Monday, 8 October 2018

पुलिस मुठभेड़, अपराध नियंत्रण और आत्मरक्षा का अधिकार - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

मुझे लगता है पुलिस मुठभेड़ें जब से पुलिस बनी होगी तब से ही लोगों की निंदा, आलोचना और चर्चा का विषय रही होंगी। 1861 में पुलिस अधिनियम बनने और आपराधिक कानून ( भारतीय दंड संहिता आईपीसी, दंड प्रक्रिया संहिता सीआरपीसी और भारतीय साक्ष्य अधिनियम लॉ ऑफ एविडेन्स ) के संहिताबद्ध होने के बाद आधुनिक पुलिस का जन्म हुआ। 1861 के अधिनियम बदले तो नहीं पर तब से पुलिस व्यवस्था के बारे में काफी परिवर्तन हो गया है। ऐसा समय समय पर पुलिस सुधार के लिए गठित किये गए आयोगों की संस्तुतियों पर अमल करने के कारण हुआ। तब से प्रशिक्षण के ढंग बदले गये, भर्ती की प्रक्रिया में भी परिवर्तन हुआ और बल को आधुनिक बनाने के लिये सरकार ने कई योजनाएं भी चलायी। अब भी विभाग अपने स्तर से पुलिस सेवा को बेहतर बनाने के लिये प्रयास करता रहता है।


पुलिस में एक बड़ी समस्या राजनीतिक दखलंदाजी की भी है। पर यह आरोप दुधारी तलवार की तरह है। जब राजनीतिक दखलंदाजी हमारे हित मे होती है तब हम उसकी सराहना करते हैं, पर जब राजनीतिक दखलंदाजी हमारे हितों के विपरीत होने लगती है तो यह सबसे बड़े आरोप और आक्षेप के रूप में इसे हम अपनी अकर्मण्यता और कमी को छुपाने के लिए गढ़ लेते हैं। पुलिस को राजनीतिक दखलंदाजी से दूर रखने के लिये महत्वपूर्ण पदों पर एक तयशुदा समय तक अधिकारी रहें, राजनीतिक हित और स्वार्थ से पुलिस अधिकारियों का स्थानांतरण न हो सके इसके लिये पुलिस सुधारों को लागू करने के लिये यूपी के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर रखी है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने स्थानांतरण नीति बनाने, एक तयशुदा कार्यकाल रखने का निर्देश सहित अन्य निर्देश दिए थे लेकिन किसी भी प्रदेश की सरकार ने इनपर कोई उल्लेखनीय कार्यवाही आज तक नहीं की। आज भी कहने के लिये सरकारों की स्थानांतरण नीति है, सिविल सेवा कार्मिक बोर्ड है पर वह राजनीतिक दखलंदाजी से मुक्त आज भी नहीं है। अस्सी से भी अधिक आयु पूरी कर चुकने के बाद भी प्रकाश सिंह सर अभी चुके नहीं है और वह आज भी अपने इस मुहिम में पूरी लगन और निष्ठा के साथ जुटे हुए हैं। लेकिन अधिकतर राजनीतिक दल इन सुधारों के पक्ष में नहीं है। एक कर्तव्यनिष्ठ, निष्ठावान और विधिसम्मत योग्य पुलिस और अफसर अधिकतर राजनेताओं को रास नहीं आता है।

पुलिस पर राजनीतिक दखल कितना हो और किस प्रकार का हो यह एक विवाद का विषय रहा है। पुराने अधिकारी बताते हैं कि 1980 से पहले राजनीतिक दखलंदाजी नहीं थी। थी भी तो बेहद वरिष्ठ स्तर पर थी पर थाने के कामकाज में किसी नेता का दखल कम ही होता था। राजनीतिक दखलंदाजी के बारे में एक बात स्पष्ट है कि हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं। इस व्यवस्था में जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है और उस प्रतिनिधि का यह भी दायित्व है कि वह जनता की पुलिस से जुड़ी समस्याओं के लिये थाने से लेकर ऊपर तक उनकी बात रखे और काम कराये। एक बड़े नेता ने मुझसे एक अनौपचारिक और निजी बातचीत में एक बार कहा था कि " नेता तो सिफारिश करेंगे ही, थाने जाएंगे आप लोगों से मिलेंगे और अपने काम के लिये कहेंगे। पर यह काम कितना विधिसम्मत है और कितना पुलिस के अधिकार क्षेत्र के अंदर या बाहर है, उस सिफारिश पर क्या करना है और क्या नहीं करना है यह तय करना आप के अधिकारी का काम है। " बात बहुत साफ ढंग से कही गयी है। पर व्यवहारतः ऐसा होता नहीं है। कुछ अपवाद होंगे पर अधिकतर सत्तारूढ़ दल के नेता ( जब जो भी दल सत्ता में हो ) पुलिस को अपने अधीनस्थ एक विभाग समझते हैं। वेवे यह भूल जाते हैं कि यह एक ऐसा विभाग है जो किसी के अधीन नहीं है। यह संविधान द्वारा बनाये गए कानूनों के कानूनी रूप से पालन कराने के लिये प्रतिबद्ध और शपथबद्ध है। यही बात केरल हाईकोर्ट ने वहां के डीजीपी शिवकुमार द्वारा एक याचिका के फैसले में कहा है। लेकिन यह इतना उन्मुक्त और स्वेच्छाचारी भी नहीं है। पुलिस के प्रशासनिक नियंत्रण का दायित्व तो सरकार का है ही, पर इसके कानूनी दायित्व के ऊपर अदालतों का दखल होता है। सरकार यह तो तय करेगी ही कि कौन कहां किस पद पर, कब तक रहे और कब तक न रहे, पर किस मुक़दमे की विवेचना में क्या हो और कानून व्यवस्था की किस समस्या से कैसे निपटा जाय यह तो पुलिस तंत्र का ही दायित्व है जो एक तयशुदा कानून के अनुसार ही तय होना है। अब यह सरकार का दायित्व है कि वह पुलिस को कैसे सत्तारूढ़ दल की राजनीतिक दखलंदाजी से दूर रखें और जिस काम के लिये पुलिस का गठन हुआ है वह विधिवत पूरा हो।

1980 का दौर उत्तरप्रदेश के पुलिस इतिहास में मुठभेड़ों का दौर रहा है। 1980 से लेकर 1985 तक प्रदेश में मुठभेड़ों की संख्या बहुत बढ़ गयी थी। उसका कारण भी था आगरा, अलीगढ़, कानपुर, बुंदेलखंड आदि इलाक़ो में सक्रिय दस्यु गिरोहों की संख्या बहुत बढ़ गयी थी। वीपी सिंह यूपी के मुख्यमंत्री थे।  इन्हें गिरफ्तार करना कठिन था। ये सभी दुर्दांत दस्यु थे। 1981 में एटा जिले के इंसपेक्टर अलीगंज समेत 6 पुलिसजनों की निर्मम हत्या कर दी गयी थी। उत्तरप्रदेश के 12 जिलों को डिस्टर्ब घोषित करके पुलिस को विशेष सुविधा और संसाधन दिये गए थे। ये दस्यु गिरोह कतिपय राजनीतिक दलों से भी सम्बद्ध और संरक्षित थे। यह दौर चार पांच साल चला। इनकी जब भी गिरफ्तारी का प्रयास होता था तो निश्चित रूप से पुलिस पार्टी पर हमले होते थे और दस्यु मारे जाते थे। पुलिस के भी कई जवान और अधिकारी शहीद होते थे। पर उस दौर में भी फर्जी मुठभेड़ों की शिकायतें खूब होती थीं और कुछ की सीबीसीआईडी से जांच भी होती थी और पुलिसकर्मियों को जेल तो जाना ही पड़ा था बल्कि कुछ को तो सुप्रीम कोर्ट से सज़ा भी मिली । कुछ मुठभेड़ों के कारण सरकार और पुलिस की किरकिरी भी खूब हुयी और मानवाधिकार आयोगों ने अनेक मामलों का स्वतः संज्ञान भी लिया।

2017 में जब उत्तरप्रदेश में भाजपा सरकार आयी तो सरकारी आंकड़ों के अनुसार, अब तक पुलिस मुठभेड़ों की 1142 घटनाएं हुयी हैं जिनमे 34 मुल्ज़िम मारे गए और 4 पुलिस के जवान भी शहीद हुए। इन मुठभेड़ों में कुछ मुठभेड़ें ऐसी रहीं जिन पर फर्जी मुठभेड़ होने का आरोप लगा। उनकी जांच भी चल रही है। अपराध नियंत्रण में मुठभेड़ों की तात्कालिक भूमिका तो होती है क्यों कि एक भय का वातावरण अपराधियों में बन जाता है कि पुलिस पकड़ेगी तो, मार देगी पर जब उन्ही मुठभेड़ों में कोई मुठभेड़ किसी निर्दोष व्यक्ति की हो जाती है तो उससे पुलिस की साख और क्षवि पर जो धब्बा लगता है वह सारी उपलब्धियों को मिटा देता है। पुलिस की सारी ताकत उस क्षवि के सुधार पर लग जाती है। विवेक तिवारी हत्याकांड से उपजे विवाद को आप एक उदाहरण के रूप में देख सकते हैं। इन विवादों से विभाग को भारी हानि पहुंचती है। हम सांप सीढ़ी के खेल की तरह 95 से अचानक 8 पर आ जाते हैं। विवाद का अजगर पुलिस की साख को निगल लेता है और एक एक सीढी ऊपर चढ़ने की मेहनत और प्रतिष्ठा अचानक धूलि धूसरित हो जाती है।  हम अचानक हत्यारों को पकड़ने और उन्हें सजा दिलाने की एक एजेंसी के बजाय खुद ही हत्यारों के एक गिरोह के रूप में देखे जाने लगते हैं और अचानक शापित हो जाते हैं।

मुठभेड़ें भी एक विधिसम्मत दायित्व हैं। मुठभेड़ का अर्थ आम तौर पर यह समझा जाने लगा है कि अपराधी को पकड़ो और मार दो। जबकि ऐसा नहीं। जब भी किसी वांछित अभियुक्त या अपराध करने जा रहे अभियुक्त की गिरफ्तारी हेतु पुलिस जाती है और जब पुलिस पर अपराधी तत्वों द्वारा हमला हो जाता है तो पुलिस दल आत्मरक्षा में उसके हमले का जवाब देता है और तब इस हमले में पुलिसजन भी घायल या मर सकते है और अपराधी भी। यही प्रक्रिया सामान्यतः पुलिस मुठभेड़ कही जाती है। आत्मरक्षा का अधिकार इस मुठभेड़ का मूल होता है। यह अधिकार कानून ने सभी नागरिकों को दिए हैं। भारतीय दण्ड संहिता की 96 से लेकर 106 तक की धाराओं में हर एक व्यक्ति को आत्मरक्षा का अधिकार दिया गया है। लेकिन यह अधिकार आत्मरक्षा का ही है, किसी को दंडित करने या उसकी हत्या करने का नहीं है।
यानी आप ख़ुद को तो बचा सकते हैं पर, सामने वाले व्यक्ति को यदि वह दुर्दांत अधिकारी भी हो तो, दण्ड नहीं दे सकते। दण्ड देना क़ानून का काम है। जिसकी एक निर्धारित प्रक्रिया है।

विवेक तिवारी हत्याकांड में आत्मरक्षा के अधिकार पर बहुत सी बातें अखबारों और सोशल मीडिया में हो रही है। लेकिन यह अधिकार भी सभी अधिकारों की तरह अबाध नहीं है, इस पर भी पर्याप्त नियंत्रण कानून ने रखं रखे हैं।
फिर यह सवाल उठता है कि किन परिस्थितियों में हम अपने आत्मरक्षा के अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं ?
कानून के अनुसार, अपनी संपत्ति की रक्षा, चोरी, डकैती, शरारत व अपराधिक गतिविधियों के खिलाफ आत्मरक्षा का अधिकार दिया गया है।
आईपीसी की धारा 103 के मुताबिक लूट, रात में घर में सेंधमारी, आगजनी, चोरी जैसी किसी भी स्थिति में अगर जान का खतरा हुआ तो आक्रमणकारी की हत्या करना भी ग़लत नहीं होगा।  कानून इसका अधिकार देता है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी आत्मरक्षा के अधिकार से जुडे मामले में एक निर्णय के दौरान यह टिप्पणी की है कि,
'कानून का पालन करने वाले लोगों को कायर बने रहने की जरूरत नहीं है, ख़ासकर तब, जबकि आपके ऊपर गैरक़ानूनी तरीके से हमला किया जाए।' 
समाज का कायर होना समाज के लिये किसी अभिशाप से कम नहीं हैं।

न्यायमूर्ति पीपी नावलेकर और न्यायमूर्ति लोकेश्वर पंटा की खंडपीठ ने पंजाब के एक व्यक्ति अंतराम की हत्या के दोषी बाबूराम और इंद्रराज को आजीवन कारावास की सजा देने के फैसले को दरकिनार करते हुए यह व्यवस्था दी है और इनके कृत्य को जिसमे एक व्यक्ति की मृत्यु हो गयी थी को आत्मरक्षा के अधिकार के अंतर्गत माना है। प्रकरण इस प्रकार है। पंजाब के रहने वाले एक व्यक्ति अंतराम ने तीन मार्च 1993 को एक अन्य व्यक्ति इंद्रराज पर हमला किया तो इन्द्रराज ने अपने बचाव में अंतराम का प्रतिरोध किया। यही नहीं उसकी पत्नी माया भी अपने पति के ऊपर हुए हमले के बचाव में आयी । बाबूराम नामक एक अन्य व्यक्ति ने भी इन्द्रराज का साथ दिया । जिससे अंतराम जो हमलावर था उसकी मृत्यु हो गयी। पुलिस ने अंतराम की हत्या के आरोप में इन्द्रराज और बाबूराम को हत्या का मुल्ज़िम बनाया पर अंततः सुप्रीम कोर्ट ने इन्द्रराज और बाबूराम को आत्मरक्षा के अधिकार का लाभ दिया और हत्याकांड से बरी कर दिया।
आत्मरक्षा के अधिकार की सबसे बड़ी विसंगति यह है कि यह अधिकार जैसे ही हमलावर द्वारा हमले की गुरुता कम होती जाती है यह अधिकार भी क्षीण होता जाता है। इस अधिकार की आड़ में किसी हमलावर की हत्या इस अधिकार से आच्छादित नहीं होता है। हमले की गुरुता के सापेक्ष ही यह अधिकार होता है।

मुठभेड़ों की एक त्रासदी भी है। जब स्थिति बहुत ही विकट होती है तो पुलिस सख्ती और मुठभेड़ को जनता और सरकार की सराहना भी खूब मिलती है और सरकार या सत्तारूढ़ दल सुधरी हुयी स्थिति का क्रेडिट भी लेने लगते है पर जैसे ही कानून व्यवस्था सामान्य होंने लगती है, वही सराही हुयी पुलिस अपनी उन ज्यादतियों के लिये कानून के कठघरे में होती है और तब उसके साथ न जनता होती है न सरकार न नेता। यह एक कटु सत्य है। पंजाब का आतंकवाद और उसके दमन के बाद की स्थिति का आप जब अध्ययन करेंगे तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे। पूर्व डीजीपी रिबेरो और केपीएस गिल की आत्मकथा पढिये तो पुलिस की यह व्यथा स्पष्ट हो जाएगी।

पुलिस सरकार की तरफ से भय उत्पन्न करने वाली एजेंसी नहीं है। लाल पगड़ी का रुतबा, और हुज़ूर का इकबाल एक सामंती मनोवृत्ति का द्योतक है और यह मनोवृत्ति अब अतीत हो गयी है। अब कानून का भय होना चाहिये। यह अलग बात है कि पुलिस के डंडे का भय कानून के भय के ऊपर है। एक सामान्य विश्वास हावी होता जा रहा है कि अदालत में तो कुछ होना नहीं है तो, जो थाने में मारपीट हो जाय वही सज़ा मानिए। यह एक दुःखद स्थिति है। लेकिन इस स्थिति के लिये अकेले पुलिस तंत्र को ही दोषी ठहराना अनुचित होगा। पुलिस आपराधिक न्याय प्रणाली जिसमे पुलिस अभियोजन और न्यायालय तीनों ही आता है को समान रूप से इस दोष की जिम्मेदारी ग्रहण करनी होगी। अकेले पुलिस के बल पर कानून व्यवस्था की बात करना और अपराध का नियंत्रण हो जाएगा, ऐसा सोचना गलत है। सरकार जिसके अधीन अभियोजन विभाग आता है और न्यायपालिका को मिल कर इस समस्या का हल निकालना होगा। हालांकि तीनों विभागों के प्रमुखों की जिला स्तर पर बैठकें होती हैं पर अभी भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है।

पुलिस एक भयपूर्ण समाज का निर्माण करे या समाज के कानून का आदर करने वाला तबका पुलिस से भय खाये, यह खुद पुलिस के लिये ही दुःखद और दर्दनाक स्थिति होती है। इस स्थिति से उबरने के लिए पुलिस को अपनी साख बनानी होगो। साख सख्ती की नहीं, साख एक ट्रिगर हैप्पी सिंघम या दबंग के मिथकों से गढ़ी गयी पुलिस की नहीं, साख एक ऐसी पुलिस की जो कानून को कानून की तरह लागू करे और सख्त पर विनम्र, अनुशासित और संवेदनशील हो। यह कठिन तो है पर असंभव नहीं है। पर क्या हमारी सरकारें, राजनीतिक नेतृत्व और जनता के महत्वपूर्ण लोग पुलिस के इस साख और मानवीय चेहरे के लिये दलगत तथा व्यक्तिगत हित और स्वार्थ से ऊपर उठ कर इस दिशा में कदम उठाएंगे ?

© विजय शंकर सिंह

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