हो गया है कि यह निर्णय केवल प्रधानमंत्री और उनके बेहद नज़दीक कुछ लोगों का था। आरबीआई को यह आदेश पालन करने के लिये कहा गया। परिणामस्वरूप बिना किसी तैयारी के की गयी इस नोटबंदी ने प्रशासनिक दुरवस्था के कीर्तिमान गढ़ दिए और 150 लोग इस प्रशासनिक दुरवस्था के शिकार हो मर गए। नोटबंदी के समय इसके घोषित लक्ष्य काला धन, नक़ली मुद्रा का चलन, और आतंकी फंडिंग पर लेशमात्र भी फर्क नहीं पड़ा। बदलते गोलपोस्ट की तरह लेशकैश और कैशलेस के जुमले भी हवा हो गए। अब जो खुलासे हो रहे हैं उनसे यह लगता है यह एक सोचा समझा घोटाला है जिसकी जानकारी रिज़र्व बैंक को नहीं थी। नोटबंदी का कोई भी लाभ देश को नहीं हुआ बल्कि इससे विकास की गति प्रभावित हुयी, औद्योगिक उत्पादन में कमी आयी और 4 करोड़ लोग बेरोजगार हो गए।

इसका एक कुप्रभाव यह हुआ कि आर्थिक क्षेत्र में मंदी जैसे हालात बन गए और तभी बिना किसी तैयारी के लागू की गयी जीएसटी कर प्रणाली ने नोटबंदी से आहत हो रही अर्थगति को और नुकसान पहुंचा दिया । इससे कर संग्रह घटा, व्यापार और राजकोषीय घाटा बढ़ा, अंत मे तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार को आरबीआई के रिज़र्व धन की ज़रूरत पड़ने लगी। नोटबंदी पर साष्टांग हुये आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर की अंतरात्मा जागृत हुयी और उन्होंने त्यागपत्र दे दिया फिर आरबीआई के इतिहास में जो कभी नहीं हुआ वह हुआ। आरबीआई अधिनियम के आपात प्राविधान के अंतर्गत सरकार ने रिजर्व फंड से पैसा लिया। यह एक और संस्था की अवज्ञा थी।

सीबीआई कोई संवैधानिक संस्था नहीं है। यह संस्था सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण जांच एजेंसी होने के कारण अनेक संवैधानिक संस्थाओं से भी अधिक महत्व रखती है। सीबीआई में भी सरकार ने उसके अंदरूनी झगड़े में जैसे कदम उठाए उससे यह साफ लगा कि सरकार कानून के प्रति अवज्ञाभाव से ग्रसित है। इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा और सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद सीबीआई की स्थिति भले ही पटरी पर आ गयी हो, पर अंततः सीबीआई की जो साख गिरी वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।

एक अन्य जांच एजेंसी एनआईए की स्थिति भी बहुत संतोषजनक नहीं है। एनआईए, आतंकी घटनाओं और बड़े संगठित अपराधों की विवेचना के लिये गठित की गयी है। पर इधर समझौता धमाका सहित कुछ अन्य मामलों में इस जांच एजेंसी की जांचों पर जो सवाल अदालतों ने उठाये हैं उनसे यह साफ दिखता है कि यह एजेंसी अपराधों की विवेचना के प्रति कोई प्रोफेशनल दृष्टिकोण न रख कर सत्ता के लाभ हित से प्रेरित होकर अपना काम करती है। समझौता ब्लास्ट के फैसले में मुल्ज़िम के छूटने पर एनआईए ने बड़ी अदालत में अपील करने से मना कर दिया, क्योंकि सभी मुल्ज़िम संघ और सत्तारुढ़ दल से जुड़े हैं। इसी प्रकार गुजरात मे जिन मामलों में अमित शाह मुल्ज़िम हैं उनमें भी सीबीआई ने बड़ी अदालतों में नियमानुसार अपील करने से मना कर दिया। दोनों ही एजेंसियों का यह कदम उनके स्वतंत्र और प्रोफेशनल होने पर सवाल खड़े करता है। ऐसा करके जांच एजेंसियों ने खुद ही निर्धारित कानूनी प्रक्रिया की अवहेलना और अवेज्ञा की।

चुनाव के समय सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वाचन आयोग की होती है। चुनाव की घोषणा से लेकर परिणामो की घोषणा होने तक आयोग की भूमिका न केवल सबसे महत्वपूर्ण होती है बल्कि वह हर व्यक्ति, हर दल और मीडिया के नज़र में रहती है। आयोग सबकी आलोचना के निशाने पर तो रहता ही है और वह एक  मानसिक दबाव में भी रहता है कि उसके फैसलों पर कोई सवाल न उठे।

किसी भी संस्था के साख की परख, संकट काल मे ही होती है। संकट काल से अर्थ जब वह संस्था ऐसी स्थिति में हो कि उसके फैसले से देश के भविष्य या हालात पर असर पड़ सके। आजकल सबसे अधिक साख के सवाल से निर्वाचन आयोग जूझ रहा है। निष्पक्ष निर्वाचन के लिये संविधान की धारा 224 में उसे असीमित शक्तियां प्राप्त हैं और वर्तमान आयोग के पूर्व जब टीएन शेषन और लिंगदोह मुख्य निर्वाचन आयुक्त थे तो उन्होनें उन शक्तियों का उपयोग करके चुनाव के दौरान होने वाले कदाचार को काफी हद तक रोका भी था। आयोग की तब हैसियत धमक और धाक थी। पर आज उन्ही शक्तियों के रहते आयोग रोज ही किसी न किसी की आलोचना झेल रहा है। अंत मे जब आयोग की अकर्मण्यता का मामला सुप्रीम कोर्ट गया तो, सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप पर आयोग ने कार्यवाही की। आज भी आयोग के पास प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष के खिलाफ आचार संहिता उल्लंघन के 35 मामले लंबित है और आयोग ने कोई कार्यवाही नहीं की। एक बार तो यह खबर आयी कि किसी तकनीकी खराबी से पीएम के खिलाफ सभी शिकायतें डेटा बेस से उड़ गयीं हैं। अब यह मामला फिर सुप्रीम कोर्ट विरोधी दलों द्वारा ले जाया जा रहा है।

अक्सर यह सवाल उठता है कि जब संवैधानिक संस्थाओं के प्रमुखो को संविधान ने खुद ही पर्याप्त संरक्षण दे रखा है तो ये अफसर सरकार या सत्तारूढ़ दल के इशारे पर अपने संस्थान को क्यों गिरवी रख देते हैं ? यह पुराना एहसान है या भविष्य में कुछ बेहतर प्राप्त होने की आशा। संविधान निर्माता यह जानते थे कि सत्तारूढ़ दल इन संस्थानों पर अपना नियंत्रण ज़रूर रखना चाहेंगे तभी उन्होंने इन संस्थानों को यह संरक्षण प्रदान किया है। लेकिन आज भी और पहले भी जो भी सरकार रही हो वह जब मज़बूत और तानाशाही प्रवित्ति की रही है तो संस्थाओं ने मुश्किल से ही प्रतिरोध किया है। लोकतंत्र का अर्थ संसद और लोकसभा का चुनाव ही नहीं होता है बल्कि इसका अर्थ सभी संवैधानिक संस्थाओं का विधिपूर्वक काम करना है। अब यह गुरुतर दायित्व इन संस्थाओं के प्रमुखों का है कि वे अपने अधिकार और शक्तियों का कैसे निर्वहन करते हैं जिससे देश, लोकतंत्र और उनकी खुद की गरिमा बनी रहे।

आज सुप्रीम कोर्ट पर सवाल उठ रहे हैं, आरबीआई में जो हुआ है वह सबको ज्ञात है, कंट्रोलर और ऑडिटर जनरल ( सीएजी ) पर भी राफेल मामले में सरकार ने उसे सुप्रीम कोर्ट में अपनी दलीलों और हलफनामे से असहज किया, निर्वाचन आयोग तो प्रत्यक्षतः सरकार और सत्तारूढ़ दल के दबाव में दिख ही रहा है, जांच एजेंसियों की तफ़्तीशें गैर प्रोफेशनल तरह से की जा रही है, मीडिया लगभग मैनेज है, यह तो भला हो सोशल मीडिया, कुछ मीडिया संस्थानों और अखबारों का कि कुछ छुप नहीं पा रहा है, संघ लोकसेवा आयोग पर भी उंगली उठने ही वाली है अभी लैटरल इंट्री वाले संयुक्त सचिवों की नियुक्ति पर लोगों का ध्यान तो जाने दीजिए। यह स्थिति इसलिए उतपन्न हो रही है कि राजनीतिक स्वार्थ पर जहां जो भी कानून बाधा बन रहा है उसकी अवज्ञा की जा रही है और यह प्रवित्ति जब सरकार में बैठे वरिष्ठतम लोगो की हो चली है तो कानून की धज्जियां उड़ेंगी ही। अक्सर कहा जाता है कि कानून सबके लिये बराबर है, पर कानून तभी तक दम खम रखता है जब तक कि उसका पालन हो और उसे उसी के प्राविधानों के अनुसार समाज मे लागू किया जाय। अन्यथा वह केवल नियम उपनियम अधिनियम आदि का पुलिंदा बनकर रह जायेगा । कानून के प्रति बढ़ते अवज्ञाभाव को रोकने की जिम्मेदारी उन संस्थाओं पर अधिक है जो इन कानूनों को लागू करने के लिये संविधान की तरफ से अधिकृत और शक्तिसम्पन हैं । कानून के प्रति बढ़ता हुआ यह  अवज्ञाभाव लोकतंत्र, समाज और देश तीनो के लिये हानिकारक है।

© विजय शंकर सिंह

Saturday, 27 April 2019

डॉ मनमोहन सिंह का दैनिक भास्कर को दिया गया इंटरव्यू पढें / विजय शंकर सिंह

डॉ मनमोहन सिंह, 2004 से 2014 तक देश के प्रधानमंत्री रहे हैं। जिन परिस्थितियों में वे अचानक यूपीए प्रथम के प्रधानमंत्री पद के लिये यूपीए संसदीय दल के नेता चयनित हुये वह तत्कालीन राजनीतिक माहौल में एक अराजनीतिक दृश्य था। वे अचानक नेपथ्य से आ गये। हालांकि उसके पहले भी वह 1991 में वे देश के वित्त मंत्री रह चुके थे। उसके पहले आरबीआई के गवर्नर और वित्तमंत्री के आर्थिक सलाहकार भी थे। मूलतः वह एक शिक्षक थे जिनकी आज भी, अर्थशास्त्र पर मजबूत अकादमिक पकड़ है। वे भारतीय अर्थव्यवस्था में खुलापन लाने के लिये सराहे जाते हैं। मनमोहन सिंह अर्थशास्त्र में भी दक्षिणपंथी या पूंजीवादी खेमे के माने जाते हैं।

इधर प्रधानमंत्री नरेंद मोदी के कुछ इंटरव्यू ज़रूर मीडिया में आये हैं पर वे एक प्रधानमंत्री के इंटरव्यू के बजाय नरेंद मोदी के निजी इंटरव्यू अधिक रहे हैं। किसी भी साक्षात्कारकर्ता ने उनसे 2014 के किये गए वादों, संकल्पपत्र में दिये गए संकल्पों, बढ़ती बेरोज़गारी, गिरती जीडीपी, बिगड़ती बैंकिंग व्यवस्था, गिरता औद्योगिक सूचकांक, मंदी जैसी सुगबुगाहट, आतंकवाद, पठानकोट, उरी और पुलवामा की सुरक्षा चूकों पर सवाल नहीं पूछे। सवाल भी उनकी रुचियां, खाने की आदत, ऊर्जा का स्तर, जैसे निजी सवाल पूछे गये। इन सवालों के पूछे जाने पर कोई आपत्ति नहीं है, पर जब राजनीति का निर्णायक महापर्व चल रहा हो, तब जनता, सरकार और अर्थनीति से जुड़े मुद्दों को नजरअंदाज कर देना न तो उचित है और न ही पत्रकारिता के मानदंडों के अनुरूप है।

डॉ मनमोहन सिंह का यह इंटरव्यू अराजनीतिक इंटरव्यू नहीं है। एक कुशल अर्थशास्त्री की तरह उन्होंने देश के आर्थिक हालात पर अपनी राय प्रोफेशनल तरह से रखी। यह इंटरव्यू दैनिक भास्कर से साभार लिया गया है।
अब आप इंटरव्यू पढिये।

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह मोदी सरकार के कामकाज को एक अर्थशास्त्री के नजरिए से भी आंकते हैं। उनका कहना है कि 10 साल गठबंधन सरकार चलाने के बावजूद हम भारत को मजबूत वृद्धि दर देने में सफल रहे। अगर मोदी सरकार की तरह हमारे पास पूर्ण बहुमत होता तो हम आर्थिक वृद्धि दर दो अंकों तक ले जाते। यूपीए के 10 साल में औसत वृद्धि दर 8.1% रही। इसके विपरीत पूर्ण बहुमत के बावजूद मोदी सरकार पिछले पांच साल में 8% का आंकड़ा नहीं छू सकी।

87 साल के डाॅ. सिंह लोकतांत्रिक संस्थाओं पर सरकारी हमलों और दोषपूर्ण नीतियों से आहत हैं। लोकसभा चुनाव के लिए जारी महासंग्राम में वे बेशक प्रचार नहीं कर रहे, लेकिन देश के माहौल और मुद्दों पर उनकी बारीक नजर लगातार बनी हुई है। मीडिया की सुर्खियों से दूर रहने वाले डाॅ. सिंह से भास्कर के राजनीतिक संपादक हेमंत अत्री की विशेष बातचीत...

सवाल : आप भी प्रधानमंत्री मोदी की तरह सामान्य परिवार से हैं, लेकिन आपने इसे चर्चा का मुद्दा नहीं बनाया, क्यों?
जवाब : कई महान नेता सामान्य परिवार से ही थे। लालबहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई भी गरीब परिवारों से आए, लेकिन उन्होंने कभी आत्मप्रचार के लिए अपनी गरीबी और कठोर हालात पर डींगें नहीं हांकीं। मोदी देश के पहले पीएम हैं, जिनका जन्म आजादी के बाद हुआ है। यह हमारे राष्ट्र निर्माताओं की नीतियों का ही फल है, जिनके कारण न केवल आर्थिक विकास हुआ, बल्कि सबको प्रगति के समान अवसर भी मिले।

सवाल : अर्थशास्त्री के रूप में आप एनडीए सरकार का आकलन कैसे करेंगे? आपकी नजर में इस सरकार की सबसे बड़ी कामयाबी और सबसे बड़ी नाकामी क्या है?
जवाब :मौजूदा सरकार के पास नए सुधार शुरू करने के लिए पूर्ण बहुमत था, लेकिन ऐसा करने में वह पूरी तरह नाकाम रही। इस सरकार की सबसे बड़ी विफलता रोजगार के मोर्चे पर है। दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधार शुरू करने के बजाय नोटबंदी और त्रुटिपूर्ण जीएसटी लागू करने जैसे विध्वंसक और नासमझी वाले फैसले लिए। परिणाम यह है कि 4 करोड़ लोग नौकरी गंवा चुके हैं। बेरोजगारी दर 45 सालों में सर्वाधिक है। आर्थिक वृद्धि दर 5 साल में सबसे कम है और गणना का तरीका बदलने के बावजूद औसत जीडीपी निराशाजनक और शंकापूर्ण है। 2018 में औद्योगिक वृद्धि दर 4.45% रही, जबकि यूपीए सरकार के 2004-14 के कार्यकाल में यह 8.35% थी। इस सरकार में कृषि वृद्धि दर सिर्फ 2.9% है, जबकि हमारे 10 सालों में 4.2% थी। घरेलू बचत पिछले 20 साल में सबसे कम है। बैंकों के एनपीए 5 गुना बढ़ गए हैं। नया निवेश 14 सालों में न्यूनतम स्तर पर है। भाजपा ने भविष्य के लिए संस्थान बनाने की बात कही थी, लेकिन मुझे कहते हुए पीड़ा हो रही है कि 70 सालों के इतिहास में मोदी सरकार संस्थानों के लिए सबसे विनाशकारी साबित हुई है।

सवाल : अर्थव्यवस्था पर न्याय याेजना का क्या असर पड़ेगा?
जवाब : इसके दो मुख्य उद्देश्य हैं। पहला- गरीबी काे पूरी तरह से खत्म करना। दूसरा- अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना। आजादी के समय देश में 70% गरीब थे। 7 दशकों की नीतियों के कारण अब 20% गरीब बचे हंै। यह सही समय है, जब हम न्याय योजना के जरिए एक ही झटके में गरीबी को मिटा सकते हैं। इससे भारत में नए युग का सूत्रपात होगा। रही बात योजना पर खर्च की तो यह जीडीपी का 1.2 से 1.5% तक होगा। इसके लिए कोई नया टैक्स लगाने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी।

सवाल : चुनाव से पहले मोदी की बायोपिक बनी। कांग्रेस के खिलाफ एक्सीडेंटल पीएम फिल्म आई। कैसा लगा?
जवाब :भाजपा ने हमारी सरकार की ऐसी तस्वीर पेश की, जो सच्चाई से कोसों दूर थी। सच्चाई यह थी कि हमने 14 करोड़ लोगों को गरीबी से निकाला, जो इतनी कम अवधि में एक रिकाॅर्ड है। विश्वस्तरीय हवाई अड्‌डे, हाईवे और मेट्रो सिस्टम बनाए। जहां तक फिल्म की बात है तो हम कला की आजादी का सम्मान करते हैं। लोग इस सबके पीछे की सच्चाई अच्छे से समझते हैं।

सवाल : कांग्रेस सत्ता में आई तो क्या दोबारा पीएम बनना चाहेंगे?
जवाब : मैंने 10 साल तक अपनी सभी योग्यताओं के दम पर सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास किया। मैं सार्वजनिक जीवन में बना रहूंगा। लेकिन, अब युवाओं को नेतृत्व देना चाहिए। मैं केंद्र में कांग्रेस की एक उन्नतीशील, लिबरल और लोकतांत्रिक सरकार देखना चाहता हूं।

सवाल : कांग्रेस सरकार बनी ताे सबसे बड़ा सुधार क्या करेंगे?
जवाब : कांग्रेस ने नया जीएसटी-2 लागू करने का वादा किया है। नया जीएसटी सभी सामानों व सेवाओं पर एक, मध्यम और टैक्स की स्टैंडर्ड दर पर आधारित होगा ना कि मौजूदा सरकार की मल्टीपल टैक्स दरों पर।

सवाल : आपको क्या लगता है, मोदी सरकार को एक और मौका नहीं मिलना चाहिए?
जवाब : मौजूदा सरकार के शासन में देश ने देखा कि संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता को किस तरह समाप्त कर दिया गया। सत्तारूढ ताकतों ने योजनाबद्ध ढंग से इन्हें कमजोर किया है। हमें संवैधानिक संस्थाओं व समाज पर हो रहे हमले से प्रभावी ढंग से लड़ना होगा वरना इतिहास हमें माफ नहीं करेगा।

सवाल : अगर माेदी की तरह आपकोे पूर्ण बहुमत से सरकार चलाने का माैका मिला हाेता ताे ऐसा क्या करते?
जवाब : देखिए, गठबंधन सरकार होने के बावजूद हम भारत को एक मजबूत वृद्धि दर देने में सफल रहे। हमारे पास मौजूदा सरकार जैसा पूर्ण बहुमत होता तो हम आर्थिक वृद्धि दर को न केवल दो अंकों तक ले जाने का लक्ष्य रखते, बल्कि उसे पूरा भी करते। भाजपा सरकार ने सुधारों की सूई को वापस मोड़ दिया है। हमारी अर्थव्यवस्था अभी ओवर रेग्यूलेटेड है। सरकारी नियंत्रण बहुत ज्यादा है। आर्थिक नीतियों में अदालती हस्तक्षेप बढ़ रहा है। कांग्रेस का आर्थिक दर्शन खुली और लिबरल मार्केट अर्थव्यवस्था के जरिए वैल्थ क्रिएशन का है।

सवाल : आप खुद को कैसे याद किया जाना पसंद करेंगे? एक अर्थशास्त्री, प्रधानमंत्री या विश्वस्तरीय शिक्षाविद के रूप में?
जवाब : सरकार से बाहर होने के पांच साल बाद भी मैं कह सकता हूं कि देश के लोग अब भी हमारे काम को याद करते हैं। इतिहास हमारे प्रति दयालु रहा है। यूपीए सरकार एक दशक तक निरंतर अधिकतम वृद्धि दर और इतने कम समय में 14 करोड़ लोगों को गरीबी से निजात दिलाने के लिए याद की जाएगी। यह एक टीम एफर्ट था। मैंने हर भूमिका को अपनी सर्वश्रेष्ठ योग्यता के साथ निभाते हुए न्याय की कोशिश की है।

सवाल : काेई ऐसा काम, जाे आपको लगता हाे कि माेदी सरकार ने सबसे अच्छा किया और आप नहीं कर पाए? साथ ही ऐसा कुछ जो वो कर सकती थी, पर नहीं कर पाई?
जवाब : मोदी सरकार ने पिछली सरकारों द्वारा शुरू किए गए सुधारों को गति ना देकर बदलाव का सुनहरा अवसर गंवा दिया। वह अपने पूर्ण बहुमत का प्रयोग करके काफी कुछ कर सकती थी। इस सरकार में कुछ बैंकिंग सुधार जरूर हुए हैं, लेकिन वे अभी काफी आरंभिक चरण में ही हैं।

सवाल : क्या आपको लगता है कि गठबंधन सरकार विकास में बाधक है?
जवाब : मैं इस आकलन से बिल्कुल असहमत हूं। अतीत में हमारे यहां गठबंधन सरकारें रहीं हैं जिनके शासनकाल में वृद्धि दर बहुमत वाली सरकारों के समय से कहीं अधिक रही है। यूपीए शासन के दस साल में औसत वृद्धि दर 8.1% रही। इसके विपरीत पूर्ण बहुमत के बावजूद भाजपा सरकार पिछले पांच साल में 8% का आंकड़ा कभी नहीं छू सकी। कांग्रेस शासन में समाज कल्याण कार्यक्रमों मसलन मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा के अधिकार एवं वन अधिकार संभव हो सके क्योंकि इन्हें लागू करने से पहले बड़े पैमाने पर लोगों से राय ली गई। पिछले पांच सालों में यह अप्रोच गायब है। प्रदेशों की वित्तीय स्वायत्ता और संघीय ढांचे को काफी हद तक अंडर माइन किया गया है क्योंकि केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली स्वेच्छाचारी सरकार सत्तारूढ है।  गठबंधन सरकार में फैसले लेते समय चैक एवं बैलेंस निरंतर बने रहते हैं जिसके कारण फैसले ज्यादा लोकतांत्रिक व सावधानी से होते हैं। मौजूदा भाजपा सरकार में देखा गया है कि बड़े फैसलों के बारे में भी कैबिनेट मंत्रियों तक को जानकारी नहीं होती।

सवाल : क्या आपको लगता है कि मोदी सरकार रोजगार देने में नाकाम रही है?
जवाब : मोदी जी ने दो करोड़ रोजगार हर साल देने का वादा करके सत्ता हासिल की थी लेकिन उनकी नीतियों के कारण युवाओं के चार करोड़ रोजगार जा चुके हैं। सरकारी सर्वेक्षणों को पर्दे के पीछे छिपाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। कड़वी सच्चाई यह है कि बेरोजगारी की दर फिलहाल 6.1 फीसदी है जो पिछले 45 सालों में सर्वाधिक है।

सवाल : कांग्रेस का आरोप है कि नोटबंदी के दौरान करोड़ों रुपए के काले धन को सफेद में बदला गया, आप आरबीआई के गवर्नर भी रहे हैं। आपको क्या लगता है, ऐसा संभव है?
जवाब : नोटबंदी की वास्तविक सच्चाई यह है कि यह जानबूझकर की गई एक ऐतिहासिक विफलता थी। ऐसे कई खुलासे हो चुके हैं जिनसे यह साबित हो गया कि नोटबंदी, कालेधन को सफेद करने की एक संदिग्ध योजना थी। एक तरफ जहां बैंकों के बाहर लाइनों में खड़े होकर 120 लोगों ने जानें गंवा दीं वहीं दूसरी ओर मोदी सरकार की नाक के ठीक नीचे पुराने नोटों को नए नोटों में बदलने की समानांतर कालाबाजारी जारी रही।
( साभार दैनिक भास्कर )

( विजय शंकर सिंह )