Sunday 3 January 2021

अर्थचर्चा - नवउदारवाद की आर्थिकी

24 जुलाई, 1991 को अपने पहले बजट भाषण में मनमोहन सिंह ने विक्टर ह्यूगो की प्रसिद्ध उक्ति को उद्धृत करते हुए कहा था, "दुनिया की कोई ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती , जिसका समय आ पहुंचा है।"

हालांकि, मनमोहन सिंह जो कह रहे थे या कहना चाह रहे थे उसे कुछ दूसरे शब्दों में लगभग एक दशक पहले मार्गरेट थैचर कह चुकी थी, "देअर इज नो अल्टरनेटिव"। थैचर ने यह तब कहा था जब बतौर प्रधानमंत्री उनके आक्रामक निजीकरण अभियान के विरोध में ब्रिटेन के कुछ बौद्धिक हलकों में हलचल मच रही थी।

यही वह दौर था जब थैचर के समकालीन रोनाल्ड रीगन ने अमेरिका में ऐसी ही आर्थिक नीतियों को जोरदार बढ़ावा दिया, जिसे उनके नाम के साथ जोड़ कर 'रीगनोमिक्स' की संज्ञा दी गई।
    
नियंत्रण की अंतिम हदों से भी मुक्त आर्थिकी के प्रति रीगन के दृढ़ विश्वास को 'रीगनोमिक्स' और रेलवे, एयरपोर्ट सहित बड़े-बड़े सरकारी उपक्रमों का तीव्रता से निजीकरण कर इसे ही 'अंतिम उपाय' मानने वाली थैचर की आर्थिक नीतियों को 'थैचरवाद' कहा गया।

1980 का दशक बीतते-बीतते रीगनोमिक्स और थैचरवाद की संज्ञाओं से विभूषित इन नीतियों का प्रभाव दुनिया के अन्य देशों पर भी पड़ने लगा और अर्थव्यवस्थाएं आम जनता के प्रति कल्याण की भावना से विरत होकर कारपोरेट जगत को प्रोत्साहित करने की मंशा से संचालित होने लगीं।

सोवियत संघ सहित दुनिया के अन्य कम्युनिस्ट देशों की आर्थिक विफलताएं उदाहरण बनने लगीं कि अर्थव्यवस्था को मुक्त करना ही  एकमात्र विकल्प है। अनेक कम्युनिस्ट देशों में तानाशाहियों, जिसे पश्चिमी मीडिया 'बर्बर' साबित करने का कोई मौका नहीं चूकता था,  ने पूरी दुनिया में मुक्त आर्थिकी के प्रति स्वागत का माहौल बनाने में बड़ी भूमिका निभाई।

दशक बीतते-बीतते भारत में भी नरसिंह राव की नई सरकार ने इस रास्ते पर कदम बढ़ा दिए और मनमोहन सिंह की बतौर वित्त मंत्री नियुक्ति इस संदर्भ में तार्किक कदम माना गया।

जाहिर है, जिन विचारों को लेकर भारत सहित दुनिया के बहुत सारे देश अपनी आर्थिक नीतियों में आमूल-चूल परिवर्त्तन करने लगे, उनका समय आ चुका था और विक्टर ह्यूगो के शब्दों में "जिन विचारों का समय आ पहुंचा है उसे दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती।"

'विचार'...ह्यूगो की उक्ति उन विचारों के संदर्भ में थी जो बदलती दुनिया में प्रासंगिक बन कर सामने आते हैं। स्पष्ट है कि 1990 के दशक के प्रारंभिक दौर में मुक्त आर्थिकी एक उत्साहित करने वाला विचार था जिनमें समृद्धि और रोजगार के सपने थे।

विचारकों के एक बड़े वर्ग ने शुरू से ही इन नीतियों का विरोध करना शुरू कर दिया क्योंकि उनके शब्दों में, "यह रास्ता आम लोगों को उस आर्थिक गुलामी की ओर ले जाने वाला है जिससे उन्हें बचाने की ऊर्जा राजनीति में भी बाकी नहीं रह जाएगी, क्योंकि एक दिन राजनीति भी कारपोरेट नियंत्रित हो जाएगी।"

बौद्धिकों के एक वर्ग के इस विरोध को "अप्रासंगिकताओं का अरण्य रोदन" करार देकर खारिज़ किया जाता रहा। सत्ता और कारपोरेट का गठजोड़ मजबूत होता गया और मीडिया इन शक्तियों का प्रवक्ता बन कर सामने आया।

भारत में एक के बाद एक सरकारें बनती-बिगड़ती रहीं लेकिन अर्थव्यवस्था को खोलने की मुहिम सरकार दर सरकार जारी रही। क्या कांग्रेस, क्या भाजपा, क्या संयुक्त मोर्चा, क्या यूपीए, क्या एनडीए...तमाम सरकारों ने इस रास्ते देश को धकेलने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।

हमें हमेशा उदाहरण दिया जाता रहा कि दिवालिया होने के कगार पर पहुंचे हमारे देश की हालत यह हो चुकी थी कि सोना तक गिरवी रखने की नौबत आ गई थी। वह तो राव-मनमोहन की नीतियों ने इस गिरती हालत से देश को उबारा और समृद्धि के जिस रास्ते पर वे चले उसी का नतीजा है कि हम आज विश्व अर्थव्यवस्था की सशक्त कड़ी के रूप में सिर उठाए खड़े हैं।

1991 के बाद तीन दशक बीत चुके हैं।
हमें देखना होगा कि उन विचारों ने हमें कहाँ पहुंचाया है।

आज हम रेलवे और एयरपोर्ट्स आदि के निजीकरण तक पहुंच चुके हैं। स्कूली शिक्षा की मुख्यधारा निजी हाथों में जा चुकी है और उनकी लूट के विरोध में अभिभावक कसमसाने के सिवा कुछ नहीं कर पा रहे। निजी क्षेत्र की तकनीकी शिक्षा ने तो लूट का रिकार्ड कायम कर दिया जबकि अधिकतर संस्थानों का शिक्षण की गुणवत्ता से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा। उन्होंने ऐसे ग्रेजुएट्स की बेरोजगार फौज तैयार कर दी जिनके बारे में खुद 'एसोचैम' ने ही वक्तव्य दिया कि भारत के 75 प्रतिशत तकनीकी ग्रेजुएट नौकरी में रखने के लायक नहीं हैं।

निजी अस्पतालों ने 'हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर' के नाम पर सरकारों से महंगी जमीनें कौड़ियों के मोल हथियाने का सिलसिला शुरू कर दिया और फिर लूट का एक अमानवीय चक्र चलने लगा।

इन तीन दशकों के बाद हमें सोचना होगा कि उन 'विचारों' ने हमें कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया है जिन्हें उस दौर में "दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकती थी।"

निश्चित रूप से देश में समृद्धि आई है, लेकिन इसका बड़ा हिस्सा एक खास वर्ग ले उड़ता रहा और जनता का एक बड़ा वर्ग वंचितों की श्रेणी में ही बना रह गया। न हम कुपोषण के मामले में अपना ग्राफ सुधार पाए, न ग्रामीण और शहरी गरीबों की शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था को सुधार पाए।

इन दशकों के दौरान हमने ऐसा मध्य वर्ग उभरते और समृद्ध होते देखा जो इस देश की दो तिहाई बेहद गरीब जनता के प्रति उच्च वर्ग से भी अधिक घातक वर्ग शत्रु बन कर उभरे।

मध्य वर्ग ने महसूस किया कि निम्न तबके के अकुशल और अर्द्धकुशल कामगारों के शोषण में ही उनकी समृद्धि का एक आयाम खुलता है तो उन्होंने उनके शोषण के प्रति न सिर्फ अपनी आंखें मूंद लीं, बल्कि उस शोषण चक्र का हिस्सा भी बन गए।

नरसिंह राव से नरेंद्र मोदी, वाया देवगौड़ा, गुजराल, वाजपेयी, मनमोहन, की यात्रा में हमने सत्ता को कारपोरेट के हाथों का खिलौना बनते देखा। कैपिटलिज्म की यात्रा को क्रोनी कैपिटलिज्म के मुकाम तक पहुंचते देखा।

कुछ खास कारपोरेट प्रभुओं की दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती समृद्धि उनकी मेहनत से अधिक क्रोनी कैपिटलिज्म का बेहतरीन उदाहरण है।

इन तीन दशकों की यात्रा में हमने उस मध्य वर्ग को विचारहीनता का उत्सव मनाने वाली जमात के रूप में विकसित होते देखा जो कभी विचारों को सहेजता था। उनकी आत्ममुग्धता आत्मघात के स्तर तक पहुंचती गई, लेकिन उनमें सचेत होने के कोई लक्षण नहीं दिखाई पड़ते।

कामगारों के आर्थिक, मानवीय और सामाजिक हितों की सुरक्षा के लिये चले लंबे संघर्षों से प्राप्त अधिकारों को इन तीन दशकों में क्रमशः खोते जाने का सिलसिला हम देखते रहे। बीमा कम्पनियों के उभरते बाजार को आधार देने के लिये सरकारी कर्मियों के पेंशन का खात्मा इसी चक्र का एक महत्वपूर्ण अध्याय था।

अभी पिछले वर्ष ही एक महिला सिक्युरिटी गार्ड की इसलिये मौत हो गई क्योंकि उसका प्रसव काल नजदीक आता जा रहा था लेकिन उसकी कम्पनी ने उसे छुट्टी देने से इन्कार कर दिया। कम्पनी की सेवा शर्त्तें किसी स्त्री कामगार को वेतन सहित प्रसव अवकाश की इज़ाज़त नहीं देती थी और अपने वेतन को बचाने के विवश लोभ में वह महिला गार्ड प्रसव काल के अंतिम छोर तक काम करती रही। नतीजा, वह मर गई। स्त्री अधिकारों के लिये लड़ने-बोलने वाले लोगों को हमने इस गरीब महिला सिक्युरिटी गार्ड की निर्मम सांस्थानिक हत्या पर कुछ अधिक कहते नहीं सुना।

कहा गया कि आर्थिक उदारवाद स्त्रियों को, दलितों को, पिछड़ों को सामाजिक मुक्ति का प्लेटफार्म देगा। लेकिन, हमने देखा कि वंचित हर तबका इस नवउदारवादी व्यवस्था में शोषण के नए दुष्चक्रों में उलझने लगा।

मानवीय धरातल पर जो श्रम कानून जरूरी थे, उन्हें उद्योग-व्यापार विरोधी ठहरा कर बीते तीन दशकों में एक-एक कर खत्म किया जाता रहा जिसका नवीनतम अध्याय नरेंद्र मोदी सरकार के नए श्रम कानून संशोधनों में देखा जा सकता है जिनमें कहा गया है कि अब कंपनियां स्थायी नौकरी के बदले 'फिक्स्ड टर्म कांट्रेक्ट' पर कर्मचारियों को नौकरी देंगी और जब भी उन्हें नौकरी से निकाला जाएगा तो कंपनी उन्हें कोई मुआवजा देने को बाध्य नहीं होगी।

विखंडित होता समाज नव उदारवादी शक्तियों के उत्कर्ष के लिये उर्वर ज़मीन मुहैया कराता है। इसलिये, हम बीते दशकों में अपने समाज को खंड-खंड बिखरते देख रहे हैं। ऐसा पूरी दुनिया में हुआ है। हम जितना ही बिखरते गए, सत्ता और कारपोरेट का गठजोड़ उतना ही मजबूत होता गया। नतीजा, किसी दौर में हम सत्ता नियंत्रित आर्थिकी की जंजीरों में कसमसा रहे थे, आज आर्थिक प्रभुओं द्वारा नियंत्रित सत्ता की अराजकताओं का सामना करने को विवश हैं।

जो विचार 90 के दशक में अपरिहार्य लग रहे थे, वे आज हमें कहाँ ले आए हैं? मनुष्यता आज जितने खतरे में है, ऐसी कल्पना हमने तीन दशक पहले नहीं की थी, हालांकि कई विचारक तब भी हमें चेतावनी दे रहे थे।

भारत इस मायने में अनोखा है कि जब ब्रिटेन में थैचरवाद और अमेरिका में रीगनोमिक्स सवालों के घेरे में है, माननीय नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हम तेजी से उन रास्तों पर कदम बढ़ाते जा रहे हैं।

ब्रिटेन ने थैचर द्वारा निजीकृत रेलवे के बड़े हिस्से का फिर से राष्ट्रीयकरण कर दिया है, न्यूजीलैंड में "हमारे रेलवे ट्रैक हमें वापस करो" का सिंहनाद करती जनता निजीकरण के खिलाफ सड़कों पर उतरी, यूरोप के अनेक देशों में पेंशन की पुनर्बहाली और जन उपयोगी उपक्रमों के निजीकरण के खिलाफ जनता सड़कों पर उग्र प्रदर्शन कर रही है...हमारे देश में रेलवे, जो राष्ट्रीय एकता का प्रतीक और सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता रहा, आज क्रमशः निजी हाथों में सौंपा जा रहा है, बड़े-बड़े एयरपोर्ट्स, रेलवे स्टेशन सहित लाभ कमा रहे बड़े सार्वजनिक उपक्रम औने-पौने दामों पर बेचे जा रहे हैं, हमारी अर्थव्यवस्था के सुदृढ स्तंभ रहे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक दिवालिया होने के कगार पर हैं और उनका निजीकरण बस कुछ समय की बात रह गई है। सर्वत्र आर्थिक अराजकता का माहौल है और आम जनता के मुद्दे अंधेरों में खो चुके हैं।

90 के दशक में हमें सपने दिखाए गए कि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था मुक्त होती जाएगी, रोजगारों का सृजन होता जाएगा और देश मे बेरोजगारी अतीत की स्मृति भर रह जाएगी। आज कहा जा रहा है कि देश में बेरोजगारी की दर बीते 45 वर्षों में सबसे अधिक है।

ऊपर से, हमने ऐसी शिक्षा प्रणाली अपनाई जिसने कैरियर में अवसर की समानता के सिद्धांत को ही खत्म कर दिया। वंचित तबकों के बच्चे बचपन से ही मजदूर बनने के लिये तैयार होने के अलावा  कुछ अधिक नहीं कर सकते, जबकि महंगी होती शिक्षा ने मध्य वर्ग की कमर तोड़ कर रख दी है। चिकित्सा की तो बात ही क्या करनी।

हम कहाँ से चले थे, किन सपनों के साथ चले थे और आज कहाँ पहुंच गए हैं। जो विचार हमारे सपनों के केंद्र थे, आज बड़े कारपोरेट प्रभुओं की जेब में हैं। राजनीति अर्थव्यवस्था की संचालिका शक्ति नहीं, कारपोरेट प्रभुओं द्वारा खेला जाने वाला खेल बन गई है, जिसमें सिक्का चाहे जिस पहलू में गिरे, लाभ उन्हें ही होना है। मानवता अब कोई सिद्धांत नहीं रह गया क्योंकि बाजार की शक्तियां मानवता की कब्र पर ही फलती-फूलती हैं।

विक्टर ह्यूगो के शब्दों में ही फिर से दुहराने को जी चाहता है कि जिन विचारों के आने का समय आ गया है उनके लिये क्रियान्वित हो रहे विचारों को जाना ही होगा। हमारी आत्महंता पीढ़ी ने जिन विचारों का स्वागत किया, उन्हें गले लगाया, उनका दंश अभी कई पीढ़ियों को भोगना होगा। शैतान के पंजे बहुत मजबूत हैं। उनकी जकड़ से अपनी व्यवस्था को छुड़ाने के लिये कई  पीढ़ियों को संघर्ष करना पड़ेगा।

तब तक...मनुष्यता की कब्र पर बाजार का नग्न नर्त्तन देखते रहने को हम अभिशप्त हैं।

( हेमंत कुमार झा )

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