उत्तरप्रदेश के एक मंत्री की एसयूवी से पुलिस एस्कॉर्ट की एक गाड़ी थोड़ा टच कर गयी। अधिकार सुख की मादकता से खुमार भरी आंखें उठी और वहीं पर उस मंत्री ने सार्वजनिक रूप से ड्राइवर को न केवल अपमानित किया बल्कि अपशब्दों का भी प्रयोग किया। पुलिस ड्राइवर ने डरते और सहमते हुये सार्वजनिक रूप से उस मंत्री के पांव छुए और उस भीड़ के समक्ष खुद अपमानित होता देखता रहा। यूपी के यह मंत्री है कानपुर के सतीश महाना और यह घटना है 22 अक्टूबर की कानपुर की।
पुलिस एक अनुशासित बल है। सार्वजनिक रूप से गाली खाकर और अपमानित होकर वह ड्राइवर क्या महसूस कर रहा होगा इसका में अनुमान लगा सकता हूँ। अगर समानुभूति का कुछ भी अंश आप मे विद्यमान है तो आप भी इस अपमान के गुरुत्व का अनुमान लगा सकते हैं। हो सकता है यह दुर्घटना उस ड्राइवर की असावधानी से हुयी हो। लापरवाही से हो गयी हो यह भी हो सकता है। उसकी जानबूझकर की गयी गलती भी मान लीजिये। अगर यह तीनों ही हो, तो भी मंत्री को ऐसा आचरण सार्वजनिक रूप से उस ड्राइवर के साथ नहीं करना चाहिये था। वे उस ड्राइवर की शिकायत वहीं खड़े पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी से कर सकते थे । पर इरादा शिकायत का था ही नहीं, इरादा था अपने चमचों को अपना भौकाल दिखाने का था। इरादा अपना रुतबे के प्रदर्शन का था। इरादा अपने अहंकार और दम्भ की संतुष्टि का था। वर्दी में पुलिस अफसर से इस प्रकार किया गया व्यवहार और वह भी एक वरिष्ठ मंत्री का जो सरकार बनते ही मुख्यमंत्री का सपना देखने लगा था, बेहद निंदनीय है। सार्वजनिक रूप से पुलिसजन के साथ की जा रही यह हरकतें एक अपरिपक्व सत्तानशीनी ही बताती है।
पुलिस एक ऐसा विभाग है जहां अधीनस्थ अधिकारियों और कर्मचारियों पर सबसे अधिक अनुशासनिक और प्रशासनिक कार्यवाही होती है। अक्सर कुछ कार्यवाही ऐसी भी हो जाती है जिनका कोई औचित्य नहीं रहता है और कार्यवाही करने वाला तथा जिस पर कार्यवाही हो रही है वह भी जानता है कि यह कार्यवाही किसी के दबाव में की जा रही है। ऐसी कार्यवाहियां प्रशासनिक मज़बूरी भी होती है पर विभाग का अनुशासन और अफसर - मातहत सम्बंध ऐसी कार्यवाहियों पर दोनों को चुप रहने देता है। लेकिन ऐसी दबाव और प्रशासनिक मज़बूरी में की गयी कार्यवाहियां अपवाद ही होती है। पुलिस एक व्यक्तिपरक विभाग है। यहां काम करने वाले लोग मशीन नहीं है। मानव प्रबंधन , मशीन प्रबंधन या बाज़ार प्रबंधन से बिल्कुल अलग प्रबंधन होता है। पुलिस हो या सेना दोनों ही का मूल तत्व ही मनोबल होता है। दोनों में ही त्वरित दंड और त्वरित पुरस्कार की नीति अपनायी जाती है। ऐसा इसलिए कि अच्छे काम करने वालों का मनोबल बढ़े और वे बेहतर ढंग से अपने दायित्व का निस्तारण करें तथा गलत काम करने वाले हतोत्साहित हों और कर्मचारियों अधिकारियों में यह संदेश जाए कि अगर कोई गलती होगी तो बचना मुश्किल है। केवल पुलिस ही एक विभाग है जहाँ जवानों को शारीरिक दंड देने का प्राविधान है। अन्य दंड तो, जो दंड नियमावली में हैं, दिए ही जाते हैं।
कल्पना कीजिये, मंत्री का यह आचरण किसी ऐसे विभाग के कनिष्ठ अधिकारी के साथ सार्वजनिक रूप से होता या उनके अपने सचिवालय में ही होता, जहां एक मज़बूत यूनियन होती है तो अब तक क्या होता ? मंत्री के इस्तीफे की मांग हो जाती। हड़ताल की धमकी दे दी गयी होती। फिर डीएम एसएसपी बैठ कर कोई बीच का रास्ता निकालते। मंत्री भले ही इस्तीफा नहीं देते, पर वह यूनियन मंत्री और सरकार पर दबाव तो दे ही देती। हमारे कनिष्ठ अधिकारियों को यही चीज़ खलती है जब कोई उनसे इस तरह सार्वजनिक रूप से अभद्र और बदतमीजी से पेश आता है तो। वे तब खुद को असहाय और अकेला महसूस करते हैं। पुलिस में ट्रेड यूनियन जैसी कोई चीज नहीं है और न हो सकती है। पर ऐसी परिस्थिति में पुलिस के बड़े अफसरों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। कुछ अफसर अभिभावक की तरह खड़े भी हो जाते हैं। कुछ कन्नी भी काट जाते हैं। अफसर उधर सरकार की ओर देखें और इधर अपने हांथ पांव की ओर भी । फिर वेतो अपनी साख, रसूख व्यवहार और अफसर मातहत सम्बंध के कौशल से वे इस समस्या का समाधान ढूंढ कर हल करते हैं।
' वर्दी उतरवा दूंगा ' पिछले कुछ सालों से उपजे नए छुटभैये नेताओं का प्रिय संवाद है। पर जब कोई उद्दंड पुलिसकर्मी जिनकी संख्या भी विभाग में कम नहीं है , वहीं इन्हें पटक कर धुनने लगता है तो पुलिस दुर्व्यवहार की बात सुर्खियों में आ जाती है और वह प्रसिद्ध फिल्मी अमरीश पुरी टाइप संवाद कहीं खो जाता है। कल्पना कीजिये मंत्री जी के समक्ष कोई उद्दंड पुलिसकर्मी होता और वह भी बदतमीजी कर बैठता तो क्या होता। हो सकता था मंत्री अपना आपा खो बैठते और उनके चमचे समर्थक वही पुलिसकर्मी पर अपना हांथ छोड़ देते। नुकसान तब भी पुलिसकर्मी का ही होता पर जो अशोभन और अप्रत्याशित दृश्य हफ्तों तक सोशल मीडिया और संचार माध्यमों में तैरता रहता उससे एक ऐसी सरकार की क्षवि प्रसारित होती जिसका न अपने मंत्रियों पर नियंत्रण है और न ही अपनी पुलिस बल पर।
प्रकरण अकेले इन्ही एक मंत्री जी का नहीं है प्रकरण सत्तारूढ़ दल या अन्य दलों के नए और छुटभैये नेताओ / कार्यकर्ताओं में उपजती इस मानसिकता का है कि वे यह मान बैठते हैं कि पुलिस उसी की है जिसकी सत्ता होती है। यह एक भ्रम है। पुलिस सरकार के अधीन तो है पर वह सत्ता की भी नहीं है। केरल के एक डीजी थे सेनकुमार। जब नयी वामपंथी सरकार आयी तो उसने डीजी और मुख्य सचिव दोनों को बदल दिया। यह एक सामान्य प्रक्रिया है। हर नयी सरकार ऐसा परिवर्तन करती है। शिवकुमार केरल हाई कोर्ट गये और उन्होंने अपने स्थानांतरण को चुनौती दी। हाईकोर्ट में सरकारी वकील ने अनेक तर्को के बीच, यह तर्क भी दिया कि नयी सरकार को अपनी नीतियों को लागू करने के लिये अपनी रुचि और ज़रूरत से अधिकारियों के चयन और स्थानांतरण करने का अधिकार है। हाईकोर्ट ने सेनकुमार की याचिका खारिज कर दी। सेनकुमार ने इसकी अपील सुप्रीम कोर्ट में की। सुप्रीम कोर्ट ने सेनकुमार की याचिका स्वीकार की और प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार के मामले में पुलिस सुधार पर दिए गए अपने अनेक निर्देशों का हवाला दिया और यह भी कहा कि पुलिस का मुख्य कार्य कानून को लागू करवाना है। कानून सर्वोच्च है। सरकार भी तो कानून के अंतर्गत ही गठित है। सरकार पुलिस पर प्रशासनिक नियंत्रण तो कर सकती है करती भी है पर कानून के लागू करने में सरकार कानून से प्राप्त अधिकार से ही दखल दे सकती है। सरकार का आदेश अगर कानून के ऊपर नहीं होगा। लेकिन ये छुटभैये नेता यह समझ बैठते हैं कि उनकी सरकार है तो जो वे कहें वही पुलिस माने। ऐसा दबाव अवैध वाह्य दबाव माना जाता है। मंत्री कितना भी शक्तिशाली हो किसी कर्मी के निलंबन और बर्खास्तगी वह अपनी मर्ज़ी या सनक से नहीं कर सकता है। यह दोनों प्रक्रियाएं विधिपूर्वक ही सम्पन्न की जाएंगी। ऐसे अफसर भी हैं जो इन मंत्रियों की अनावश्यक और अवांछित सिफारिशों को दरकिनार कर देते हैं। ऐसे अफसर एसआई और इंस्पेक्टर स्तर पर भी कम नहीं है।
कानून, सरकार, नेता, आदि आदि बातें छोड़ दें तो एक और बात सबके जीवन मे महत्व रखती है, वह बात है आत्मसम्मान की। यह आत्मसम्मान हर व्यक्ति का होता है चाहे वह कोई भी हो, निम्न से निम्न पद पर हो, या उच्च से उच्च पद पर हो या वह किसी भी पद पर न हो। मंत्री ने जिस ड्राइवर को सार्वजनिक रूप से जलील किया आत्मसम्मान उसका भी है। उसका भी आत्मसम्मान आहत हुआ था। लेकिन वह उस अपमान के घूंट को पी कर मंत्री की गाली सुनता रहा। अगर हम किसी अन्य का आत्मसम्मान नहीं रख सकते तो हमें भी अपने आत्मसम्मान के लिये रोने का कोई हक नही है। सरकार या सरकार के मंत्री से यह अपेक्षा की जानी चाहिये कि वह विधिसम्मत कार्य करें, वे मध्ययुगीन सामन्त नहीं है और न पुलिस उनके मनसब की एक मुलाज़िम। पुलिस संविधान और कानून के प्रति शपथबद्ध है और सरकार के मंत्री भी संविधान और कानून के प्रति ही शपथबद्ध हैं। दोनों को अपनी पेशेवरराना मर्यादा बनाये रखनी चाहिये।
© विजय शंकर सिंह
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