Friday 22 January 2021

शब्दवेध (84) ज्यों ज्यों सुरझि भग्यो चहत...

मैं  भाषा के सवाल की ओर  मुड़ना चाहता हूँ पर इसकी तुलनात्मक प्रस्तुति में, यूरोप को सदा से सबसे आगे सिद्ध  करने के लिए जिस तरह की सुनियोजित धाँधली की गई,  इतिहास, भाषा समस्या और सभ्यता विमर्श को उलट दिया गया,  उसकी सचाई सामने लाने के लिए सभ्यता विमर्श में उलझ गया। यदि उलझ ही गया तो कुछ बातों को स्पष्ट कर देना जरूरी है। इसे बिन्दुवार रखें तो:

1. सभ्यता कृषि से आरंभ होती है। इसके दो चरण हैं, एक झूम खेती जिसके लिए दो शब्द प्रयोग में आते हैं।  एक शिफ्ट ऐग्रीकल्चर जो झूम खेती का अनुवाद है। दूसरा काटो, जलाओ  का तरीका - स्लैश ऐंड बर्न सिस्टम। दूसरा बाद का चरण है जब पेड़ों को काट गिराने के लिए कम से कम पत्थर के कुठार (अश्मन्मयी वाशी)  तैयार होने लगे थे।  

1.1 इसमें स्थान बदलने के दो कारण थे। पहला आसुरी समाज का उपद्रव  जिसकी विकरालता का आज अनुमान करना कठिन है और  दूसरा भूमि की उर्वरता का चुक जाना।  जैसा कि प्राचीन कृतियों में लिखा गया है, असुरों के उपद्रव के कारण खेती करने वालों काे प्राण रक्षा के लिए दूर दूर तक पलायन करना पड़ा, परन्तु इसका शुभ पक्ष यह था कि इसके फलस्वरूप बहुत थोड़े समय में जिसमें कौन पहले और कौन  बाद में तय करना कठिन है, अपनी स्थानीय सुविधाओं और सीमाओं में खाद्यन्नों की पहरेदारी और उत्पादन आरंभ हो गया। 

1.2 अन्यत्र कहीं उस तरह का लंबे समय तक चलने वाला विरोध नहीं सुनने में आता।  इन विरोधों और कष्टकथाओं की कहानियों ने मौखिक इतिहास और पुराण कथाओं  का रूप लिया। इस तरह खेती का आरंभ पौराणिक कथाओं का या ऐतिहासिक चेतना का भी आरंभ था। इसमें कितने समुदाय सक्रिय थे इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

2.  दूसरा चरण इनमें से एक जत्थे के द्वारा ‘पूर्वोत्तर’ की दिशा में एक सुरक्षित क्षेत्र में जहाँ  असुरों से उनका टकराव न था, स्थायी निवास करते हुए कृषिकर्म में उन्नति करने का है। आबादी बढ़ने और नए कछारों की खोज में ये मैदानी भाग में आए और जहाँ अधिक कुश-कास जलाने की समस्या कहीं कहीं पैदा हो सकती थी, अन्यथा न जंगल जलाना था न असुरों/राक्षसों से सीधा टकराव था।  इनके लिए देव शब्द का प्रयोग होता था।  सच कहें तो व्यवस्थित खेती का आरंभ इनसे जुड़ा है और इनकी सफलता के प्रभावित हो कर दूसरे समुदाय इनके संपर्क में आते रहे।  इन्हीं की बोली को तथाकथित भारोपीय का आदि रूप कहा जा सकता है।

2. 1 कृषिकर्म केवल अनाज पैदा करने तक सीमित न था, एक ओर यह भूमि की उर्वरता बढ़ाने, नए बीजों की खोज,  बोआई के लिए सही ऋतुकाल की पहचान,  सिंचाई के साधनों के उपयोग और निर्माण, खाद पानी की सही मात्रा का निर्धारण,  बीजों को घुन और पई से बचाने आदि की चिंताओं से जुड़ा था, जिसके लिए गणना, ज्योतिर्विज्ञान, ग्रहों-नक्षत्रों की पहचान और नामकरण आदि का विकास हुआ,  दूसरी ओर अनाज को सुपाच्य और सुस्वाद बनाने के लिए प्रसाधन के यंत्रों, भांडो, विधियों, अलंकरणों  अर्थात् मधु, लवण, मसालों आदि की पहचान, परिवहन के साधनों, पाशविक शक्ति का मनुष्य के पेशीय बल के सहयोगी या विकल्प के रूप में  उपयोग के लिए पशुपालन, प्रशिक्षण, पशु उत्पाद के उपयोग आदि के क्रम में अनेक प्रकार के ज्ञान, विज्ञान, कला आदि का संकुल या complex था, जिसे कृषि उद्योगविद्या कह सकते हैं। 

2.2  ये विकास चलंता खेती या झूम प्रणाली में संभव न था। यही कृषि के स्थायी बनने का अंतर था।   कृषि की ओर अग्रसर होने वालों को इसके लिए किसानी के क्षेत्र में दक्ष समुदाय की बोली सीखनी होती थी। कृषिकर्म के निषेध से बँधे होने के कारण कृषि उत्पाद पाने के लिए ऐसी योग्यताएँ विकसित करनी (पेशे अपनाने) होती थीं और इन दोनों स्थितियों में मन्दगति से ही सही किसानों का अनुसंगी बनना होता था, उनकी भाषा अपनानी होती थी और संधिकाल या भाषाई संक्रमण काल में उनकी अपनी बोली का, अदृश्य ही सही, प्रभाव किसानों की भाषा पर भी पड़ता था और उनकी ध्वनिमाला में कुछ नई ध्वनियाँ जुड़ जाती थीं।  

2.3  यह है स्थायी खेती अपनाने वाले गंडक मुख से सटे, नेपाल के तराई भाग में कुछ सौ साल रहने के बाद साहस जुटा कर मैदानी कछारों पर में मात्र छींटा पद्धति पर निर्भर किसानों का क्षेत्रविस्तार और उनकी भाषा का अन्य भाषा भाषियों के बीच प्रसार का रहस्य। भाषा उन्हीं की सर्वमान्य रहनी है पर उसे अपनाने वालों की भाषा से यह अप्रभावित नहीं रह सकती थी।  यह है कृषि के आविष्कार, विकास, प्रसाऱ और रूपान्तरण का बीज मंत्र।

3. जब हम विश्व-सभ्यता के भारत से आरंभ की बात करते हैं तो हमारे सामने  भारत नहीं, ये तथ्य होते हैं। भारत से सुमेरी सभ्यता के जन्म पर विचार करते समय एक लंबे अंतराल के बाद सुमेरियाई परंपरा का यह स्वीकार कि आगंतुक समुद्र मार्ग से आए थे, आरंभ में वे अपनी नौकाओं पर रहते थे, उनका नेता औएनेस था और उशना की समानता, बलि के विषय में यह विश्वास कि वह साल में एक बार अपनी प्रजा का हाल जानने आते हैं, सुमेरी पुरोधाओं का भी कृषिकर्म से परहेज और पुरोहिती तक सीमित रहना, सुमेर मे भैंस और धान की खेती के प्रवेश और सुमेरी जनों मे अभिजात वर्ग के डी एन ए की सिंधु-सारस्वत क्षेत्र से समानता और भारतीय स्रोत में असुरों का लाभ के बँटवारे मे भेदभाव को ले कर तकराऱ उनका पाताल भेजा जाना और साथ ही यह स्वीकार आता है कि असुरों ने पहले सुदूर देश मे नगर बसाए, फिर देवों को अपने नगर बसाने का ध्यान आया।  इसके बाद मेसोपातामियाई और मिस्री सभ्यताएँ आती हैं जो इसका ही विस्तार या इससे प्रेरित हैं।

4. अब इस संदर्भ में यूनानी, रोमन, कहें यूरोपीय सभ्यताओं के विषय में उनकी अपनी परंपर क्या कहती है इसे निम्न लंबे उद्धरण से समझें जिसका हवाला पहले भी एक लेख में दे चुका हूँ: 

Edim or Edume, and Erythra or Phoenice, had originally, as many believe, a similar meaning, and were derived from  word denoting a red colour, but, whatever be their derivation, it seems indubitable, that a race of men were anciently settled in Idume and Median, whom the oldest and best Greek authors call Erythreans; who were very distinct from the Arabs; and whom from the concurrence of many strong testimonies, we may safely refer to the Indian stem. M.D'Herbelot mentions a tradition, (which he treats, indeed, as a fable) that a colony of those Idumeans had migrated from northern shores of the Erythrean sea, and sailed across the Mediterranean to Europe, at the time fixed by the chronologers for the passage of Evander with his Arcadians  into Italy, and that both Greeks and Romans were the progeny of those emigrants: it is not on vague and suspected traditions, that we must build our belief of such events; but Newton, who advanced nothing in science without demonstration, and nothing in history without such evidence as he thought conclusive, asserts from authorities, which he had carefully examined, that the Idumean voyagers "carried with them both  arts and sciences, among which were their astronomy, navigation, and letters; for in Idume, says he, they had letters and the names of constellations, before the day of Job, who mentions them." JOB, indeed, or the author of the book, which takes its name from him, was of the Arabian stock, as the language of that work, incontestably proves; but the invention and propagation of letters and astronomy are by all so justly ascribed to the Indian family, that if Strabo and Herodotus were not grossly deceived, the adventurous Idumeans, who first gave name to the stars, and hazarded long voyages in ships of their own construction, could be no other than a branch of the Hindu race: in all events, there is no ground for believing them, till we meat them again, on our return, under the name of Phenicians. 
( William Jones, 8th Annual Discourse, Asiatick Researches, Vol. 3, P. 2-3.)

अब यहां दो प्रश्न खड़े होते हैं कि कहाँ वैदिक संस्कृति और वैदिक भाषा और देव समाज वाला  भारत और कहाँ फिनीशियन और उनसे मिलते जुलते समुदाय?  यहाँ यह याद रखना होगा कि समुद्रमंथन से ले कर दूसरी कहानियों में और वास्तविक जीवन में नौवहन में और शिल्प तथा उद्योग में भारतीय वर्चस्व असुरों की दक्षता पर निर्भर करता था, साहित्य से लेकर व्यवहार में वे बहुत अक्खड़ थे और भाषा और संस्कृति के मामलों में कभी समझौता किया न उस टैबू या कृषिकर्म  की वर्जना  का उलंघन किया जिसके कारण उन्हें शूद्र बन कर असुविधाएँ झेलनी पड़ीं।  

भारतीय सभ्यता का अर्थ वैदिक सभ्यता कभी न था, और जैसा पहले कह आए हैं  जिस भाषा का प्रसार हुआ वह केवल वैदिक या संस्कृत न थी़ यद्यपि सभी के बीच पारस्परिक संपर्क की भाषा वैदिक थी। फीनिशियाई वही नौचालक वर्ग था।  इसके विषय में एक पोस्ट और करनी होगी।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


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