मृत्यु बहुत कुछ याद दिला जाती है। मृतक के जीवन की अच्छी अच्छी बातें, उसकी कमियां और समाज देश और परिवार के प्रति उसके योगदान । यह एक पटाक्षेप की तरह होता है। मृत्यु समय पर और बिना कष्ट के प्राप्त हो तो उसे मोक्ष ही समझिये। पर मृत्यु सहज न हो, किसी कारणवश हो और वह कारण शारीरिक रुग्णता न हो तो बहुत अखरती है। ऐसी ही अखरने वाली मृत्यु डॉ जीडी अग्रवाल की प्राप्त हुयी है। डॉ अग्रवाल एक सन्यासी थे। पर वे बाल सन्यासी नहीं बल्कि अत्यंत प्रतिभा से अपना गृहस्थ जीवन बिता कर वे सन्यासी बने थे। डॉ अग्रवाल सन्यास लेने के पहले आईआईटी कानपुर में सिविल और पर्यावरणीय इंजीनियरिंग के प्रोफेसर थे। 1932 में कांधला जिला मुजफ्फरनगर में उनका जन्म हुआ था। आईआईटी रुड़की और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय बर्कले से इन्होंने इंजीनियरिंग की डिग्री ली। वे केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से जुड़े रहे और वे इसके प्रथम सचिव बने और फिर आईआईटी कानपुर में भी प्रोफेसर हुए। 2009 में जब भागीरथी नदी पर बांध बनने लगा तो इन्होंने आमरण अनशन किया जिससे सरकार के न केवल इनकी बात मान ली बल्कि बांध का निर्माण भी रोक दिया। तभी से इनके गंगा प्रेम की लोगो को जानकारी हुयी। इसके पहले ये खामोशी से अपने मिशन में जुटे थे। इन्होंने गृहस्थ आश्रम तज कर सन्यास ग्रहण किया और सन्यासी होने के बाद इनका नया नाम स्वामी ज्ञानस्वरूप सानन्द पड़ा और मातृसदन हरिद्वार इनका नया पता बना।
11 अक्टूबर 2018 को उनका निधन हो गया। वे 24 जून 2018 से आमरण अनशन पर बैठे थे। उनकी मांग गंगा के संरक्षण को लेकर थी। सन्यास ग्रहण करने के बाद वे हरिद्वार और ऋषिकेश में रहने लगे थे। वाराणसी में भी उनका आना जाना था। वे काशी हिंदू विश्वविद्यालय के आईआईटी में भी अपने विषय पर व्याख्यान देने जाते थे। वे एक सिविल इंजीनियर थे और पर्यावरण के विशेषज्ञ भी थे। हिमालय की भू स्थिति से वे अनभिज्ञ नहीं थे। हिमालय से उतर कर नीचे आने वाली अनेक छोटी बड़ी नदियों जिसमे भागीरथी भी है का उन्होंने अध्ययन किया था। गंगा का धार्मिक महत्व तो अपनी जगह है पर पर्यावरण, कृषि, पारिस्थितिकीय महत्व भी कम नहीं है। वे गंगा और यमुना को उत्तर भारत की जीवन रेखा ही नहीं बल्कि दुनिया की समृद्धतम संस्कृतियों में से एक महान संस्कृति की आधारशिला भी मानते थे। वे गंगा पर बांधो के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने उत्तराखंड में गंगा और सहायक नदियों के ऊपर बनने वाले छोटे बड़े बांधों का विरोध किया। विरोध का कारण भी कोई धार्मिक विश्वास नहीं बल्कि वैज्ञानिक और पर्यावरणीय कारण था। हिमालय वैसे तो सबसे ऊंचा पर्वत है पर पर्वतों की आयु में तुलनात्मक रूप से यह सबसे युवा पहाड़ है। अभी यह कच्चा पहाड़ है। कच्चे पहाड़ के कारण भू स्खलन की समस्यायें भी बहुत होती है। स्वामी सानन्द जी का कहना था कि अगर इन नदियों पर बड़े छोटे बांध जगह जगह पर जैसा कि प्रस्तावित हैं बना दिये जायेंगे तो इनके कारण जो पानी ठहरेगा उनके वजन से इन पर्वतों की भूभौतिकी स्थिति पर असर पड़ेगा और भागीरथी में उसकी सहायक नदियों से जो पानी विभिन्न प्रयागों में जो जाता है उससे भागीरथी वंचित हो जाएगी और इस तरह से गंगा की जो धारा पर्वत से उतर कर मैदानी इलाके में जाएगी उससे मैदानों में सूखा आदि समस्यायें उत्पन्न हो जाएगी। 2009 में भागीरथी पर ही प्रस्तावित बांध के विरोध में इन्होंने आमरण अनशन किया था और तब सरकार ने इनकी बात मान ली और उक्त बांध का निर्माण रोक दिया था।
डॉ अग्रवाल गंगा की सफाई के साथ साथ गंगा का अविरल प्रवाह बना रहे इस हेतु वे एक सक्षम गंगा कानून लाना चाहते थे। वैसे तो गंगा की साफाई की बात 1985 से चल रही है। गंगा प्रदूषण कम करने के लिये गंगा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का गठन हुआ और अनेक योजनाएं लागू की गई। इन योजनाओं में गंगा के किनारे के बड़े शहरों की सीवर प्रणाली को गंगा में गिरने से रोकने तथा ट्रीटमेंट प्लांट बनाने आदि की योजनाएं थीं। सरकार ने धन भी खूब दिया। पर ये योजनाएं कारगर नहीं हो पायीं। 2014 में जब नयी सरकार नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में बनी तो लगा कि गंगा के प्रति कई महत्वपूर्ण कदम उठाए जाएंगे। उमा भारती जो स्वयं ही एक सन्यासिन हैं ने गंगा सफाई के प्रति अपना संकल्प दुहराया और एक बार तो यह भी उन्होंने कह दिया कि अगर 2018 तक गंगा साफ नही हुयी तो वे जल समाधि ले लेगी। मैं नहीं चाहूंगा कि वे अपनी जान दे दें। उनकी जान लेकर गंगा साफ तो हो नहीं जाएंगी। पर वे सरकार में हैं और सरकार को गंगा सफाई की योजना जो नमामि गंगे के नाम से चल रही है को ठीक से लागू कराएं।
डॉ अग्रवाल गंगा के प्रदूषण के प्रति सतर्क और संवेदनशील तो थे ही पर उनका मुख्य मुद्दा था गंगा में बांधो के निर्माण का। उनकी मांग थी कि गंगा और इसकी सह-नदियों के आस-पास बन रहे हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट के निर्माण को बंद किया जाए और गंगा संरक्षण प्रबंधन अधिनियम को लागू किया जाए। उनका कहना था ये छोटे छोटे बांध न केवल पर्यावरण, पारिस्थितिकी और वन्यजीव संरक्षण की हानि करेंगे बल्कि प्राकृतिक आपदा के भी कारण बनेंगे। केदारनाथ आपदा को भी पर्यावरण से छेड़छाड़, नदियों के पेट तक हो रहे बेलगाम निर्माण और अंधाधुंध पर्यटन का परिणाम माना जाता है। वे गंगा संरक्षण कानून लाने के पक्ष में थे। उन्होंने एक ड्राफ्ट भी बनाया था। उनके अनुसार,
‘अगर इस मसौदे को पारित किया जाता है तो गंगा जी की ज्यादातर समस्याएं लंबे समय के लिए खत्म हो जाएंगी. मौजूदा सरकार अपने बहुमत का इस्तेमाल कर इसे पास करा सकती है. मै अपना अनशन उस दिन तोडूंगा जिस दिन ये विधेयक पारित हो जाएगा. ये मेरी आखिरी जिम्मेदारी है. अगर अगले सत्र तक अगर सरकार इस विधेयक को पारित करा देती है तो बहुत अच्छा होगा. अगर ऐसा नहीं होता है तो कई लोग मर जाएंगे. अब समय आ गया है आने वाली पीढ़ी इस पवित्र नदी की जिम्मेदारी ले.’
उन्होंने कुल 112 दिन अनशन किया था। अपने अनशन के दौरान डॉ जीडी अग्रवाल ने कहा था,
‘हमने प्रधानमंत्री कार्यालय और जल संसाधन मंत्रालय को कई सारे पत्र लिखा था, लेकिन किसी ने भी जवाब देने की जहमत नहीं उठाई. मैं पिछले 109 दिनों से अनशन पर हूं और अब मैंने निर्णय लिया है कि इस तपस्या को और आगे ले जाऊंगा और अपने जीवन को गंगा नदी के लिए बलिदान कर दूंगा. मेरी मौत के साथ मेरे अनशन का अंत होगा.’
और उनकी मृत्यु इसी पावन संघर्ष में हो गयी। उनके पत्रों का जवाब देना भी न तो प्रधानमंत्री कार्यालय ने उचित समझा और न ही जल सन्साधन मंत्रालय ने। आज जब पीएम अपना दुःख जताते हुए ट्वीट कर रहे हैं तो भी उस ट्वीट में उन्होंने डॉ अग्रवाल की मांगों के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा। उन्हें अपने कार्यालय से यह पूछना चाहिये कि आखिर डॉ अग्रवाल का गंगा संरक्षण कानून का मसविदा क्या था। उसका विधिक और वैज्ञानिक परीक्षण भी कराया जाना चाहिये। डॉ अग्रवाल से बात करके उनको आश्वस्त करके सरकार को यह अनशन तोड़वा देना चाहिये था। लेकिन न तो राज्य सरकार ने कोई ध्यान दिया और न हीं केंद्र सरकार ने। हो सकता था अगर प्रारंभ में ही सरकार ने इसे गम्भीरता से लिया होता तो एक वृद्ध और विद्वान सन्यासी की ऐसी दुःखद मृत्यु नहीं होती।
गंगा की सफाई को लेकर प्रधानमंत्री मोदी जब प्रधानमंत्री नहीं थे तो बहुत चिंतित थे। जीवन भर संस्कार, संस्कृति, सभ्यता, गंगाजल आदि की बात करने वाले लोग जब सत्ता में आये तो लगा कि अब कुछ न कुछ बेहतर होगा। हवा भी खूब बांधी गयी। नमामि गंगे नाम से एक योजना भी बनी। प्रधानमंत्री ने 2014 में वादा भी किया था कि 2019 तक गंगा साफ कर दी जाएगी। पर गंगा प्रत्यक्षतः तो साफ हुयी नही। हालांकि काम चल रहा है। पर कई सारी सरकारी रिपोर्ट्स यह बताती हैं कि गंगा की सफाई के लिए कोई भी खास प्रभावी कदम नहीं उठाए गए हैं। गंगा सफाई की पड़ताल के लिये एक संसदीय समिति भी बनायी गयी , जिसने गंगा सफाई के लिए सरकार के प्रयासों का मूल्यांकन और अध्ययन किया था, ने बताया था कि गंगा सफाई के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम पर्याप्त नहीं हैं। संसदीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार,
‘मौजूदा स्थिति ये बताती है कि सीवर परियोजनाओं से संबंधित कार्यक्रमों को राज्य द्वारा सही तरीके से लागू नहीं किया गया और ये सरकार का गैर जिम्मेदाराना रवैया दर्शाता है । सीवर परियोजना सीवेज ट्रीटमेंट और जल निकायों में सीवेज के डंपिंग के मुद्दों का हल करने के लिए था.’
संसदीय समिति के अलवा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने भी गंगा सफाई को लेकर सरकार की कोशिश को अपर्याप्त बताया था.
24 जून से लगातार अनशन पर बैठे डॉ अग्रवाल की जब तबीयत बिगड़ने लगी तब डॉक्टरों ने उन्हें पोटैशियम की दवा देने की पेशकश की। पहले तो उन्होंने इनकार किया फिर बहुत समझाने पर वे दवा के रूप में पोटैशियम टेबलेट लेने के लिये तैयार हो गए। पर उनकी तबीयत बिगड़ने लगी। डॉक्टरों ने उन्हें बेहतर चिकित्सा के लिये एम्स अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ले जाने की बात की। उन्होंने आखिरी दो दिनों से पानी पीना भी त्याग दिया था। उन्हें जबरन उठा कर अनशनस्थल से ले जाया गया। रास्ते मे जब उन्हें हरिद्वार से एम्स ले जाया जा रहा था तो उनकी मृत्यु हो गयी। उन्हें हरिद्वार से दिल्ली अगर सड़क मार्ग से ले जाया जा रहा था तो यह निर्णय भी गलत था। उन्हें हेलीकॉप्टर से भी सीधे या एयर एम्बुलेंस से भी उठा कर हरिद्वार से दिल्ली लें जाया जा सकता था। पर सरकार किसी भी दृष्टिकोण से लगता ही नहीं कि उनके अनशन को लेकर गंभीर थी। 112 दिन से उनका अनशन चल रहा है और कोई ऐसा प्रयास भी नहीं हो रहा है कि यह अनशन टूटे और इनकी जान बचे। यह सरकार का अहंकार, खुदगर्ज़ी और परिस्थितियों का सम्यक आकलन न कर सकने की क्षमता ही कही जाएगी। यह एक जबरदस्त प्रशासनिक विफलता है।
वाराणसी के संत स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जो शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद के शिष्य हैं और वाराणसी के पुरा स्वरूप को बदलने वाले गंगा कॉरिडोर के खिलाफ एक अभियान छेड़े हुए हैं, ने स्वामी सानन्द की इस दुःखद मृत्यु पर को असामान्य मृत्यु बताया है। उन्होंने इसे स्वामी सानन्द जी की हत्या मानते हुए उनके शरीर के पोस्टमॉर्टम किये जाने की मांग की है। वे हैरानी जताते हुए कहते हैं कि
" यह कैसे हो सकता है कि जो व्यक्ति आज सुबह तक स्वस्थ अवस्था में रहे और अपने हाथ से ही प्रेस विज्ञप्ति लिखकर जारी करे वह 111 दिनों तपस्या करते हुये आश्रम में तो स्वस्थ रहे पर अस्पताल में पहुँच कर एक रात बिताते ही उनकी उस समय मृत्यु हो जाए जब वह स्वयं ही उनके शरीर में आई पोटेशियम की कमी को दूर करने के लिए मुख से और इन्जेक्शन के माध्यम से पोटेशियम लेना स्वीकार कर लिया हो । हमें पूरी तरह से यह लगता है कि स्वामी सानन्द जी की हत्या हुई है । "
उन्होंने तीन मांगे भी रखी हैं। वे चाहते हैं कि,
* स्वामी सानन्द जी के शरीर का पोस्टमार्टम हो ।
* क्योंकि हमें शंका है कि उनकी हत्या हुई है ।
* स्वामी सानन्द जी का शरीरं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को सौपा जाए । क्योंकि उन्होंने हमसे यह कहा था कि मेरे चले जाने के बाद मेरे शरीर को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के मेडिकल के विद्यार्थियों को अध्ययन के लिए दिया जाए ।
* उनकी मृत्यु की परिस्थितियों की जांच के लिये सीबीआई को नियुक्त किया जाये ।
शव का पोस्टमार्टम तो हो रहा है। पर शेष मांगो में सरकार क्या फैसला करती है यह देखना है।
उनकी मृत्यु ने सरकार की प्रशासनिक भूलों और गलतियों को भी उजागर कर दिया है। जिन परिस्थितियों में डॉ अग्रवाल का देहावसान हुआ है उन परिस्थितियों में इस मृत्यु पर निम्न सवाल उठते हैं।
* डॉ अग्रवाल के 112 दिनों के अनशन में केंद्र और राज्य सरकार ने उनकी जान बचाने के लिये क्या प्रयास किया ?
* आमरण अनशन पर बैठे व्यक्ति का नियमित चेकअप होता है और डॉक्टर की रिपोर्ट सरकार को बतायी जाती है ताकि सरकार अनशनकारीकोई निर्णय ले सके।
* मनुष्य का जीवन सर्वोपरि है। जीवन बचे इसके लिये शास्त्रों में खानपान की सभी वर्जनाएं भी खत्म करने का विधान है। फिर भी सरकार ने कोई ठोस प्रयास क्यों नहीं किया ?
* ऐसे अनशन तुड़वाने के लिए सरकार जनता के बीच से भी कुछ गणमान्य लोगों को ले जाकर डॉ अग्रवाल को समझा सकती थी। पर ऐसा क्यों नहीं किया ?
* डॉ अग्रवाल जिस गंगा संरक्षण एक्ट को पारित कराना चाहते थे, उस एक्ट को जनता के बीच उसके अध्ययन और उस पर बहस के लिये सार्वजनिक किया जाना चाहिये था, जो नहीं किया गया । क्यों ?
* नरेंद्र मोदी जी जब 2012 में देश के प्रधानमंत्री नहीं थे तब का उनका ट्वीट देखिये वे कितने चिंतित हैं डॉ अग्रवाल की सेहत और मिशन को लेकर और अब जब डॉ अग्रवाल ने पीएमओ को अपनी मांगे और अपने अनशन के मुद्दों को लेकर कई पत्र लिखे तो पीएमओ ने उनके पत्र का जवाब देना तो दूर उनकी पावती भी नहीं भेजी। क्यों ?
* पीएमओ ने क्या पीएम को डॉ अग्रवाल के उन पत्रों के बारे मे बताया जिनका उल्लेख डॉ अग्रवाल ने किया है।
* पीएमओ में गंगा प्रकोष्ठ भी है। पीएमओ को नमामि गंगे परियोजना की सारी रिपोर्ट भी भेजी जाती है। खुद पीएम वाराणसी से सांसद हैं और वे वाराणसी जाकर गंगा सफाई में अपना सक्रिय योगदान भी दे आये हैं। बनारस में कई परियोजनाएं भी चल रही हैं। फिर भी 112 दिन से एक संत खाना पीना छोड़ कर गंगा संरक्षण के लिये गंगा तट पर आमरण अनशन में बैठा है और किसी भी सरकार को कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा है। इतनी असंवेदनशीलता का क्या कारण ?
* जब डॉ अग्रवाल को डॉक्टरों ने पोटैशियम लेने के लिये यह कहते हुए मनाया कि आप की जान को खतरा है तभी क्यों नहीं सरकार ने उन्हें एम्स या अन्य बड़े अस्पताल में दाखिल कराया ?
* एक केंद्रीय मंत्री ने संत प्रोफ़ेसर अग्रवाल से कहा था कि “तुम मर ही जाओ.?” कौन है यह मंत्री ?
* अमर उजाला के अनुसार डॉ अग्रवाल की अनशन के दौरान ही एक केंद्रीय मंत्री से मोबाइल फोन पर वार्ता कराई गई थी। पांच मिनट तक चली वार्ता में ही मंत्री असहज हो गए और जब स्वामी सानंद ने अपनी मांग पर अड़े रहने की बात की तो मंत्री ने कहा, तुम मर ही जाओ।
सरकार के इस असंवेदनशील रवैये पर और भी सवाल उठेंगे। लोगो का मरना अब कोई मुद्दा नहीं रहा । किसी को गौरक्षा के नाम पर गुंडे मार रहे हैं, कहीं किसान अपनी जायज मांगों के लिये पुलिस की लाठी गोली से मारे जा रहे हैं, कहीं भीड़ धर्म और जाति पूछ कर मार दे रही है, कहीं विपन्नता खुदकुशी पर मजबूर कर रही है और हम न अन्याय पर मुखर हो रहे हैं और न ही सरकार के ठस, अहंकारी, खुदगर्ज और असंवेदनशीलता पर। अजब निर्लज्जता का यह दौर है।
© विजय शंकर सिंह
No comments:
Post a Comment