Saturday, 6 October 2018

संस्कृत और तमिल की प्राचीनता पर एसएन मिश्र जी का एक लेख / विजय शंकर सिंह

द्रविड़ संस्कृति हमारी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। आज भी द्रविड़ मंदिरों के वैदिक संस्कृत उच्चारण की शुद्धता की कोई उपमा नहीं।
संस्कृत भाषा और तमिल भाषा में कौन प्राचीन है इस पर विवेचना करते है 

महर्षि वाल्मीकि ने वाल्मीकि रामायण के सुन्दर काण्ड में ३०वें सर्ग में लिखते हैं I

प्रसंग है “अशोक वाटिका में सीताजी से वार्तालाप करने के विषय में हनुमान जी का विचार करना I”

हनुमान जी मन में विचार कर रहे हैं I

अहं ह्यतितनुश्चैव वानरश्च विशेषतः ।
वाचं चोदाहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम् ॥ १७ ॥

एक तो मेरा शरीर अत्यंत सूक्ष्म है ,दूसरे मैं वानर हूँ I
विशेषतः वानर होकर भी मैं यहाँ मानवोचित संस्कृत भाषा में बोलूँगा ॥ १७ ॥

यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम् ।
रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति ॥ १८ ॥

परन्तु ऐसा करने में एक बाधा है ,यदि मैं द्विज की भाँति संस्कृत वाणी का प्रयोग करूंगा तो सीताजी मुझे रावण समझ कर भयभीति हो जायेंगी  I

अवश्यमेव वक्तव्यं मानुषं वाक्यमर्थवत् ।
मया सान्त्वयितुं शक्या नान्यथेयमनिन्दिता ॥ १९ ॥

ऐसी दशा में अवश्य ही मुझे उस सार्थक भाषा का प्रयोग करना चाहिए ,जिसे अयोध्या के आसपास साधारण जनता बोलती है ,अन्यथा इन सती साध्वी सीता को मैं उचित आश्वासन नहीं दे सकता I

कुल मिला कर, हनुमान जी इस नतीजे की ओर पहुँचे कि यहाँ सभी लोग संस्कृत में वार्ता करते हैं। और जब वे माता सीता से वार्ता करने पहुँचे, तो उन्होंने “अयोध्या के आस पास की जन भाषा का प्रयोग किया I”

इसका अर्थ बिना कहे स्पष्ट है की संस्कृत लंका में प्रचलित भाषा थी और सीता जी भी संस्कृत जानती थीं Iऔर अयोध्या के निकट की जन भाषा भी जानती थीं ।
आज भी द्रविड़ मंदिरों के वैदिक संस्कृत उच्चारण की शुद्धता की कोई उपमा नहीं।
जितना अंतर खड़ी बोली और आँचलिक में होता है, क़रीब क़रीब उतना ही अंतर संस्कृत और तमिल में है।
तमिल को संस्कृत की बोली सिद्ध करने में अन्य द्रविडियन भाषाओं के साक्ष्य भी आवश्यक हैं।

यथा, मलयालम-कन्नड़-तेलगू की त्रयी का पर्याप्त संबंध संस्कृत से है, किंतु तमिल इनसे इतना संबंध स्थापित नहीं कर पाती है। जबकि संस्कृत की सर्वस्वीकार्यता का स्तर ये है कि संस्कृत न केवल तमिल से बल्कि प्रत्येक भारतीय भाषा से निकटता दर्शाती है।दूसरे देशों की भाषाएँ  जैसे राशियन, जर्मन लैटिन,अरबी ,पर्शीयन आदि संस्कृत से निकटता रखती है।

ये ठीक वैसे ही है, कि भोजपुरी-अवधी-बुंदेलखंडी की त्रयी आपस में दूरस्था लिए हैं। किंतु खड़ी हिंदी के निकट पाती हैं स्वयं को। जिस प्रकार आज उत्तर भारत की लगभग सभी भाषाएँ हिंदी की निकटता लिए हैं, उसी प्रकार प्राचीन काल से ही दक्षिण की चारों भाषाएँ संस्कृत से निकटता लिए हैं।

बोलियों को जब समृद्ध होने की आवश्यकता होती है, तब वे भाषाओं की ओर आती हैं। आदि शंकराचार्य के संस्कृत पौरुष से लेकर भक्ति आंदोलन तक, केवल और केवल दक्षिण के धर्मगुरुओं ने उत्तर ओर रूख किया है, उत्तर से सिर्फ़ एक ऋषि अगस्त्य के रूप में दक्षिण गया है।

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प्राचीन काल से ही परंपरा है कि बोलियों का मुद्रित साहित्य कम ही होता है। दक्षिण की कुछ गुफ़ाओं से प्राप्त तमिल अभिलेखों की कार्बन डेटिंग पहली या दूसरी शताब्दी की ओर इंगित करती है।

सातवीं शताब्दी में प्रथम बार कुछ ऐसे दानपत्र मिलते हैं, जिनपर संस्कृत के साथ साथ तमिल में भी लिखा गया है। चूँकि बीती छः शताब्दियों में तमिल बोली अपने भाषा रूप को प्राप्त करने हेतु कुछ पग बढ़ा चुकी थी।

दक्षिण के पल्लव-चोल-पांड्य राजवंश त्रयी ने अपने अभिलेख संस्कृत और तमिल दोनों में सामूहिक रूप से मुद्रित किए। यथा - राजेंद्र चोल का सुप्रसिद्ध “तिरुवलंगाडु” दानपत्र, जिसमें कुल इकतीस विशाल पत्र है, जो ताँबे से निर्मित हैं।

किंतु तमिल के मुद्रण की विधि में सतत बदलाव स्पष्ट दिखाई देता है। चूँकि एक बोली, भाषा बनने के मार्ग पर थी।

इस सब के बाद नौंवी-दसवीं शताब्दी में, तमिल के स्वतंत्र अभिलेख मिलते हैं। चूँकि तमिल बोलने वालों की संख्या उन्हें पृथक् रूप से अभिहित किए जाने योग्य हो चुकी थी। तमिल भाषा को अपनी पृथक् लिपि प्राप्त करने तक पंद्रहवीं शताब्दी आ चुकी थी। किंतु बदलाव सतत जारी थी।

महामंडलेश्वर स्वामी वालक्कायम द्वारा चौदह सौ पचास के आसपास लिखी गयी तमिल लिपि को सर्वाधिक प्रयोजनमूलक मानकर, आज भी उसी पद्धति से तमिल का मुद्रण होता है।

बस इतना ही पुराना है तमिल का इतिहास!

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पाणिनि की अष्टाध्यायी का प्रसिद्ध सूत्र है - “राल्योभेद:”, अर्थात् “ऋ” और “लॄ” परस्पर स्थापन्न है, एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग किए जाने योग्य हैं।

व्याकरण की विवेचना में जाने पर “ऋ” और “लॄ” के प्रकारों को भिन्न भिन्न नहीं गिना जाता है बल्कि सामूहिक रूप से “तीस” माना जाता है, जिसमें “ऋ” के अठारह और “लॄ” के बारह प्रकार हैं।

अतः, पाणिनि ने “राल्योभेद:” का सूत्र प्रतिपादित किया।

न केवल संस्कृत, बल्कि तमिल भी इस सूत्र का अनुसरण करती है।

उदाहरण के लिए देखें, संस्कृत साहित्य में राधा-कृष्ण के नृत्य को “रास्यनृत्य” कहा गया है, हिंदी की ही एक बोली “ब्रजभाषा” में “रास”। तमिल में माता पार्वती और शिव के नृत्य को “लास्यनृत्य” कहा गया है।

कहीं कहीं केवल माता पार्वती के नृत्य को “लास्यनृत्य” कहा गया है, और शिव के नृत्य को “तांडव”। ये दर्शन का एक भिन्न विषय है। संस्कृत-तमिल द्वैत चिंतन से कोसों दूर, अतः इसपर कभी पृथक् से।

“रास्यनृत्य” और “लास्यनृत्य” की बात करें तो स्पष्टरूप से तमिल ने संस्कृत का अनुसरण किया है, और अनुसरण पूर्वजों का ही किया जाता है, उत्तरवर्तियों का नहीं!

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ऋषि अगस्त्य को “तमिल भाषा का पितामह” कहा जाता है। इसका आधार है, माहेश्वर सूत्र।

माहेश्वर सूत्र की कथा कुछ यूँ है कि शिव ने तांडव नृत्य करते हुए अपने डमरू को कुल चौदह बार बजाया, और हर बार एक भिन्न ध्वनि उत्पन्न हुयी। प्रत्येक ध्वनि को एक सूत्र मानकर ही संस्कृत भाषा का उद्भव हुआ, जिसे कालांतर में पाणिनि ने सँवारा।

ठीक उसी डमरू कथानक में एक अवांतर प्रसंग भी है, कि संस्कृत के सूत्रों के साथ साथ तमिल के सूत्र भी डमरू से प्रकट हुए। इन सूत्रों के साथ ऋषि अगस्त्य दक्षिण में चले गये और वहाँ उन्होंने तमिल व्याकरण का विकास किया।

हालाँकि मेरे हृदय में एक प्रश्न रह रह कर उठता है कि एक डमरू से एक बार में एक ही स्वर/सूत्र प्रकट हो सकता है ना, या एक से अधिक?

तथापि, हमारे पूर्वजों ने, माहेश्वर सूत्र की कथा में तमिल को भी स्थान दिया है। इसी कथा का उल्लेख, कमोबेश अंतर के साथ, तमिल के ग्रंथ “मलय तिरुवियाडल पुराणम” में है।

इसका स्पष्ट अर्थ है कि संस्कृत-तमिल द्वैत का चिंतन न केवल आज हम और आप कर रहे हैं, बल्कि ये प्राच्यकाल से होता आ रहा है।

अब इस द्वैत चिंतन के छिद्र देखिए।

ऋग्वेद के प्रथम मंडल में एक सौ पैंसठवें सूक्त से लेकर एक सौ इक्यानबेवें सूत्र तक के सत्ताईस सूक्त ऋषि अगस्त्य के नाम से प्राप्त होते हैं।

ऋषि अगस्त्य ही  तमिल भाषा के जन्मदाता थे और ऋग्वेद में सत्ताईस सूक्त के मंत्र द्रष्टा हैं, यदि तमिल भाषा उस समय पूर्ण विकसित भाषा होती तो ऋग्वेद के  २७ सूक्तों को संस्कृत में क्यों लिखते ।

स्पष्ट है कि तमिल के प्रादुर्भाव से पूर्व ही संस्कृत का अस्तित्व था!और इतना ही नहीं संस्कृत बहुत सी, न जाने कितनी देशी और विदेशी भाषाओं की जननी है ।

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मूलतथ्य की विवेचना पूर्ण हुयी। अब सहज प्रश्न है, कि संस्कृत और तमिल के मध्य इतना विभेद किसने उत्पन्न किया? - इसका सरलीकृत उत्तर है : “अंग्रेज़ों की devide and rule policy तथा हिन्दू संस्कृति से घृणा करने वाले वामी इतिहासकारों के द्वारा उत्पन्न किया गया संभ्रम!”

वे कहते हैं, हड़प्पा सभ्यता अनार्यों की है और वेद आर्यों के। आर्यों ने ही द्रविड़ों की सभ्यता का विनाश कर, उन्हें उत्तर से खदेड़ कर सुदूर दक्षिण में पहुँचा दिया।
यदि ऐसा था तो राम और सुग्रीव की सेना मिलकर रावण से कैसे लड़ी ?और साथ में थे तो किस भाषा का आपस में प्रयोग करते थे ?आर्य क्या जाति थी? I ऋषि वशिष्ठ ने योगवाशिष्ठ में  आर्य को गुण कहा है ।

कर्तव्यम् आचरं कामम् अकर्तव्यम् अनाचरम् |
तिष्ठति प्राकॄताचारो य स: आर्य इति स्मॄत: ||
योग वासिष्ठ
ऋषि वशिष्ठ ने राम से कहा I
जो मनुष्य, जो करने योग्य है उसे करता है और जो नहीं करने योग्य है ,नहीं करता है आर्य कहलाता है Iअर्थात जो धर्म के अनुसार काम करे आर्य कहलाता है I
अर्थात आर्य कोई जाति नहीं है ,बल्कि गुण है I
दास या दस्यु कोई भिन्न जाति या नस्ल नहीं बल्कि विध्वंसकारी गतिविधियों में रत मनुष्यों को ही कहा जाता था |
ऋग्वेद में यह बहुत स्पष्ट कहा गया है I

त्वे इति विश्वा तविषी सध्र्यक् घिता तव राधः सोमऽपीथाय हर्षते ॥
तव वज्रः चिकिते बाह्वोः हितः वृश्च शत्रोः अव विश्वानि वृष्ण्या ॥ऋग्वेद १|५१|७ ॥

हे परमेश्वर ! आप आर्य और दस्यु को अच्छे प्रकार जानते हैं | शुभ कर्म करने वालों के लिए आप ‘ अव्रती’ (शुभ कर्म के विरोधी ) दस्युओं को नष्ट करो | हे भगवन् ! मैं सभी उत्तम कर्मों के प्रति पालन में आपकी प्रेरणा सदा चाहता हूं |

ऋषि वशिष्ठ उत्तर में और उनके भ्राता ऋषि अगस्त दक्षिण में संस्कृति का विकास कर रहे थे ।

वामी जन ,जो कुछ भी न कह दें कम ही है।

उनसे मेरा सीधा प्रश्न है, कि चलिए ठीक है, एक पल को आपकी बात मान भी लेते हैं कि आर्यों की भाषा और लिपि योजना हड़प्पा लिपि को पढ़ने में असमर्थ है और आप ही के अनुसार ये लिपि द्रविड़ों की है।

तो क्यों नहीं आप द्रविड़ लिपि या दुनिया की किसी लिपि का प्रयोग कर हड़प्पा लिपि को पढ़ लेते हैं?

( साभार एसएन मिश्र जी । श्री मिश्रा बीएसएनएल के एक अवकाशप्राप्त अधिकारी हैं और लखनऊ में रहते हैं। यह लेख उनके फेसबुक टाइमलाइन से उद्धृत है। )
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( विजय शंकर सिंह )

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