Friday, 26 October 2018

सरकार विवादित अफसर ही क्यों महत्वपूर्ण पदों के लिये ढूंढती है ? / विजय शंकर सिंह

अच्छे अफसर इन्हें मिलते नहीं है या अच्छे अफसर इनके एजेंडे में फिट नहीं बैठते हैं ? सीवीसी जब नियुक्त हुए थे तब इसी मोइन कुरेशी को लेकर इनपर भी सवाल उठा था। राकेश अस्थाना पर तो याचिका तब भी दायर हुयी थी अब तो घमासान हो ही रहा है। अब जब नागेश्वर राव की नियुक्ति हुयी तो उनके भी कच्चे चिट्ठे सामने आने लगे। एक थे मुख्य चुनाव आयुक्त जो जाने के दिन दिल्ली के 27 विधायकों को अयोग्य घोषित कर अपना एहसान उतार कर घर चले गए। बिल्कुल हिज मास्टर्स वॉयस की तरह। नतीजा अदालत में छीछालेदर  और वे सारे विधायक पुनः वापस आ गए। ईडी में भी ऐसा ही विवाद चल रहा है। और अब ईडी प्रमुख करनैल सिंह का कार्यकाल खत्म होने के बाद,  ईडी प्रमुख के लिये भी जो नाम आ रहे हैं वे भी गुजरात कैडर के वे भी कम विवादित नहीं है। गोधरा का भूत उनके पीछे भी है। अभी उनका बस नाम ही चला है। अभी तो वे मैदान में आये ही नहीं हैं। आते ही उनके भी किस्से पढ़ लीजियेगा, अगर वे आये तो। सरकार, सरकार होती है। निजी जागीर नहीं। यह एक नियम कानून से चलती है न कि मर्ज़ी और सनक से। अब जमाना भी अब जिल्ले इलाही और हुक्म की तामील हो या जो हुक्म मेरे आका जैसे फंतासी जुमलों का नहीं रहा।

अब सारे चैनल भी अगर गोदी मीडिया में बदल जाँय, और हर वक़्त राग दरबारी गाने लगे तो भी सबके हांथो में डिजिटल इंडिया का यह स्मार्टफोन जिसने हर व्यक्ति को एक अखबार में बदल दिया है ताकतवर से ताकतवर सत्तांध को भूलुंठित करने की सामर्थ्य रखता है। इसके पहले कि न्यूज़ चैनल और अखबारों के सम्पादक यह तय करें कि कौन सी खबर कैसे किस रूप में प्रसारित और लिखी जाय सोशल मीडिया पर बैठे लोग उसे जस का तस प्रसारित कर देते हैं। अब अखबार सुबह की चाय की तरह एक तलब ही है वर्ना खबरें तो हर पल मिल रही है।

सीबीआई में मचे घमासान के बीच जब संयुक्त निदेशक नागेश्वर राव को कार्यवाहक बॉस बनाया गया तो शाम तक उनका इतिहास भी सबके मोबाइल में उजागर होने लगा। इतिहास में सच क्या है और झूठ क्या है यह तो बाद में पता चलेगा पर जैसी की नौकरशाही की क्षवि और साख बन चुकी है हर ऐसी ख़बरों पर लोगों को यकीन हो जाता है।फिर उनकी पड़ताल भी होती है और हर आदमी जांचकर्ता,  मुंसिफ और अदालत की भूमिका में आ जाता है।

यह कहना गलत होगा कि यही सरकार अपनी मर्ज़ी से अपने चहेते अफसरों को नियुक्त करती है। यह छांटो और चुनो की प्रक्रिया हर सरकार में रही है। आगे भी रहेगी। हर अफसर और सरकार अपना विश्वस्त और वफादार मातहत चुनता है। विश्वसनीयता और वफादारी का पैमाना स्वक्षेत्रवाद, स्वधर्मवाद, स्वजातीयवाद से भी प्रभावित हो सकता है और इन सबसे परे पेशेवरान गुणों से भी। पर स्वक्षेत्र, स्वधर्म और सजातीयता एक मानवीय प्रवित्ति है। पर यह देखना भी सरकार के मुखिया का दायित्व है कि वह अपनी कोर टीम चुनते समय इन सबको तरजीह देना किन्ही कारणों से ज़रूरी भी हो तो शीर्ष, संवेदनशील और महत्वपूर्ण पदों पर साफ सुथरी और प्रोफेसर क्षवि के  नौकरशाह या अफसरों को ही नियुक्त किया जाय।

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि अच्छे और अविवादित अफसर कम हैं या नहीं हैं। वे अच्छी खासी संख्या में हैं पर जैसी की हवा चल जाती है वे जानबूझकर कर थोड़ा इस धूल गर्दे से दूर रहने लगते हैं। जिसे हम लो प्रोफ़ाइल कहते हैं वैसे वे हो जाते हैं। सरकार को भी जो अक्सर चाटुकारों से घिरी नज़र आती है वह इन चाटुकारों की दीवार के पार देख भी नहीं पाती तो,कुछ इन चाटुकारों का दबाव, कुछ स्वार्थपूर्ति की लिप्सा, कुछ अपने दल के एजेंडा पूर्ति की महत्वाकांक्षा और कुछ जी जहां पनाह टाइप के अधिकारी , सरकार को कुछ देखने भी नहीं देते। यह एक विचित्र प्रकार का दूरदृष्टिदोष है। नतीजा, सरकार को भुगतना पड़ता है। एक अच्छे शासक को भी ऐसी दरबारी टीम विवादित बना देती है।

शासन करना आसान काम नहीं है। यह बहुत कठिन कार्य है। यह मैं नहीं कह रहा हूँ यह राम कह गए हैं। अध्यात्म रामायण  में एक प्रसंग के अनुसार वसिष्ठ और राम का संवाद जब राम अयोध्या के राजपद पर मूर्धाभिषिक्त हो चुके थे तो, तब का उल्लेख है। वशिष्ठ पौरोहित्य कर्म को सबसे गर्हित कार्य बताते हैं। तब राम उन्हें शासन करने को सबसे कठिन कार्य बताते है। गुरु शिष्य दोनों ही अपने मन की बात कर रहे हैं। राम को भी लोकापवाद झेलना पड़ा। लोक तब भी मुखरित था। तब तो अखबार भी नहीं थे। लेकिन लोकचर्चा की परंपरा तो थी। जनता महल के किस्सों को चटखारे लेकर तब भी बात करती थी आज भी बात करती है। निंदा रस कोई शास्त्रीय रस हो या न हो पर यह बतरस, रसराज श्रृंगार से भी अधिक आंनद  देता है। यह मानवीय प्रवित्ति है। इससे बचना असंभव है।

सरकार और दल का अंतर सरकार के मुखिया को समझना होगा। एक पार्टी का अध्यक्ष अपनी पार्टी के प्रति जवाबदेह होता है पर सरकार का प्रधान जनता के उस व्यक्ति के प्रति भी जवाबदेह होता है जिसने न सिर्फ उसे वोट नहीं दिया है बल्कि उसका ध्रुव और कटु आलोचक भी हो। क्योंकि तब वह दल का होते हुए भी, दल के लिये वोट मांगते हुए भी दल का ही नहीं रहता है।

सीबीआई का यह हालिया विवाद कोई सामान्य बात नहीं है। यह सरकार के लिये एक बड़ी चुनौती है कि वह भविष्य में ऐसे पेशेवर अफसरों का चयन करें भले ही वे सरकार के मुखिया या दल के एजेंडे की कसौटी पर खरे नहीं उतरे पर उनकी योग्यता सत्यनिष्ठा और प्रोफेशनल क्षमता संदिग्ध न हो । सरकार कोई भी हो सरकार का मूल तत्व यही नौकरशाही होती है। सरकार के मुखिया का ही यह कौशल होता है कि वह कैसे उपयुक्त स्थान के लिये उपयुक्त अफसर का चयन करता है। नौकरशाही को सनक और राजनीतिक मर्ज़ी से नहीं हांका जा सकता। अगर ऐसा किया जाता है तो इसका खामियाजा अंत मे राजनैतिक नेतृत्व ही भुगतता है। अमूमन अफसरों का कुछ खास नहीं बिगड़ता है।

© विजय शंकर सिंह

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