Saturday 23 January 2021

शब्दवेध (86) फिनीशियन - 2

कई स्रोताे को छानने के बाद पता चला कि पुरानी सूचनाओं को दरकिनार करते हुए उनको सामी सिद्ध करने के प्रयत्न में उनकी पूर्वी गतिविधियों की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, उनकी यात्रा की अधिकतम दूरी ब्रिटिश द्वीप समूह तक ही दिखाई जा रही है, मानो भारत से वे अपरिचित रहे हों। ऐसा  उसी योजना के अन्तर्गत किया जा रहा है जिसमें भारत की अवज्ञा या अपमूल्यन के प्रयास किए जाते रहे हैं, या नहीं, यह हमें पता नहीं। हमारी पहले की सूचनाओं में दो बातें कुछ अटपटी लगती हैं। पहली, वे खेत की बोआई के बाद दो साल तक की लंबी यात्रा पर निकल पड़ते थे और अफ्रीका का चक्कर लगा कर भारत तक पहुँचते थे। इसकी बारीकी में जाना ठीक न होगा।  दूसरे पक्षों की पड़ताल उनकी पहचान और योगदान और परिणति पर पहुँचने के लिए जरूरी है, क्योंकि इससे भारतीय इतिहास के ऐसे पक्षों पर प्रकाश पड़ता है जिसे किसी अन्य स्रोत से समझा नहीं जा सकता। 

इतिहास के स्रोत के मामले में विलियम जोंस कुछ मामलों में सबसे कम भरोसे के हैं।  वह क्षीण सूचनाओं या सादृश्यों के आधार पर अपने तर्क कौशल से एक कहानी गढ़ लेते हैं, और उनका लेखन अपनी बात मनवाने की जिद का रूप ले लेता है। पर वहाँ भी तथ्यों की प्रस्तुति में वह किसी तरह का हेर फेर नहीं करते। एक ऐसी भ्रामक स्थिति में, जिसमें किसी को यह तक पता नहीं कि फिनीशिन अपने को कहते क्या थे,  उनका कोई एक राज्य क्यों न था, उनके जितने नगर थे - तायर, सीदोन,  गेलबल/बाइब्लस -आदि वे स्वतंत्र नगर राज्य थे और इसके बाद भी वे किस तरह इतने प्रभावशाली हो गए थे कि उन्होंने भूमध्य सागर के दोनों तटों पर स्पेन तक, जगह-जगह अपने अड़्डे कायम कर लिए थे और पूरे भूमध्य सागर पर उनकी तूती बोलती थी। 

जिसे हेरोदोतस ने फिनीशियन की संज्ञा दी उनको कई दूसरे नामों - एदीम, एदुमे, एरिथ्रा आदि-  से भी पुकारा जाता था, और इस बात के निर्णायक प्रमाण जोंस ने दिए हैं कि ये भारतीय थे। 
“very distinct from the Arabs; and whom from the concurrence of many strong testimonies, we may safely refer to the Indian stem.” 

ऐंश्येंट हिस्ट्री एनसाइक्लोपिडिया में भी जिसमें उन्हें सामी सिद्ध करने के लिए कुछ खींच-तान  की गई है, यह सचाई छिप नहीं पाती कि वे भारतीय मूल के थे।  उनके जहाजों के माथे पर जल के देवता के सम्मान में घोड़े के सिर की आकृति बनी होती थी। यह देवता थे यम अर्थात् मौत 
(The Phoenicians were a great maritime people, known for their mighty ships adorned with horses’ heads in honor of their god of the sea, Yamm, the brother of Mot, the god of death.) 
यम और उसका भाई मोत अर्थात् मौत विलियम जोंस के दावे पर मुहर लगाते हैं कि वे न केवल भारतीय मूल के थे अपितु वैदिक कालीन बोलचाल की भाषा का व्यवहार करते थे। उनके संपर्क में आने पर उत्तर के किसी क्षेत्र से इटली और ग्रीस में बसे पशुचारण करने वाले जत्थे इनकी भाषा को अपनी बोलियों की सीमाओं में अपनाते हुए वैदिक भाषी ही नहीं बने थे, अपितु कला, ज्ञान-विज्ञान और उद्योग-विद्या अपना कर, विशेषतः नौवहन अपना कर, उन द्वीपों पर भी बस गए थे जिनसे पहले संपर्क संभव न था।  

वे रंग-रूप में बाद तक उस क्षेत्र के दूसरे जनों से भिन्न, संभवतः पीत-रक्ताभ या गेहुँए रंग के थे।  इसे वस्त्र का रंग उनके पूरे समुदाय की त्वचा में  उतर आने के रूप में कल्पित किया गया जब कि इसके लिए तायर विख्यात था, 
“the Phoenicians being known as 'purple people’ by the Greeks (as the Greek historian Herodotus tells us) because the dye would stain the skin of the workers. वही।

हमारे सामने जो चित्र उभरता है वह यह कि भारत में सभी नगरों की अपनी स्वायत्तता थी। जिन्हें हम हड़प्पा के नगरों के रूप में जानते हैं, वे नगर राज्य थे। सभ्यता का क्षत्र सर्वमान्य था - वही मान, वे ही बाट, वही मुहरें, वही लिखावट एक पर भीतरी प्रतिस्पर्धा ऐसी कि जिस मार्ग से चेदि अपने अभियान पर जाते थे, उससे कोई दूसरा नहीं जा सकता था - माकिरेना पथा गाद्येनेमे यन्ति चेदयः।  इस कलह का सबसे गोचर रूप दाशराज्ञ युद्ध में देखने में आता है। हमने 1987 में ही, कुछ डरते डरते यह सुझाव रखा था कि सुदास और दूसरे प्रतापी लोग, राजा नहीं, व्यापारी थे (2011 संस्करण, पृ. 118)। आज मैं यह दावा अधिक विश्वास से कर सकता हूँ कि वे नगर सेठ थे जिनके हाथ में नगर प्रशासन भी था, जिसका एक आदर्श था जिसका पालन सभी करते थे और जिससे इस भ्रम को बढ़ावा मिलता था कि पूरा क्षेत्र एक शासन के अधीन था।

इसका अधिक अच्छा उदाहरण  यह है कि स्थल मार्ग के व्यापार में  हित्ती, मितन्नी, कस्साइट अनेक प्रतिस्पर्धी थे । ऐसी ही होड़ समुद्री व्यापार मे भी थी।  इन्होंने धीरे-धीरे, बहरीन, ओमान, यमन, पश्चिमी दक्षिणी अरब, इथोपिया, और लाल सागर पर्यन्त के भाग अपना दबदबा कायम कर लिया था।  इरिट्रियन का शाब्दिक अर्थ वही था जो पर्पल का।  इन जनों के लिए इरिट्रियन का प्रयोग यूनानियों द्वारा पहले भी होता था। इसका नतीजा यह कि कभी तो इरिट्रियन सागर का प्रयोग लाल सागर के लिए होता था पर मोटे तौर पर  अदन की खाड़ी,  फारस की खाड़ी और सिंध तक के अरब सागर  के लिए प्रयोग होता था।  दूसरे शब्दों में कहें तो इन जनों के उद्गग क्षेत्र से पूरे प्रसार क्षेत्र को इसी नाम से जाना जाता था:
The Periplus of the Erythraean Sea (Greek: Περίπλους της Ερυθράς Θαλάσσης, Períplous tis Erythrás Thalássis), also known by its Latin name as the Periplus Maris Erythraei, is a Greco-Roman periplus written in Koine Greek that describes navigation and trading opportunities from Roman Egyptian ports like Berenice Troglodytica along the coast of the Red Sea, and others along Horn of Africa, the Persian Gulf, Arabian Sea and the Indian Ocean, including the modern-day Sindh region of Pakistan and southwestern regions of India.  
(wikipedia Encyclopedia). 

आगे की चर्चा कल ही संभव होगी।  यह लेखन के इतिहास, भारत के इतिहास, ब्राह्मी (टंकलिपि)  और सौरी (लेख्यलिपि) के इतिहास के ऐसे पक्षों से जुड़ा है  जिनकी ओर  हमारा ध्यान इससे पहले नहीं गया था।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

No comments:

Post a Comment