Sunday, 14 October 2018

राफेल सौदा - अनिल अंबानी का भी अब बचाव करना पड़ रहा है न मित्रों ? - विजय शंकर सिंह

किस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है अपने समर्थकों को  एकादशावतार ने !
दसाल्ट ने सबको ऑफसेट ठेका दिया।  कहते हैं अनिल अंबानी भी उसी में से एक है। और भी तो कंपनियां हैं। फिर अनिल अंबानी पर भी आप की उंगली क्यों उठी रहती है ? कितना मासूम सा तर्क देते हैं मेरे मित्रगण। यह नहीं उन्हें दिखता कि भारत के अन्य निजी पूंजीपति और अनिल अंबानी तथा उनकी कम्पनियां #राफेल में ऑफसेट ठेका पा गयीं पर अनुभवी #एचएएल को धेले भर का भी ठेका नहीं मिला। अकेला यही विंदु सरकार की नाकामी और सरकार की उद्योगपतियों के प्रति चरण चुम्बन लिप्सा को उजागर करता है।

क्या सरकार यह नहीं प्रयास कर सकती थी कि कुछ ठेका एचएएल को भी मिले। एचएएल हमारी कंपनी है। वह जनता के पैसे से गठित की गयी है। उसे सत्तर साल का जहाज बनाने का अनुभव है। दसाल्ट का मिराज इन्होंने बनाया। रूसी मिग इन्होंने बनाया। सुखोई ये बना रहे हैं। पर ठेका पा रहे हैं अनिल अंबानी जिनके पास अभी सरकार द्वारा दी गयी ज़मीन है केवल नागपुर में बस। न कोई अनुभव न कोई योजना। कभी कभी मुझे लगता है कि कहीं सरकार ने अनिल अंबानी को यह आश्वासन तो नहीं दिया है कि अभी ठेका दिला देते हैं और आगे चल कर एचएएल की एकाध यूनिट लीज पर दे देंगे !

8 अप्रैल 2015 तक हमारे विदेश सचिव को पता है कि एचएएल के साथ #दसाल्ट की बात लगभग तय है। इसके पहले 25 मार्च 2015 को दसाल्ट के सीईओ बेंगलुरु में यह साफ साफ कह चुके हैं कि दसाल्ट और एचएएल के बीच सारी बातें तय हैं, बस समझौते की औपचाररिकता सम्पन्न होनी है। अनिल अंबानी तब तक कहीं इस सौदे के परिदृश्य में है ही नहीं। उनकी तो कम्पनी ही कुछ हफ्ते पहले मुम्बई रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनीज़ #आरओसी के यहां रजिस्टर होती है। 10 अप्रैल 15 को हमारे पीएम का पेरिस दौरा होता है, और उसके बाद ही एचएएल बाहर हो जाती है। सरकार कहती है दसाल्ट पर दबाव नहीं था हमारी सरकार का। पर जब अनिल अंबानी को दसाल्ट यह सौदा दे रही थी तो सरकार ने यह क्यों नहीं देखा कि अनिल अंबानी को क्यों दसाल्ट एचएएल के ऊपर तरजीह दे रही है ? किन विन्दुओं पर अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस, एचएएल से बेहतर हैं। लेकिन क्यों देखेंगे ? सरकार जो चाहती थी, दसाल्ट वही कर ही थी।

यह धन जो राफेल की खरीद में जा रहा है हमारे टैक्सों का धन है न कि अनिल अंबानी की निजी जायदाद का । यह सरकारी पैसा है। और सरकार अपना हित, अपनी कम्पनी का हित छोड़ कर अनिल अंबानी का हित देख रही है ? यह सरकार शासन नहीं कुछ चुनिंदा पूंजीपतियों की दलाली कर रही है। सरकार अब सरकार रह ही नहीं गयी। केवल कुछ पूंजीपति घरानों की मार्केटिंग एजेंट बन कर रह गयी है। यही गिरोहबंद पूंजीवाद ( Crony Capitalism ) होता है। यह पूँजीवाद का सबसे विकृत रूप है। और सरकार के समर्थक सरकारी कंपनी के विरोध तथा एक डिफाल्टर पूंजीपति के पक्ष में खड़े हैं ! कमाल का वैचारिक दारिद्र्य है।

मिडियापार्ट का यह अंश पढ़ लीजिये जब टेंट में राफेल बनाने के सौदे का मुहूर्त हुआ और बेंगलुरु, कानपुर, लखनऊ जैसे अन्य स्थानों पर खड़ी एचएएल की मज़बूत और सक्रिय इकाइयां, केवल चुनावी चंदे और पूंजी सत्ता के आपराधिक गठजोड़ के चलते दरकिनार कर दी गयी।
" ‘यह एकदम झूठा लोकार्पण था. नागपुर (मध्य भारत) के एक मैदान में टेंट के नीचे ‘नींव का पत्थर’ रखा गया और ऐलान किया गया कि यह  ‘भविष्य की डास्सो-रिलायंस फैक्ट्री’ के निर्माण की शुरुआत है. मीडियापार्ट के पास आए डास्सो के एक आंतरिक दस्तावेज के मुताबिक, इस एविएशन समूह के एक सीनियर एग्जीक्यूटिव ने अपने स्टाफ प्रतिनिधियों को बताया था कि यह जॉइंट वेंचर राफेल सौदा हासिल करने के लिए ‘ट्रेड ऑफ’ और ‘अनिवार्य’ था.’

मीडियापार्ट की इस रिपोर्ट में डास्सो से प्राप्त एक दस्तावेज का हवाला देते हुए कहा है कि राफेल अनुबंध के लिए रिलायंस को ‘ट्रेड ऑफ’ (एक तरह का समझौता) के तौर पर पेश किया गया था. यानी अगर रिलायंस को पार्टनर चुना जाएगा, तभी उन्हें राफेल का कॉन्ट्रैक्ट मिलेगा। अगर इस खुलासे को सच माना जाये, तो यह नरेंद्र मोदी सरकार के उस दावे को ख़ारिज करता है, जिसमें उसने कहा था कि राफेल सौदे में ऑफसेट पार्टनर के रूप में रिलायंस के चयन में उसकी कोई भूमिका नहीं थी ।

सरकार या सत्तारूढ़ दल का समर्थन बिल्कुल गलत बात नहीं है। जिसे जो मन हो करे। सरकार का विरोध भी और समर्थन भी। पर सरकार पूंजीपतियों की जेब मे खड़ी दिखे और सरकार के समर्थन के नाम पर पूंजीपतियों के समर्थन में दुंदुभि पीटना पड़े तो यह सरकार का समर्थन नहीं चाटुकारिता की पराकाष्ठा है।

© विजय शंकर सिंह

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