सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा को केंद्र सरकार ने जबरन छुट्टी पर आधी रात को 23 अक्टूबर को भेज दिया। जब इसकी आलोचना हुयी तो सरकार ने कहा कि, इस मामले में सरकार का कुछ लेना देना नहीं है। यकीन मानिये यह बेहद डरपोक सरकार है। हर मामले में कह देती है उसका कुछ भी लेना देना नहीं है। कभी पेट्रोलडीज़ल की बढ़ती कीमतों पर तो कभी राफेलसौदा में अनिल अम्बानी के ठेकों पर, जब इन्हें किसी मामलों में कुछ लेना देना ही नहीं है तो सत्ता में क्यों है केवल अंबानी अडानी का व्यापारिक हित देखने के लिये ?सरकार को हर मामले में नज़र रखनी चाहिये और जनहित में दखल भी देना चाहिये। पर यह दखल भी उसे उन्हीं कानूनों के अनुसार देना चाहिये जिसे सरकार ने स्वयं बनाये हैं और संसद ने पारित किये हैं।
अब आप सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति प्रक्रिया पढ़ लीजिये। सीबीआई का निदेशक किसी मंत्री या प्रधानमंत्री के इलहाम या सनक के आधार पर न तो नियुक्त किया जाता है और न ही हटाया जाता है।
नियुक्ति प्रक्रिया इस प्रकार है।
* 1941 में स्पेशल पुलिस इस्टेबलिशमेंट के रूप में एक जांच एजेंसी ब्रिटिश काल मे द्वीतीय विश्वयुद्ध के समय गठित की गयी। जिसका काम भारत सरकार द्वारा घूसखोरी, बेईमानी और भ्रष्टाचार के सौंपे गए मामलों की जांच करना था। युद्धकाल में ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ गयी थी तो सरकार को ऐसी एक विशिष्ट एजेंसी की आवश्यकता पड़ी।
* आज की सीबीआई को सारी विधिक शक्तियाँ 1946 में पारित दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेबलिशमेंट एक्ट Delhi Special Police Establishment Act (DSPE).
से प्राप्त होती हैं। यह कानून 1946 में ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित किया गया है। इसका उद्देश्य भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों की जांच करना और भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्यवाही करना है। युद्धकाल और देश के अंदर स्वाधीनता संग्राम और अन्य जटिल परिस्थितियों के कारण ब्रिटिश सरकार को फुरसत नहीं मिली कि वह विधिवत एक कानून बनाती। इस प्रकार 1946 में यह कानून बना।
* 1963 में भारत सरकार ने इसी अधिनियम के अंतर्गत सीबीआई को भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए सबसे प्रमुख एजेंसी के रूप में मान लिया और इसका नाम सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो रखा। यह नाम अमेरिका की एफबीआई फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन की तर्ज़ पर रखा गया। इसका दायित्व देश के अंदर न केवल भ्रष्टाचार बल्कि अन्य जटिल अपराधों की विवेचना के लिये भी अधिकृत किया गया। इसका नाम तो बदला पर यह उसी 1946 में पारित अधिनियम डीएसपीई के अधीन कार्य करती रही।
* 2013 के लोकपाल अधिनियम के पारित हो जाने के पहले सीबीआई निदेशक जो पुलिस के डायरेक्टर जनरल रैंक का होता है की नियुक्ति इसी एक्ट ( डीएसपीई ) के अनुसार होती थी। लोकपाल अधिनियम के पारित होने के बाद निदेशक की नियुक्ति प्रक्रिया बदल दी गयी।
* डीएसपीई एक्ट के अंतर्गत सीबीआई निदेशक की नियुक्ति एक पैनल की संस्तुति पर की जाती थी, जिसमे सेंट्रल विजिलेंस कमीशन, सीवीसी अध्यक्ष, अन्य सतर्कता आयुक्त, केंद्रीय गृह सचिव और सचिव ( कोऑर्डिनेशन तथा लोक शिकायत कैबिनेट सेक्रेटेरिएट ) सदस्य होते थे। इस पैनल की संस्तुति के आधार पर निदेशक की नियुक्ति होती थी।
* लोकपाल अधिनियम के पारित होने के बाद चयन प्रक्रिया बदल गयी। अब चयन प्रक्रिया के लिये एक खोज कमेटी ( सर्च कमेटी ) का गठन किया जाता है जिसका अध्यक्ष प्रधानमंत्री, और सदस्य सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सीजेआई ( CJI ) और नेता विरोधी दल सदस्य होते हैं।
* सीजेआई यदि स्वयं उस सर्च कमेटी में भाग नहीं लेते हैं तो वह सुप्रीम कोर्ट के ही किसी जज को अपनी जगह नामांकित कर के भेज सकते हैं।
* यदि लोकसभा में कोई मान्यता प्राप्त नेता विरोधी दल नहीं है जैसी आज की स्थिति है तो लोकसभा में सबसे बड़े विरोधी दल के नेता को उस सर्च कमेटी में रखा जाएगा।
* सीबीआई निदेशक के चयन की प्रक्रिया भारत सरकार के गृह मंत्रालय में शुरू होती है। गृह मंत्रालय में ऐसे आईपीएस अफसरों की सूची बनायी जाती है जो वरिष्ठ हो और जिनको मुकदमों के तफटीशों के काम मे पर्याप्त अनुभव हो। यह सूची केंद्रीय गृह सचिव के पर्यवेक्षण में तैयार होती है।
* केंद्रीय गृह मंत्रालय इस सूची को कार्मिक विभाग में भेजता है जो प्रधानमंत्री के सीधे अधीन रहता है, जो अंतिम सूची तैयार करता है जिसका आधार, "seniority, integrity and experience in the investigation of ant-corruption cases". यानी वरिष्ठता, सत्यनिष्ठा और भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच में अनुभव होता है।
* फिर सर्च कमेटी इन्हीं नामों में से एक चुनती है और तब सरकार उसके आदेश को जारी करती है।
आलोक वर्मा को 23 अक्टूबर की रात 2 बजे एक अप्रत्याशित आदेश से जबरन छुट्टी पर रवाना कर दिया। सुबह जब खबरें आयी तो अफवाहें भी साथ लायी। रात की खबरें बिना अफवाहों के आती भी नहीं है। 10 बजते बजते यह खबर आयी कि आलोक वर्मा ने अपने को जबरन छुट्टी पर भेजे जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने का निर्णय कर लिया है। अपराह्न तक उनके द्वारा याचिका दायर करने अदालत द्वारा स्वीकार करने और 26 अक्टूबर को सुनवाई करने की भी खबर आ गयी।
अब सवाल उठता है सरकार के इरादे पर कि जब आलोक वर्मा ने छुट्टी मांगी ही नहीं तो छुट्टी मंजूर किसने की और क्यों की। सरकार ने फिर पलटीं खायी और यह कहा कि सीवीसी की संस्तुति पर ही सीबीआई प्रमुख को छुट्टी पर भेजा गया है। अब सवाल उठता है क्या सीवीसी सीबीआई प्रमुख को हटाने या छुट्टी पर भेजने के लिये अधिकृत हैं ?
लेकिन, कानून के मुताबिक सीवीसी तब तक ऐसी सिफारिश नहीं कर सकते है जब तक की उक्त अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप दर्ज न किए गए हों। डीएसपीई अधिनियम, 1946 की धारा 4(1) जिसके अंतर्गत सीबीआई को सारी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं, के तहत सीवीसी उसी स्थिति में सीबीआई पर अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकता है जब भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत मामला दर्ज किया गया हो और जबकि सच यह है कि आलोक वर्मा के खिलाफ इस अधिनियम के तहत कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई है। बल्कि इस धारा के अंतर्गत तो अभियोग राकेश अस्थाना के खिलाफ दर्ज है।
जो व्यक्ति नियुक्ति कर सकता है वही व्यक्ति हटा भी सकता है। यह एक शाश्वत नियम है। सरकार को अगर हटाना ही था, तो रात के अंधेरे के बजाय दूसरे दिन चयन समिति या सर्च कमेटी की बैठक बुला कर उन सारे कारणों को जिनके कारण आलोक वर्मा को हटाना ज़रूरी था उसे स्पष्ट करते हुए उन्हें विधिसम्मत रूप से हटाना चाहिये था। पर जिस प्रकार से उन्हें अचानक हटाया या जबरन छुट्टी पर भेजा गया है, उससे तो सवाल उठेंगे ही।
© विजय शंकर सिंह
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