Friday 5 October 2018

लखनऊ के विवेक तिवारी हत्याकांड पर काली पट्टी बांधकर कुछ पुलिसजन द्वारा किया गया विरोध, अनुशासनहीनता है / विजय शंकर सिंह

पुलिस में आदेश का अनुपालन न करने और कायरता प्रदर्शित करने का एक ही दंड है, वह है सेवा से बर्खास्तगी। यह पुलिस में ही नहीं बल्कि सभी यूनिफॉर्म सुरक्षा बलों में है, यहां तक कि सेना में भी। अभी विवेक तिवारी हत्याकांड में दोषी पुलिसजन पर सरकार ने कार्यवाही की है और एसआईटी द्वारा जांच भी हो रही है। पर कुछ पुलिस वालों का अभियुक्तों के समर्थन में काली पट्टी बांध कर प्रदर्शन करना और उसे सोशल मीडिया पर डालना, यह एक असामान्य बात है। अपने 34 साल के पुलिस जीवन मे ऐसा न तो मैंने देखा है औऱ न ही सुना है।

1973 में जब मैं बीएचयू में पढ़ रहा था पीएसी विद्रोह हुआ था। हमलोग तमाशा देखने लंका से सामने घाट पीपे का पुल सायकिल से पार कर देखने गये थे, पर जब किले के पास पुलिस ने दौड़ाया तो वापस भागे। दूसरे दिन अखबारों से सारी बात पता चली।  रामनगर, कानपुर, लखनऊ, सीतापुर आदि स्थानों की पीएसी वाहिनियों में जवानों ने हथियार उठा लिये थे, और सेना को कमान संभालनी पड़ी थी। सेना के अफसर जवान भी मरे थे और पीएसी के भी अफसर जवान मारे गए थे।  तब कांग्रेस के कमलापति त्रिपाठी जी मुख्यमंत्री थे और एके दास आईजीपी थे। तब डीजी का पद नहीं बना था। आईजी ही सर्वोच्च अफसर होता है। सरकार को इस्तीफा देना पड़ा, और एके दास को हटना पड़ा। पर यह विद्रोह किसी अपराध में लिप्त अभियुक्त पुलिस जन को बचाने के लिये नहीं बल्कि पीएसी को मिलने वाली सुविधाओं, के कारण था। बाद में पीएसी का बजट बढाया गया,  सुविधाएं बढ़ी और कार्यप्रणाली में सुधार के लिये कदम उठाए गए। तब एक संगठन पुलिस परिषद का भी गठन हुआ था, जिसे सरकार ने अवैध घोषित कर रखा है। 1973 के विद्रोह के बाद कई पीएसी वाहिनियों को भग्न कर दिया गया। उनके स्थान पर नयी वाहिनियां गठित की गयी। विद्रोह की वाहिनियों को भंग किये जाने की एक सैन्य परंपरा भी है। ऐसे अनुशासनहीन विद्रोह न केवल पुलिस अनुशासन की गरिमा गिराते हैं, बल्कि वे विभाग पर एक प्रकार से काले धब्बे हैं।

लखनऊ की घटना न केवल अचंभित करती है बल्कि वह एक खतरनाक वायरस का भी संकेत देती है। जब हम लोग नौकरी में आये थे तो, पीटीसी जिसे तब अकादमी नहीं कहा जाता था में विस्तार से इस विद्रोह के कारणों को बताया गया था। अनुभवी और पुराने अधिकारियों के अनुसार, जब अफसर और मातहत में आपसी विश्वास का अभाव होने लगता है तो यह सारी समस्याएं और ऐसी अनुशासनहीनता की  घटनाएं होने लगती हैं। पहले अफसर और मातहत के बीच का संबंध एक परिवार और उसके मुखिया के बीच का आत्मीय संबन्ध होता था। अनुशासन का अर्थ मातहत को केवल नियंत्रित करना ही नहीं है, बल्कि उसकी सारी निजी और विभागीय समस्याओं को सुनना तथा उसका निदान ढूंढना है। पुलिस प्रबंधन किसी कंपनी के एचआर के प्रबंध की तरह नहीं किया जा सकता है। यहां मानव प्रबंधन तो है पर जिसे नियंत्रित करना है वह एक प्रशिक्षित शस्त्र चालक और शस्त्र धारक भी है।  यहां अनेक आदेश निर्देश समय असमय पर मौखिक ही दिए जाते हैं। अफसर को अपने दिए आदेश की जिम्मेदारी लेनी ही होगी, चाहे वह आदेश ज़ुबानी हो या लिखित। कभी कभी ऐसी परिस्थितियां आ जाती हैं जब यह आदेश अनुचित होता है और बैक फायर हो जाता है। उस समय नेतृत्व का यह गुण और दायित्व है कि वह उस आदेश की भूल को स्वीकार करे। इसे डांट डपट कर, अनुशासन के आवरण में लपेट कर नहीं रखा जा सकता। मातहत को अगर यह विश्वास हो जाय कि उसके अधिकारी उसके साथ हैं तो न केवल उसका मनोबल बढ़ता है बल्कि वह अपने दायित्व का निर्वहन भली प्रकार से कर बैठता है। जब वह यह मानने लगता है कि अफसर पल्ला झाड़ देगा तो वह स्वतः अनुशासनहीन होने लगता है।

पुलिस में कोई ट्रेड यूनियन जैसा संगठन नही  है और न ही ऐसे संगठनों का अस्तित्व होना चाहिये। ऐसे संगटन कुछ पुलिसजन में राजनीतिक महत्वाकांक्षा ही जगायेंगे। वे राजनीतिक दलों के लिये जो जाति और धर्म के आधार पर अपना खेत ढूंढते है के लिये एक चारागाह ही बन जाएंगे। हो सकता है ऐसे  संगठन के कुछ पदाधिकारियों भले ही कल्याण हो जाँय पर पुलिस बल और विभाग का हित बिल्कुल भी नहीं होगा। जब पुलिसजन के पास सेफ्टी वाल्व जैसा कोई  समस्या निवारण का मेकेनिज़्म नहीं है तो यह जिम्मेदारी पुलिस की इकाई के प्रभारी, जैसे जिले के एसपी, और बटालियन के कमांडेंट की है कि वह सभी मातहत पुलिसजन से न केवल संवाद बनाये रखे बल्कि उनकी निजी और विभागीय समस्याओं का भी निराकरण करे। पुलिस विभाग भी समय समय पर ऐसे आदेश निर्देश जारी करता रहता है और उचित धन भी देता है, जिससे कल्याणकारी योजनाएं चलायी जाती। विभाग के प्रमुख का यह गुरुतर दायित्व है कि एक आपसी भरोसे का सेतु बना रहे।

लखनऊ की काला फीता हांथो में लगाने की घटना को सामान्य प्रतिरोध समझने की भूल नहीं करना चाहिये। विवेक तिवारी हत्याकांड में कल्पना तिवारी को मुआवजा मिल जाने और उनको नौकरी मिल जाने से इस अपराध का शमन नहीं हो जाता है। मुआवजा कोई अर्थदंड नही  है बल्कि सरकार की एक सदाशयता है। पर हत्या तो हुयी ही है। अभियुक्त जेल में है । अभी तफ़्तीश चल रही है। उसका कहना है कि उसने आत्मरक्षार्थ फायर किया है। यह काम अब विवेचक का है कि वह तथ्यों का अनुसंधान करे कि सच क्या है और उसे अदालत ले जाये। पर सिपाहियों का यह कृत्य कि वे मुल्ज़िम के पक्ष में काली पट्टी लगाएं सर्वथा अनुचित है। अगर उन्हें लगता है कि मुल्ज़िम को जानबूझकर फंसाया जा रहा है और एसआईटी विवेचना में निष्पक्षता नहीं बरत पा रही है तो वे सरकार या डीजीपी से विवेचना एजेंसी बदलने के लिये अपनी बात रख सकते हैं, न कि काली पट्टी बांध कर विरोध करें। विवेचना, सीबीसीआईडी से हो सकती है और मुख्यमंत्री जी ने कहा भी है कि अगर ज़रूरत पड़ी तो सीबीआई से भी हो सकती है। कल अगर इस तरह पुलिसजन झंडे लेकर सड़क पर हर उस विवेचना में जिसमे कोई पुलिसजन अभियुक्त है के पक्ष में खड़े हो जाय तो कानून व्यवस्था की लंबी लंबी बातें करना तो भूल ही जाइये, हम एक उद्दंड और अनुशासन हीन पुलिस बल बन कर रह जाएंगे। इस घटना को नजरअंदाज करना एक प्रकार का अशनि संकेत है। इसकी अलग से जांच कराकर कार्यवाही की जानी चाहिये।

© विजय शंकर सिंह

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