डॉ लोहिया न केवल एक जुझारू राजनेता थे बल्कि वे एक विचारक भी थे। देश के समाजवादी आंदोलन की वे रीढ़ थे। गांधी की परंपरा में वे खुद को कुजात गांधीवादी मानते थे। आज 12 अक्टूबर को उनका निधन दिल्ली के वेलिंगटन हॉस्पिटल जो अब डॉ लोहिया के नाम पर ही डॉ राममनोहर लोहिया अस्पताल है में हुआ था। 1967 में जब उनका निधन हुआ था तो वे अपनी लोकप्रियता, प्रासंगिकता और संसद में अपनी सक्रियता के शिखर पर थे। उनका निधन देश के समाजवादी आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका था। तब के लोकप्रिय हिंदी साप्ताहिक दिनमान ने अपने सम्पादकीय में लिखा था कि,
" आज डॉ लोहिया नहीं है। आज जब उनके गैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत पर देश के अनेक राज्यों में गैर काँग्रेसी सरकारें बन गयी हैं, उनके विचारों से प्रेरित हो युवाओं का एक बड़ा तबका देश की राजनीति को प्रभावित कर सकने के लिए एक सक्षम आंदोलन चलाने की हैसियत में है, संसद में उनके विचारों से प्रभावित आधे दर्जन ऐसे सांसद हैं जो संसद के बहस को अपनी इच्छानुसार जिधर चाहें मोड़ सकते हैं, तब उनका निधन जब वे इस हैसियत में आ गए थे कि वे कुछ सार्थक कर पाएंगे तो सचमुच में भारतीय राजनीति के लिये एक मार्मिक आघात है। "
दिनमान की यह टिप्पणी एक आशा, आशंका और उम्मीद की एक किरण के समान थी।
डॉ लोहिया सच्चे अर्थों में संसदीय लोकतंत्र के पक्षधर थे। जनता और जनहित सर्वोपरि है। क्या आज कोई सोच सकता है कि एक सरकार उन्होंने इस लिये कुर्बान कर दी थी कि उनकी सरकार ने छात्रों के समूह पर गोली चला दी थी। सरकार ही नहीं उन्होंने अपनी पार्टी ही तोड़ दी। उनपर इस नैतिकता प्रदर्शन का कोई दबाव भी नहीं था। पर उन्होंने तय किया था कि निहत्थों पर उनकी सरकार बनी तो गोली नहीं चलेगी। पर जब गोली चली तो सरकार के ऊपर अपने सिद्धांत को रखा और सरकार को जाना पड़ा। यह सरकार केरल की थी । निहत्थों पर गोली चलाने को वे साम्राज्यवादी मानसिकता की विकृति मानते थे। सुधरो या टूटो, का मंत्र उन्हें जीवन भर तंग करता रहा। 1937 में जब वे अपने वरिष्ठ साथी आचार्य नरेंद देव, जयप्रकाश नारायण और अच्युत पटवर्धन के साथ कांग्रेस छोड़ कर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया था, तब से लेकर 1967 तक इन तीस सालों में समाजवादी आंदोलन में कितने दल बने, कितने टूटे इसे पढ़ना भी कम दिलचस्प नहीं है। लोहिया ने न केवल दलों की स्थापना की, बल्कि उन्होंने समाजवादी आंदोलन की वैचारिक पीठिका भी दी। वे एक संघटनकर्ता के साथ साथ एक प्रबुद्ध और मौलिक विचारक भी थे। अपने विचारों से उन्होंने न केवल राजनीति को ही प्रभावित किया बल्कि उनका असर तत्कालीन लेखकों और साहित्यकारों पर भी पड़ा। अकादमिक रूप से भी उन्होंने, आधुनिक राजनैतिक विचारकों में भी अपना स्थान बनाया। मैंने अपने छात्र जीवन मे अपने घर, तथा गांव शहर में उनके विचारों से प्रभावित लोगों की अच्छी खासी संख्या खुद देखी है।
डॉ लोहिया आंदोलनों के समर्थक थे पर हिंसा के कभी नहीं। आंदोलनों के रूप में उन्होंने गांधी का रास्ता चुना जो दुनियाभर में आजमाया जा चुका था। पर वे आंदोलन केवल हुजूम नहीं थे। वे आंदोलन विचारों पर आधारित थे और दिशाहीन नहीं थे। कोई भी आंदोलन अगर किसी स्पष्ट विचारधारा पर आधारित नहीं हैं तो वह बिखरता भी है और भटकता भी है। यह बिखराव और भटकाव उस आंदोलन को हिंसक बना देता है। डॉ लोहिया इसे जानते थे। इसीलिए उन्होंने अपने दल और आंदोलन को किसी भी बिखराव और भटकाव से बचाने के लिए समाजवादी सिद्धांतों से जनता और कार्यकर्ताओं को रूबरू कराने के लिए जन जैसी पत्रिका का संपादन और प्रकाशन प्रारंभ किया। जन में उन्होंने खुद भी लेख लिखे और उनके विचारों के आधार पर जो स्कूल बना उससे समाजवादी विचारधारा के अनेक नए लेखकों को भी उदित और स्थापित होने का अवसर मिला। यह पत्रिका अब गुमनामी में है। उनके नाम पर उनकी मृत्यु के बहुत बाद गठित होने वाली समाजवादी सरकारों ने भी उनकी विचारधारा के अध्ययन और विकास को लेकर कोई ठोस प्रयास नहीं किया। डॉ लोहिया के व्यक्तित्व और कृतित्व को एक छोटे से लेख में नहीं समेटा जा सकता है। उन्होंने मरते के पहले एक बात कही थी, लोग मुझे सुनेंगे पर मेरे मरने के बाद। लोहिया के नाम पर स्मारक ट्रस्ट और सरकारें तो बन गयी पर वे तब भी अनसुने रहे जब यह सब नहीं था और अब भी अनसुने हैं जब यह सब है और हो चुका है।
नीचे उनके कुछ महत्वपूर्ण उद्धरण प्रस्तुत कर रहा हूँ।
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जब जन शक्ति और कानून,दोनों का जोड़ होता है तब परिवर्तन और क्रांतियां हुआ करती हैं ।
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जालिम का कहा मत मानो ।जालिम वहीं पलते हैं
जहां दब्बू होते हैं ।
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कमजोर आदमी ज्यादा क्रूर होता है ।,नकली बहादुरी करके दिखाना चाहता है कि वह कमजोर नहीं है ।
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अन्याय को बचाकर रखने के लिये हथियार की जरूरत होती है ।
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व्यक्तिगत सत्याग्रह जितना कर सकते हो ,करो ।
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सत्याग्रह के अस्त्र द्वारा मनुष्य में, असहाय,निरीह मनुष्य मेंइतनी शक्ति हो जायेगी कि न्याय- अन्याय के प्रश्न का कुछ हल निकलते हुए अस्त्रों का खात्मा हो जायेगा ।
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आज 12 अक्टूबर को उनकी पुण्यतिथि पर डॉ राममनोहर लोहिया का विनम्र स्मरण और उन्हें श्रद्धांजलि।
© विजय शंकर सिंह
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