अंग्रेज़ी के ख्यातनाम साहित्यकार विलियम शेक्सपियर ने जब अपने एक प्रसिद्ध नाटक रोमियो एंड जूलियट, में यह संवाद, नाम मे क्या रखा है लिखा होगा तो उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि उनके इस संवाद पर कभी बहस भी छिड़ेगी। बात भी सच है नाम मे कुछ नहीं रखा है। हम सबका पहला नाम तभी रख दिया जाता है जब हम नाम होता क्या है जानते भी नहीं है। बाद में जब हम बदलना चाहते हैं तो सरकार ने उसके लिये कई औपचारिकतायें तय कर रखी हैं। आज कल इलाहाबाद शहर के नाम को बदलने की सरकार कवायद कर रही है। सरकार सक्षम है कुछ भी बदलने के लिये वह शहर का कायाकल्प कर सकती है, नाम तो कुछ भी नहीं है उसके लिये, बशर्ते कुछ करना चाहे तो।
इलाहाबाद अंग्रेज़ों और ब्रिटिश हुक़ूमत का चहेता शहर रहा है। आगरा और अवध को 1902 में मिलाकर अंग्रेज़ों ने एक नया सूबा बनाया यूनाइटेड प्रोविन्सेस ऑफ आगरा एंड अवध। इसकी राजधानी बनी इलाहाबाद। इलाहाबाद 1857 की क्रांति में अंग्रेज़ों की मुख्य आपूर्ति रेखा बना रहा। वहीं से कानपुर का 1857 का विप्लव दबाने के लिये अंग्रेज़ों की कुमुक आयी थी। 1935 में जब गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट बना और उसके अनुसार पहली बार आम चुनाव हुए तो यूनाइटेड प्रोविन्सेस ऑफ आगरा एन्ड अवध का लंबा नाम छोटा कर दिया गया और तब नाम पड़ा यूनाइटेड प्रोविन्सेस जो आज़ादी के बाद उत्तरप्रदेश बन गया।
1835 तक आगरा नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविन्सेस की राजधानी रहा। अंग्रेज़ों ने उत्तर भारत पर अपना आधिपत्य तो जमा लिया था बस अवध ही बचा था। उसपर भी उनकी गिद्धदृष्टि लगी थी। 1835 में इलाहाबाद नार्थ वेस्ट प्रोविन्सेस की राजधानी बना। यह सिलसिला 1858 तक चला। एक दिन के लिये यह भारत ( जितना अंग्रेज़ों के कब्जे में था ) की भी राजधानी बना। 1902 में जब आगरा और अवध का यह संयुक्त प्रांत बना तो यह उसकी राजधानी बना और 1920 तक यह राजधानी बना रहा। उसके बाद राजधानी लखनऊ आ गयी।
अबुल फजल के के अनुसार, अकबर की यह दिली इच्छा थी कि वह गंगा यमुना के संगम पर एक भव्य नगर का निर्माण कराये। अकबरनामा के अनुसार, 13 नवंबर 1583 को अकबर इलाहाबाद पहुंचा जहां इस शहर को तब इलाबास कहा जाता था और धार्मिक दृष्टिकोण से प्रयाग। बदायुनी इसे प्रयाग न कह कर पियाग लिखता है। हो सकता है पियाग, प्रयाग का ही अपभ्रंश हो गया हो। अकबर ने संगम से हट कर एक नए शहर की नींव डाली जिसका नाम इलावास से बदल कर इलाहाबाद हो गया। अल्लाहाबाद जो अंग्रेज़ी में हम पढ़ते हैं वह नाम बाद में अंग्रेज़ी में ही पड़ा और आज भी अंग्रेज़ी में अल्लाहाबाद है तो हिंदी में इलाहाबाद। प्रयाग नाम धार्मिक दृष्टिकोण से तब भी था आज भी है। अकबर ने इलावास को ही बदल कर इलाबाद कर दिया था। जिसे बाद में शाहजहाँ ने इसे बदल कर इलाहाबाद नाम दिया । पहले कुंभ और संगम स्नान पर जहांगीर की मृत्यु के बाद जब शाहजहां गद्दीनशीन हुआ तो संगम पर जाने वाले तीर्थयात्रियों से इलाहाबाद का सुबेदार कर वसूलता था। जब इसकी शिकायत पंडित राज जगन्नाथ थे शाहजहां से की तो इस वसूली से अनभिज्ञ शाहजहां ने उक्त सूबेदार को न केवल दण्डित किया बल्कि करों की वसूली भी माफ कर दी।
1765 की संधि जो ईस्ट इंडिया कंपनी के रॉबर्ट क्लाइव और दिल्ली के मुगल बादशाह शाह आलम के बीच हुई थी उसमें बनारस, चुनार और इलाहाबाद के किले अंग्रेज़ों को मिले थे। यह संधि 1764 के अक्टूबर में बक्सर के युद्ध मे अंग्रेज़ों की जीत के बाद अंग्रेज़ों ने मुग़ल बादशाह से की थी। यह युद्ध और संधि सचमुच में मुगलों द्वारा सल्तनत बख़्श देने जैसी बात थी। 1765 की इस संधि के बाद इलाहाबाद अंग्रेज़ों के अधीन आ गया और संभवतः उच्चारण के कारण इलाहाबाद का अंग्रेज़ी में अल्लाहाबाद हो गया।
1801 में अंग्रेज़ों ने इलाहाबाद को व्यवस्थित रूप से बसाना शुरू किया। पुराना शहर या तो झूँसी में था या यमुना के किनारे किनारे चला गया था। गंगा का पाट यहां चौड़ा था और उसकी कई धाराएं उपधारायें थीं और बाढ़ के कारण उसके किनारे बसना निरापद नहीं था,अतः जो बस्ती बसी वह यमुना के किनारे बसी। इलाहाबाद अंग्रेज़ों के लिये रणनीति के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण शहर था। पेशावर से कलकत्ता तक जाने वाली ग्रैंड ट्रंक रोड भी शहर को छूते हुए निकलती थी। यमुना के गंगा में मिल जाने के कारण दिल्ली से कलकत्ता तक नदी मार्ग से आना जाना भी सुगम था। बाद में जब रेलों का आगमन हुआ तो इलाहाबाद मुख्य लाइन पर आया और सबसे पहले ट्रंक लाइनों में रेल विद्युतीकरण भी इसी लाइन का हुआ।
1857 में विप्लव की आंधी से इलाहाबाद भी अछूता नहीं रहा। हालांकि यहां मेरठ की तरह किसी सैनिक टुकड़ी ने विद्रोह तो नहीं किया और न ही अवध के ताल्लुकेदारों की तरह कोई व्यापक जुझारू युद्ध ही हुये, पर विप्लव को लेकर उत्तर भारत मे जो जागृति फैल रही थी, उसका असर इलाहाबाद पर भी पड़ा। मौलवी लियाकत अली ने यहां विद्रोह का स्वर बुलन्द किया । उनके साथ स्थानीय लोग थे। पर यह विद्रोह कानपुर, लखनऊ की तरह न तो उतना व्यापक रहा और न ही संगठित। नेतृत्वहीन और दिशाहीन तो था ही। कोलकाता के बाद सबसे अधिक यूरोपियन सैनिक यहीं थे। जो यूरोपीय ट्रूप्स शहर में थे, उसने इस विद्रोह को दबा दिया और इसे दबाने के बाद ही यहां से ट्रूप्स कानपुर की ओर बढ़े। क्योंकि कानपुर में स्थिति बहुत नाजुक थी। वह विप्लव का एक मुख्य केंद्र बन चुका था।
1858 के बाद अंग्रेज़ों ने इलाहाबाद को व्यवस्थित ढंग से बसाना शुरू किया। उन्होंने यहां उच्च न्यायालय की स्थापना की। यहां का उच्च न्यायालय देश का सबसे बड़ा उच्च न्यायालय है। इसी के बाद जब 1861 में पुलिस एक्ट बना तब व्यवस्थित पुलिस व्यवस्था के लिये पुलिस मुख्यालय की स्थापना हुई। आईजी जो प्रदेश पुलिस का प्रमुख होता था वह इलाहाबाद में ही तब बैठता है। आज भी पुलिस का मुख्यालय इलाहाबाद ही है। लखनऊ तो कैम्प कार्यालय है। लोक सेवा आयोग और राजस्व परिषद का भी गठन तभी हुआ। 1920 तक इलाहाबाद प्रदेश की राजधानी बना रहा। अंग्रेज़ों ने इसे भव्य और एक नियोजित नगर परिकल्पना से बसाया। 1920 के बाद यहां से राजधानी लखनऊ स्थानांतरित हो गयी।
अब फिर इस शहर का नाम बदल रहा है। अब यह इलाहाबाद से बदल कर प्रयागराज हो रहा है। बीच मे इलावास शब्द भी आया है। यही इलाहाबाद का पुराना नाम है। कथा पुरानी है पर रोचक भी है। यह कथा आर्यो के सरस्वती उपकण्ठ से पूर्व की ओर विस्तरित होने की है। आर्यो का कौन सा कबीला कब कहाँ से आकर सरस्वती के किनारे आ बसा यह इतिहास के पहले की बात है। सरस्वती नदी कभी एक सदानीरा और बड़ी नदी थी। उसके अवशेष झीलों, उपनदियों के रूप में आज भी हरियाणा से निकल कर राजस्थान के किनारे किनारे वर्तमान सिंधु के समानांतर होते हुए कच्छ की खाड़ी तक मिलते हैं। सरस्वती के अस्तित्व और उसकी लुप्तता पर पुरात्वविद शोध भी कर रहे हैं। उसके किनारे जो उत्खनन हुए हैं उसमें भी हड़प्पाकालीन सभ्यताएं मिली हैं। पर मुझे पुरातत्व की बहुत जानकारी नहीं है अतः इसे यहीं छोड़ता हूँ और मुख्य कथा पर आता हूँ।
1750 ईपू में सरस्वती नदी सूखने लगी थी। कहते हैं उसी कालखंड में सरस्वती का मुहाना जो कच्छ में था में व्यापक भू भौगोलिक परिवर्तन होने लगे परिणामस्वरूप सरस्वती का प्रवाह बाधित हुआ और यह सदानीरा नदी कहीं झील तो कहीं उपनदी होकर रह गयी। उस कालखंड में भयंकर अकाल पड़ने का भी उल्लेख है। ऋग्वेद की एक ऋचा के अनुसार कुत्ते की अंतड़िया उबाल के खाने का उल्लेख मिलता है। यही कारण आर्यों के इस कबीले का सरस्वती उपकण्ठ को छोड़ कर पूर्व की ओर प्रयाण करने का।
आर्यो में वैवस्वत मनु का उल्लेख आता है। मनु के सबसे बड़े पुत्र का नाम इछवाकु था। मनु ने इन्हें मध्य देश का राज्य दिया। अयोध्या इनकी राजसत्ता का केंद्र बना। मनु के दूसरे पुत्र नाभानेदिष्ठ थे जिन्हें कोसल के पूर्व में सदानीरा गंडक के पूर्व का क्षेत्र मिला। इन्ही के वंश में विशाल नामक एक राजा हुए जिन्होंने वैशाली की स्थापना की। वैशाली को भारत का सबसे प्रथम गणराज्य होने का सौभाग्य प्राप्त है। मनु के तीसरे पुत्र शर्याति ने काठियावाड़ के पास अपने राज्य की स्थापना की। शर्याति के पुत्र अनर्त के नाम पर आनर्त राज्य बना जिसकी राजधानी कुशस्थली ( आधुनिक द्वारिका ) बनी। मनु के चौथे पुत्र करुष, जिसके वंशज कारूष कहलाये, ने वर्तमान बघेलखंड के क्षेत्र में अपना राज्य बनाया। यह कबीला युयुत्सु और युद्धप्रिय था। इनकी राजधानी शोण वर्तमान सोन नदी के पूर्वी किनारे पर बसी। मनु के पांचवे, छठवें और सातवें पुत्र क्रमशः नाभाग, पृषघ्र और प्रांशु थे। एक पुत्र मनु का आर्यावर्त से बाहर चला गया और एक के बारे में कुछ ज्ञात नहीं है। मनु के दस सन्तानों में से 9 पुत्र और एक पुत्री इला थी।
पुत्री इला को मनु ने मध्यदेश में ही प्रतिष्ठानपुर ( झूँसी ) का राज्य सौंपा। इला का विवाह हिमालय निवासी चंद्रवंशी बुध से हुआ जिससे इन्हें पुरुरूवा नामक सन्तान जन्मी। इला बाद में शिव की कृपा से पुरुष बनी जिसका नाम सौद्युम्न पड़ा। सौद्युम्न के गय, उत्कल और हरिताश्व तीन पुत्र हुए। गय को बिहार का दक्षिणी भाग, ( वर्तमान गया का इलाका ) उत्कल को उड़ीसा और हरिताश्व को गया के पूर्व का भाग मिला।
पुरुरूवा को आयु और अमावसु नाम के दो पुत्र हुए। आयु को प्रतिष्ठानपुर का राज मिला और अमावसु को कान्यकुब्ज का क्षेत्र मिला। आयु के दो पुत्र हुए, नहुष और क्षत्रवृद्ध। नहुष को प्रतिष्ठानपुर का राज्य मिला और क्षत्रवृद्ध पूर्व की ओर काशी चले गए। जब क्षत्रवृद्ध के नेतृत्व में आर्यों का कबीला काशी पहुंचा तो वहां किरातों की बस्ती थी और महादेव शिव उनके आराध्य। किरात बताते हैं तिब्बत के दक्षिण हिमालय की जनजाति थी जिसके आराध्य शिव थे जो गंगा के साथ साथ आ कर काशी बस गए थे। इन्ही क्षत्रवृद्ध के पुत्र धन्वंतरि हुए जिनके पुत्र दिवोदास काशी के प्रथम राजा हुए। प्रतिष्ठानपुर का एक नाम मनु की पुत्री इला के नाम पर इलावास पड़ा जो इलाहाबाद का मूल नाम है।
प्रयाग, इलाहाबाद का ऐतिहासिक नाम ज़रूर है पर इसकी उतपत्ति का भौगोलिक कारण है। प्रयाग का एक शाब्दिक अर्थ संगम होता है। जहां दो या दो से अधिक नदियां मिलती है उसे प्रयाग कहते हैं। नदियां समाज और मानव की जीवन रेखा हैं। सारी सभ्यतायें नदियों के ही किनारे बसी और विकसित हुई हैं और जब नदियां सूखने लगी हैं तो, या तो सभ्यता नष्ट हो गयी या उसका पलायन होकर स्वरूप बदल गया । इसे आप मेसोपोटामिया, मिश्र, आदि सभ्यताओं का इतिहास पढ़ते समय देख सकते हैं। इलाहाबाद में दो बड़ी नदी जिसने दुनिया के सबसे उर्वर और विशाल मैदानी क्षेत्र का निर्माण किया, गंगा और यमुना का संगम होता है को बड़ा और महत्वपूर्ण संगम होने के कारण इस स्थान को प्रयागराज कहा गया। सरस्वती भी इसमें गुप्त रूप से आकर मिलती है। सरस्वती कहीं दिखती नहीं है पर हिमालय के पार होते ही भूतपूर्व सरस्वती से एक क्षीण रेखा यमुना में मिलती है और वही शाखा यमुना में समाहित हो कर इलाहाबाद के पास गंगा से मिल जाती है। इस प्रकार सरस्वती जो आर्यो के विकास की साक्षी नदी रही है के यहां मिलने से इस प्रयाग का महत्व द्विगुणित हो जाता है। इसी कारण धार्मिक दृष्टिकोण से यह प्रयागराज ही कहा जाता है।
अब सरकार इसका नाम बदल रही है। यह नाम परिवर्तन सरकार क्यों कर रही है यह तो वही जाने पर जनमानस से इलाहाबाद नाम उतर जाएगा, यह असंभव है। बनारस वाराणसी और काशी के बाद भी सामान्य बोलचाल में बनारस ही है। वाराणसी के राजा या तो काशी नरेश कहे जाते हैं या राजा बनारस। नाम बहुत गहरे पैठे होते हैं उन्हें जनमानस से निकालना बहुत मुश्किल होता है। इलाहाबाद नाम अपने विश्वविद्यालय, हाईकोर्ट आदि के कारण विश्वविश्रुत हो चुका है। नया नाम प्रयागराज भी लोक में अनजाना नहीं है पर वह जनमानस में उतना लोकप्रिय नहीं है जितना इलाहाबाद। फिर भी नाम मे क्या रखा है !
© विजय शंकर सिंह
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