Monday 1 October 2018

जारकर्म, व्यभिचार, धारा 497 आईपीसी पर सुप्रीम निर्णय - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्र की अध्यक्षता में देश के कई मसलों पर असर डालने वाले 6 महत्वपूर्ण मुकदमों के फैसले सुनाए जिसमे धारा 497 आईपीसी को असंवैधानिक घोषित करने का भी निर्णय था। 1858 ई में भारत, ब्रिटेन की महारानी की उद्घोषणा के बाद सीधे ब्रिटिश राज के अधीन आ गया था । ब्रिटेन एक सुव्यवस्थित राज प्रणाली के अधीन शासित था और वहां लोकतंत्र की अवधारणा 1212 ई के मैग्ना कार्टा ( महा घोषणापत्र ) के काल से ही चल रही थी। तब भारत मे अंग्रेज़ों ने राज व्यवस्था को व्यवस्थित रूप देने के लिये कुछ कानून बनाये जिनमे आपराधिक न्याय व्यवस्था के लिये तीन महत्वपूर्ण कानून थे, आईपीसी, (  भारतीय दंड संहिता, इंडियन पेनल कोड, ) सीआरपीसी,( दंड प्रक्रिया संहिता, कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर ) और लॉ ऑफ एविडेन्स ( भारतीय साक्ष्य अधिनियम ) । ये सभी कानून 1861 में लागू हुए और उसी साल पुलिस व्यवस्था को भी संहिताबद्ध करने के लिये इंडियन पुलिस एक्ट भी लागू हुआ। 1973 में सीआरपीसी में तो बदलाव किया गया पर दंड संहिता में कोई बड़ा और व्यापक बदलाव आज तक नहीं किया गया है। धारा 497 आईपीसी, उसी दंड संहिता का एक प्राविधान है।

धारा 497 आईपीसी के अनुसार,
" जो भी व्यक्ति, किसी ऐसे स्त्री के साथ यौन संपर्क करता है, जिसके बारे में वह जानता है, या उसके पास यह मानने के पर्याप्त सबूत हैं, कि वो किसी अन्य व्यक्ति की पत्नी है, और यदि ऐसे यौन संभोग बलात्कार की श्रेणी में नहीं आते, तो वो व्यक्ति व्यभिचार यानी एडल्ट्री का दोषी है।
ऐसे अपराध के लिए उसे पांच वर्ष का कारावास या आर्थिक जुर्माना या दोनों हो सकते हैं. ऐसे मामले में पत्नी को ‘उकसाने वाली/बहकाने वाली’ नहीं मानी जाएगी उसे दंड नहीं दिया जाएगा।
कानून स्पष्ट रूप से पुरूष को दोषी ठहराता है न कि स्त्री को। इस आरोप में शिकायत करने का अधिकार, सीआरपीसी की धारा 198 के अनुसार उस स्त्री के पति को है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह धारा 497 आईपीसी को अदालत ने असंवैधानिक घोषित कर दिया। अदालत ने इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हनन बताया और यौन सम्पर्क की स्वतंत्रता को बाधित करते हुए स्त्री की निजता का हनन भी बताया। अदालत ने जो मुख्य विंदु दिए हैं उनके अनुसार, पत्नी, पति की निजी संपत्ति नहीं है उसका भी अपना निजी अस्तित्व है, सोच है और इच्छा है। हालांकि कानून को देखने से ऐसा लगता है कि स्त्री को कानून ने संरक्षित किया था, और पुरूष को जो उस विवाहित स्त्री के साथ यौन सम्बंध बना रहा है को दोषी और अभियुक्त माना था। अदालत ने इसी संरक्षण को पति की संपत्ति के रूप में व्याख्यायित किया है क्यों कि इस मामले में केवल पति ही शिकायत दर्ज करा सकता था।

अब व्यभिचार पर दूसरे देशों में क्या कानून हैं, एक नज़र उन पर भी डालते है ।
एशियन देशों में फिलीपींस में व्यभिचार एक जुर्म है। वहां की दंड संहिता के अनुसार इस कृत्य से एक खुशहाल वैवाहिक जीवन बरबाद हो सकता है। फिलीपींस में इस अपराध के लिये 6 वर्ष की सज़ा का प्राविधान है। यह सजा पत्नी और उसके प्रेमी दोनों को ही दिए जाने का प्राविधान है। इसे एक यौन अपराध की श्रेणी में रखा गया है। लेकिन अगर पत्नी यह साबित कर देती है कि उसने यह यौन संबंध, अपने पति की सहमति से किसी को फंसाने के लिये बनाये हैं तो पति पर भी यही जुर्म बनेगा। उसे भी सज़ा मिलेगी, और ऐसी स्थिती में पत्नी के प्रेमी को कोई भी दंड नहीं दिया जाएगा। ऐसा इसलिए किया गया है ताकि पति पत्नी साथ षड्यंत्र कर किसी को फंसा न सकें।

चीन में व्यभिचार कोई अपराध तो नहीं है पर यह कृत्य तलाक़ लेने का आधार बन सकता है। चीन के विवाह कानून की धारा 46 में यह अंकित है कि पीड़ित पक्ष यानी पति, इस मामले में पत्नी और उसके प्रेमी पर हर्जाना का दावा कर सकता है और, तलाक़ ले सकता है।

सभी इस्लामी देशों में व्याभिचार, ज़िना एक गम्भीर अपराध की कोटि में आता है। इसके लिये इस्लामी कानूनों में, जुर्माना, जेल की सज़ा, कोड़े मारने की सज़ा और मृत्युदंड तक का प्राविधान है।
पाकिस्तान में हुदूद अधिनियम 1979 के लागू हो जाने के बाद, वहां भी यह अपराध की कोटि में रहा।

दक्षिण कोरिया की अदालत ने 7 - 2 की बहुमत से जारकर्म को अपराध की कोटि से हटा दिया। वहां यह कृत्य 1953 से अपराध की कोटि में था और इसके लिये 3 साल की सज़ा का प्राविधान था। अपराध की कोटि से हटाने के लिये वहां की अदालत की बेच के मुख्य जज पार्क हान चुल ने भी इसे निजता में राज्य के हस्तक्षेप को एक कारण बताया था।

ताइवान में यह एक दण्डनीय अपराध बना हुआ है। वहां एक साल की सज़ा का प्राविधान है। लेकिन अगर पुरूष उक्त महिला से क्षमा याचना करता है तो वहां क्षमा कर दिये जाने पर मुकदमा न चलाने का भी प्राविधान है। क्षमादान का प्राविधानों इसलिए है क्योंकि पुरूष पर ही उसके परिवार के भरण पोषण का दायित्व है।

अमेरिका के 51 राज्यों में से 20 में व्याभिचार एक अपराध के रूप में कानून में है। लेकिन अमूमन जेल की सज़ा वहां कम होती है। पर ऐसे अभियोगों में जुर्माना, नौकरी से बर्खास्तगी आदि दंड दिए जाते हैं।

भारतीय समाज की नज़रों मे व्यभिचार एक सामाजिक अपराध प्रारंभ से ही रहा है। पहले अपराधों के लिये कारागार की सज़ा आदि के प्राविधान उतने नहीं होते थे, जितने की सामाजिक बहिष्कार, अर्थदंड, आदि के। यूरोपीय समाज मे यह अपराध पहले से ही रहा है। भारत मे स्त्री को पति की संपत्ति समझने या खरीद फरोख्त करने की कोई प्रथा नहीं थी, जैसी कि यूरोपीय ईसाई समाज मे थी। लेकिन समाज मे जारकर्म हेय समझा जाता था और इसे एक सामाजिक स्खलन के रूप में भी माना जाता था। भारत मे यह कानून पुराने ईसाई कानून जहां स्त्री एक संपत्ति है और जिसके खरीद फरोख्त होने के उदाहरण इतिहास में (.भारतीय संदर्भ में नहीं ) बहुतायत से उपलब्ध हैं के आधार पर 1861 में यह यह दंड विधान बना तो जोड़ा गया था। यह क़ानून शादीशुदा स्त्री को उसके पति की सम्पत्ति मानता है। यह पति या पत्नी के आचरण को आपराधिक घोषित नहीं करता बल्कि उस पुरुष को आपराधिक घोषित करता  जिसने किसी शादीशुदा स्त्री के साथ यौन संबंध बनाए हो।
सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने अपना पक्ष रखते हुये, जारकर्म व्यभिचार को एक अपराध माना है। सरकार इस कानूनी प्राविधान को बनाये रखना चाहती थी।  सरकार का कहना था कि इस धारा के अपराध न माने जाने के कारण समाज मे व्यभिचार बढ़ जाएंगे। यह वैवाहिक संस्था को नष्ट कर देगा।

अदालत ने अपने फैसले में कहा कि पति की सहमति का अर्थ ही यह है कि पत्नी उसकी सम्पत्ति है। पत्नी अगर उसकी सहमति से कोई यौन संबंध बनाती है तो, यह कोई अपराध नहीं है जब कि पति की असहमति होते ही यह अपराध हो जाता है। न्यायलय आगे कहता है, यही कानून कहता है कि पति की मर्ज़ी से उसकी पत्नी के साथ अगर कोई यौन संबंध बनाता है तो यह कोई अपराध है।  मतलब इस कानून को न शादी की पवित्रता से मतलब है, न स्त्री की सहमति से मतलब है, बस पति की सहमति होनी चाहिए। अदालत इसे निजता में दखल मानते हुए कहता है कि  अगर दो वयस्कों ने आपसी सहमति से सम्बन्ध बनाये हैं तो उसमें राज्य के हस्तक्षेप का क्या मतलब है ? यह पति पत्नी केे बीच का दीवानी मसला है।
शादी कर लेने से ही स्त्री अपनी शारीरिक स्वायत्तता और निर्णय क्षमता नहीं गँवा देती है और न किसी को सौंप देती है।
ऐसा भी नहीं है कि इस कृत्य के कानूनन अपराध न होने के कारण एक उन्मुक्त समाज हो जाने का खतरा हो गया है। व्याभिचार घरेलू हिंसा के अंतर्गत भी आता है और इस कृत्य के लिये दीवानी उपचार भी उपलब्ध हैं।

अदालत के इस फैसले की मूल अवधारणा समानता के मौलिक अधिकार पर आधारित है। उसने पति और पत्नी को एक समान धरातल पर रख कर यह निर्णय दिया है। सुप्रीम कोर्ट के जज, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ के निर्णय के अनुसार,
" यौन संबंधों के नितांत निजी क्षेत्र में निजता की बात सबसे महत्वपूर्ण है। यौन सम्बंधो को यौन इच्छा से अलग कर के नहीं देखा जा सकता है। यह धारा 497 आईपीसी स्त्री को उसकी निजी इच्छा का हनन करती है अतः यह असंवैधानिक है।
विवाह के बाद, कोई स्त्री अपनी यौन स्वायत्तता अपने पति को नहीं सौंप देती है। विवाह की संस्था के बाहर भी उसे यदि उसकी इच्छा है तो यौन संबंध पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है। एक अपराध के रूप में जारकर्म अतीत की मानसिकता का प्रतिविम्ब है। धारा 497 आईपीसी के अंतर्गत वर्णित अपराध, स्त्री की अस्मिता और आत्मसम्मान के विरुद्ध है तथा उसे पति की एक सम्पत्ति बना कर रख देता है। "
प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्राविधान के समाप्त हो जाने से, पुरुषों को व्याभिचार करने की आज़ादी मिल गयी है। क्योंकि इस अपराध में अभियुक्त, पुरूष ही था । इसी तर्क के कारण, 1861 से इस कानून पर जब जब भी बहस चली, यह रद्द न हो सका। इस कानून के खिलाफ 1954 और 1985 में भी याचिकाएं दायर हुयी थीं और बहसें भी हुई। पर यही तर्क सशक्त रहा कि यह कानून स्त्री को संरक्षित करता है और पुरूष को जो व्याभिचार के कृत्य में संलग्न है दंडित करता है। इसी कारण 1954 और 1985 में यह कानून बरकरार रहा।
लेकिन जब गंभीरता से निजता, व्यक्ति स्वातंत्र्य और समानता के मौलिक अधिकार अनुच्छेद 14 के आलोक में इसे देखा गया तो यह तथ्य उभर कर आया कि यह कानून स्त्री को उसके पति की संपत्ति के रूप में देखता है।

इस फैसले के बाद लोगो मे अनेक आशंकाएं पनप रही है। लोगो का कहना है इससे सामाजिक ढांचा टूट जाएगा और परिवार नामक संस्था जो समाज की एक मज़बूत इकाई है टूट जाएगी। समाज मे अनाचार बढ़ जाएगा। व्याभिचार से निश्चय ही न केवल अनाचार बढ़ेगा बल्कि लोगों की इन आशंकाओं के सच होने का भी बल मिलता है। व्याभिचार का पक्ष कोई भी नहीं ले सकता है और न यह समाज मे कभी मान्य हो सकता है। व्याभिचार का प्रारंभ ही वादाखिलाफी से शुरू होता है। यह वादा या संकल्प या वचन जो भी कहें स्त्री पुरुष के विवाह के मूल में है। लेकिन अगर किसी कानून या दंड के भय से ही उक्त मूल रक्षा हो,तो यह भी एक विडंबना है। पति पत्नी का सम्बंध परस्पर विश्वास पर ही सुदृढ है। वह किसी दंड या कानून पर नहीं। वैसे भी धारा, 497आईपीसी 1861 में भारतीय दंड विधान में दाखिल हुयी, और 2018 में यह धारा सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बेदखल हो गयी। पर भारतीय समाज तो 1861 के पहले से सदियों पुराना है। हम इसे अनादि मानते हैं। यहां तक कि, अंग्रेजों के सभ्य होने के भी पहले से। जिन अंग्रेज़ों ने यह धारा बनायी थी, उनकी सभ्यता, संस्कृति, मानसिकता, दर्शन, राज व्यवस्था, विधि व्यवस्था की तुलना में हम कहीं बहुत अधिक समृद्ध थे। ऐसा भी नहीं था कि 1861 के पहले हम एक अनियंत्रित और अमर्यादित पशु समाज थे, और अंग्रेजों ने आकर हमे 1861 में सभ्य बना दिया । फिर इस कानून के न रहने पर हंगामा कैसा और क्यों ?

समाज के अपने नियम और कायदे होते हैं। अपनी वर्जनाएं होती हैं। उन वर्जनाओं के सीमोल्लंघन के लिये अलग अलग युगों में अलग अलग व्यवस्थाएं रही है। जिस तरह की हाय तौबा धारा 497 आईपीसी के अपराध न रहने के निर्णय पर हो रही है उससे तो यही लगता है कि विवाहेतर प्रेम और यौन संबंध बस 1861 से 2018 तक ही रुके थे, अब इसके आगे ये नहीं रुक पाएंगे । सारे यौन संबंध कभी भी किसी भी व्यक्ति के मन मे आकार ग्रहण कर सकते हैं और अनुकूलता होने पर धरातल पर उतर आते हैं। पर्याप्त अनुकूलता होने पर भी अक्सर वर्जनाएं हमें थाम लेती हैं । ऐसी दशा में कौन थाम लेता है हमें ?  ईश्वर ? अंतरात्मा ? सामाजिक प्रतिष्ठा हनन का भय ? या आईपीसी की धारा 497 ? सोच कर देखें, आईपीसी की धारा का भय बहुत कम होता है। जबकि अन्य कारक अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। कभी कभी इन सभी कारक तत्वों के बावजूद भी सारी वर्जनाएं टूट कर अनियंत्रित भी हो जाती है। यह आकस्मिक स्खलन कभी कभी हमें विचलित कर भविष्य के लिये रोक देता है तो कभी इसका आदती बना देता है। मनुष्य के मन की गति और दिशा अबूझ होती है।

यह जारकर्म जब अपराध था तब भी इस अपराध से बचने की जुगत अपराधी निकाल लेता था, जैसा कि सभी अपराधों में होता है। अब यह अपराध नहीं रहा तो बस सिर्फ कानून की किताब में और थाने के अभिलेखों में। लेकिन समाज इसे न तब सराहता था न अब सराहने जा रहा है। यह तब भी हेय और निंदित था, यह अब भी हेय और निंदित रहेगा। प्राचीन भारतीय वांग्मय में विवाहेतर यौन सम्बंधो के अनेक उदाहरण मिलते हैं। उनकी आलोचना भी होती है। वे तब भी निंदित और हेय थे।  ब्रह्मा और देवराज इंद्र आज तक इस स्खलन के कारण निंदित और हेय माने जाते है। उनका देवत्व भले बच गया हो पर समाज ने उन्हें उनकी इस व्यभिचार प्रसंग पर कभी भी क्षमा नहीं किया है। पुरुष प्रधान समाज मे बहुपत्नी, उपपत्नी या ऐसे सम्बंध कभी कभी पौरुष से जोड़ कर भी सराहे गये हैं। पर लाख सराहना के बाद भी ऐसे सम्बन्धों को समाज ने प्रशंसनीय और समानित रूप से कभी स्वीकार नहीं किया है। 497 के हटने के बाद आज भी समाज इसे स्वीकार नहीं करने जा रहा है। 

पर जैसी प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर आ रही है उससे तो यह लगता है कि लोग इसी ताक में बैठे थे कि कब यह अपराध की सूची से निकले और कब वे इस अनापराधिक कृत्य में लिप्त हो जाँय। समाज का दबाव, हमारी मानसिकता, परिवार और परिवेश के संस्कार और प्रभाव, हमे ऐसे अपराध न करने के लिये अधिक प्रेरित करता है न कि आईपीसी की धाराएं। 

© विजय शंकर सिंह

5 comments:

  1. बहुत प्रामाणिक ओर स्पष्ट जानकारी । धन्यवाद

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  2. सरल शब्दो मे खूब तरीके से आपने समझाया हैं सेक्शन 497 के विषय मे।

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  3. बहुत बढ़िया औऱ व्यापकता क़े साथ समझाने क़े लिए धन्यवाद सर

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  4. बहुत शानदार तरीके से समझाया है श्रीमान आपने

    लेकिन मेरा भी मानना है पति और पत्नी दोनों एक दूसरे की संपत्ति है दोनों का एक दूसरे पर अधिकार है इसलिए 497 ipc का समाप्त करना कई बुद्धिजीवियों के गले नही उतर रहा है।

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  5. आपको साधुवाद। पर समाज के कुछ ज़ाहिल लोग इस बात को कभी नही समझेंगे।

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