जब तोप मुकाबिल हुयी तो अखबार निकला और तोप की गरज ठंडी पड़ गयी। तोप यहां सत्ता की प्रतीक है, सरकार की और अखबार मीडिया का । आज जब सारा परंपरागत मीडिया और अखबार विशेषकर हिंदी के खुद को बड़े बड़े कहने वाले अखबार, राग दरबारी का अलाप हर वक़्त कर रहे हैं तो एक मोबाइल, टेबलेट या लैपटॉप पर हममें से एक एक कि चलती हुई उंगलियां अखबार बन गयी हैं। असीम सर्कुलेशन वाला वैश्विक असंख्य संस्करणों वाला यह अखबार दुनिया भर की सूरत बदल सकता है बशर्ते इसका उपयोग सदिच्छा से हो। विदेश यात्रा से आये हुए विदेश राज्यमंत्री अकबर का यह दावा कि वे अदालत में लड़ेंगे और इस्तीफा नहीं देंगे, और आज का उनका यह रुख कि वे अदालत में लड़ेंगे इसलिए इस्तीफा देंगे का अंतर स्पष्ट है। उन्होंने सोचा था कि एक महिला पत्रकार प्रिया रमानी के ऊपर जब वे मानहानि का मुकदमा दायर कर देंगे तो शेष चुप हो जाएंगी। पर यह खामोशी जब मुखर हुयी तो हर ओर से आवाज़ें आने लगी। अब तक 20 महिलाओं ने अपनी आपबीती साझा की है। उन्होंने खुल कर वह सब बताना शुरू कर दिया जो हम सब फुसफुसा कर बात करते हैं। अगर आज हर आदमी अखबार न होता तो कोई उन्हें जान भी नहीं पाता। पर अब समय, स्थान, अवसर का कोई बंधन नहीं रहा। दुनिया अब गोल केवल भूगोल की किताबों में ही रह गयी है पर अब यह दुनिया एक चपटी वैश्विक गांव जैसी हो गयी है। इधर का लिखा हज़ारों मील दूर बैठे मेरे मित्र तुरन्त पढ़ लेते हैं, एक चर्चा भी हो जाती है, कुछ और सूचनाओं का आदान प्रदान हो जाता है। कमरे के आरामदेह मौसम में ही एक ऐसी हवा बनती है जो बवंडर बन जाती है और किसी अकबर को जो सत्ता के वटवृक्ष से खुद को सुरक्षित समझ कर बैठा है उठा कर फेंक देती है। यह ताकत है अखबार की। अखबार माने सोशल मीडिया यहां।
एक सवाल बड़ा मूर्खतापूर्ण है कि ये लड़कियां पहले क्यों नहीं बोलीं। पहले इन्होंने क्यों स्वीकार किया यह सब अभद्र आचरण ? बात सही है। पर आज से बीस साल पहले की यह सारी घटनाएं हैं। पीड़ित कोई असरदार महिलाएं नहीं हैं बल्कि पढ़ लिख कर यूनिवर्सिटी से निकली अपने कैरियर की तलाश में वे लड़कियां हैं जो कहीं काम सीखना चाहती थीं तो कहीं काम करना। ये वे लड़कियां हैं जिन्हें तब भी अकबर के आचरण से ऐतराज़ था और वह ऐतराज आज भी नहीं है। तब न विशाखा गाइडलाइंस जैसी कार्यस्थल पर कामकाजी महिलाओं को यौन शोषण से बचाने के लिये कानूनी प्राविधान थे न ही उन्हें समर्थन देने के लिये कोई व्यापक प्लेटफार्म था, साथी भी अपनी नौकरी बचावें या अपने बॉस से पंगा लें। पर जब अपनी यातना को कहने का एक चलन सुदूर अमेरिका में मी टू मैं भी पीड़ित हूँ के रूप में शुरू हुआ तो यहां भी एक तनु श्री ने हिम्मत की और अपनी बात कही, फिर तो भुक्तभोगी सामने आगे आने लगे और अब यह एक आंदोलन बन गया। ऐसे अनुभवों को साझा करने के लिये साहस की ज़रूरत होती है और साहस कब किसे मिल जाय यह कहा नहीं जा सकता है।
मीटू के हालिया रहस्योद्घाटन और कुछ महिलाओं की आपबीती पर प्रतिक्रिया के रूप में जब, सोशल मीडिया पर ऐसे कमेंट पढता हूँ कि, कुछ पुरानी गाड़ियां अब अपने ड्राइवरों के खिलाफ इल्ज़ाम लगाने लगी हैं और इसके पीछे छिपे एक शातिर व्यंग्य भरी मुस्कान की कल्पना करता हूँ तो समाज महिलाओं के बारे में आज भी मध्ययुगीन मानसिकता से ग्रस्त नज़र आता है। बचपन मे सुनी गयी उक्तियां कि औरतें नाक न होती तो मैला खाती बरबस याद आ जाती है। मी टू अभियान के अंतर्गत स्त्री मुखरता अगर कुछ को अखरती है तो यह उनकी समस्या है। आज से कुछ साल पहले दस, बीस, तीस साल भी हो सकता है जब एक स्त्री अपनी आपबीती, अस्मिता पर बीती अपनी कहानी सुना रही है तो हम उस पर यकीन करें या न करें यह हमारी अपनी बात है पर उसके इस साहस की सराहना की जानी चाहिये। एक तर्क यह दिया जाता है कि यह सब सहमति से हुआ होगा। पर सार्वजनिक कार्यालय में एक प्रोफेशनल व्यक्ति का उसी प्रोफेशन में नयी नयी आयी लडक़ी से इस तरह का आचरण कोई सामान्य यौन व्यवहार नहीं है। यह भेड़िये और मेमने के बीच की सहमति है। यह सहमति मज़बूरी की भी हो सकती है। पर मज़बूरी की सहमति कभी किसी का मन स्वीकार नहीं करता। वह एक गांठ के रूप में कहीं न कहीं दबी रहती है और फिर जो कैंसर फूटता है वह 97 डॉक्टरों की शरण भाग कर लेता है। स्त्री मुक्ति पर बात करते हुए डॉ लोहिया ने कहीं कहा था कि, हमने स्त्री को या तो देवी के रूप में देखा है या दानवी रूप में। हमने उनको मानवी रूप में देखा ही नहीं है। इसी लिए जब एक स्त्री से हम हारने लगते हैं तो उस हार की पीड़ा के पीछे कोई तार्किक पीड़ा नहीं बल्कि स्त्री से हारने की पीड़ा अधिक सालती है। जब कि आज नवरात्रि में हम जो दुर्गा पूजा मना रहे हैं, उसकी कथा ही सारे देवताओं जो पुरूष हैं के असमर्थ हो जाने पर एक स्त्री के अवतार लेने से शुरू होती है। इस मुखरता पर चाहे जो भी कहानी हम बनावें, अकबर इस्तीफा देते या न देते या वे अनन्तकाल तक मंत्री बने रहते, पर यह मुखरता अब थमने वाली नहीं है। इस तरह का यौन आचरण एक मानवीय दुर्बलता है। इस दुर्बलता से हम आप या कोई भी स्खलित हो सकता है। हमारे प्राचीन साहित्य में महान व्यक्तियों के ऐसे दुराचरण और स्खलन के किस्से आम हैं और उन्हें छुपाया भी नहीं गया है। अकबर, आलोकनाथ, साजिद खान, आदि आदि जो नाम आ रहे हैं जब ये ऑफ द रिकार्ड बात करते होंगे तो हो सकता है यही आरोप उनके लिये पुरुषत्व साबित करने का एक आधार बन जाते हों। कोई पुरुष कितनी महिलाओं को भोग सकता है, कोई पुरुष अपने हरम या अन्तःपुर में कितनी महिलाएं रख सकता है यह भी मर्दानगी का एक पैमाना माना जाता था कभी। भोग और भोग्या का मनोविज्ञान जब तक मन के चेतन अवचेतन में हमारे रहेगा हम सहमति का तर्क ढूंढते रहेंगे। स्त्रियां अब आर्थिक रूप से मज़बूत हो रही हैं, वे खुद मुख्तार ज़िंदगी जीना चाहती है। जीवन के हर क्षेत्र में वे आगे आ रही हैं। वे मुखर हो रही हैं। उनकी मुखरता और साहस की सराहना कीजिये। वे न तो गाड़ी हैं और न हम पुरुष उनके ड्राइवर ।
" झूठ के पांव नहीं होते पर वह ज़हरीला होता है। " अकबर के बयान के इस वाक्य से मैं सहमत हूँ। साहस और हिम्मत का पैमाना यह होता कि अकबर सीधे प्रिया रमानी को फोन करके पूछ लेते कि बात क्या है। अगर कुछ ऊँचनीच हो भी गयी हो तो उसे भी वे स्पष्ट कर सकते थे। मानहानि का मुक़दमा तो ठीक है पर यह समाज को दिखाने के लिये अधिक होता है न कि अपना सामान बचाने के लिये। यह धनबल, तर्कबल और सामर्थ्य का प्रदर्शन भी है कि जो तुमने आक्षेप लगाये हैं उसे साबित करो। यह साबित करना भी न्यायपूर्ण कम, चुनौती अधिक लगती है कि इतनी हिम्मत कैसे हुयी नामाकूल ! अतीत की परतें पुरातत्व की तरह होती हैं। सब कुछ भले ही न बता दें पर बहुत कुछ का अनुमान और संकेत तो दे ही देती हैं। मैडम प्रिया रमानी अब आप बताइए क्या हुआ था उस दिन उस केबिन में ? अब उस केबिन में केवल पीड़िता है और पीड़ित करने वाला, एक समर्थ और दूसरा वहां काम की तलाश में या काम सीखने वाली महिला, तीसरा अगर है तो वह ईश्वर फिर कौन साबित करेगा ? अक्सर ऐसे आरोप सच होते हैं अगर यह ब्लैकमेल नहीं है तो। इसमे अकबर ही बतावें कि उनके ऊपर ही यह आरोप क्यों लगे हैं ? आरोप प्रिया रमानी ने ही अन्य दर्जन भर महिला सहकर्मियों ने उनपर यह आरोप क्यों लगाए हैं ? एक महिला ने जबरन चुम्बन करने और मुंह मे जीभ डालने का आरोप लगाया है । आखिर कैसानोवा जैसी क्षवि उनकी क्यों उभर कर आ रही है ? अकबर इतनी भुरभुरी प्रतिष्ठा अपनी मानते हैं कि उसे संभालने के लिये 97 बड़े वकील अपने अपने वकालतनामा लेकर खड़े हैं। और दूसरी तरफ बस मीटू अभियान की आपबीती है। कानून की नज़र में अगर यह मुक़दमा अकबर जीत भी जाएं तो, हो सकता है मंत्रिपद उन्हें फिर से मिल जाय उन्होंने जो कुछ भी किया धरा है वह तो जस का तस रहेगा। हमारे सत्कर्म और कुकर्म कभी कालबाधित नहीं होते है। आज तक सारे देवत्व के बाद भी इंद्र और ब्रह्मा अभिशप्त है, तो अकबर क्या चीज़ हैं !
© विजय शंकर सिंह
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