Sunday 21 October 2018

मिथ्यावाचक कैसे कभी किसी का आदर्श हो सकता है ? / विजय शंकर सिंह

कुछ की ऐसी क्या मज़बूरी है कि हर मौके पर खुल कर मिथ्यावाचन करने वाले व्यक्ति को विकल्पहीन कह कर महिमामण्डित किया जाता है। झूठ का विकल्प तो सत्य है ही। पर जब चुंधियाई आंखों से सच दिखे तब न ।

अज्ञानता बुरी बात नहीं है। हर व्यक्ति कभी न कभी अज्ञानता से रूबरू होता है। वह जीवन भर किसी न किसी कालखंड में अज्ञान ही रहता है। यह बुरी बात नहीं है। बुरी बात है उस अज्ञानता को ही अपनी नियति मान लेना। अज्ञानता तो हमे जिज्ञासु बनाती है अगर हम उसे अपनी नियति न मानें तब।  यह उस अंधकार की तरह है जो धीरे धीरे प्रकाश पा कर छीजता रहता है। पर सर्वज्ञता का आवरण ओढ़ना सबसे बड़ी अज्ञानता है।

सबसे बड़ी अज्ञानता है सवाल नहीं करना। चीज़ों को जस का तस मान लेना। कस्मै देवाय हविष्यामि से ले कर जाबालि, नचिकेता, बुद्ध तक प्राचीन वांग्मय में सवाल और उनके जवाब की एक लंबी परम्परा रही है। उपनिषद जिसका शाब्दिक अर्थ ही आओ पास बैठो, या बौद्ध साहित्य का मिलिंदपन्हो सब के सब प्रश्न और उत्तर से निकले हैं। प्रश्नोत्तरी से निकले यह साहित्य  परिमार्जित तथा परिवर्धित ज्ञान की प्रक्रिया ही तो हैं। यह प्रक्रिया अभी थमी भी नहीं है और कभी थमेगी भी नहीं। सनातन धर्म की यही विशिष्टता है कि यह देवत्व को भी चुनौती देता है। ईश्वर के अस्तित्व को भी नकार देने का अधिकार यह परम्परा देती  है। नास्तिक न सिर्फ ईश्वर के अस्तित्व को नकारता है बल्कि  उस नकार के बारे में अपने तर्क भी देता है, बहस करता है। यह शास्त्रार्थ शास्त्र सम्मत भी है । ऐसा विशद खुलापन दुनिया के किसी भी धर्म मे नहीं मिलेगा।

जितने ही सवाल उठेंगे, जितने ही तर्क वितर्क होंगे उतने ही सत्य का कुंदन दमकेगा। विकल्पहीनता की बहस ही ऐसे सवालों को कुंद ही नही  करती है बल्कि सवाल पूछने की जिज्ञासा को ही मार देती है। झूठ न सुनिये, न मानिये, न सहिये। हर झूठ को अनावृत कीजिये। उसकी परतें उधेड़ दीजिये। देश के लंबे इतिहास में मिथ्यावाचकों के नष्ट होने के किस्से भी कम नहीं हैं। सत्ता के मिथ्यावाचन के विरुद्ध साष्टांग मत होइए। दृढ़ होकर खड़े होइए।  सत्ता हमसे है, हम सत्ता से नहीं हैं। सत्ता का विकल्प सदैव रहता है। यह दुनिया कभी भी विकल्पहीन नहीं रही है। आगे भी नहीं रहेगी। 

© विजय शंकर सिंह

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