Monday 25 January 2021

2021 की 26 जनवरी - गणतंत्र का एक अनोखा जनपर्व / विजय शंकर सिंह

26 जनवरी को गणतंत्र दिवस की किसान परेड के आयोजन के बारे में किसानों के मसले पर निरंतर मुखर रहने वाले पत्रकार, पी साईंनाथ ने इस परेड को गणतंत्र  को पुनः प्राप्त करने का एक आंदोलन बताया है। पी साईंनाथ के इस कथन पर विचार करने के पहले यह ज़रूर देख लेना चाहिए कि इस सरकार ने एक एक कर के सभी संवैधानिक संस्थाओं को कमज़ोर किया है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी सरकार के इस संस्थातोड़क अभियान का एक अंग बन चुकी है। आज सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई कहते हैं कि हमे बदनाम किया जा रहा है। उनका यह दुःख हम सबको साल रहा है। पर सीबीआई जज लोया के संदिग्ध मृत्यु की जांच, राफेल सौदे की जांच से जुड़ी याचिका, सीबीआई प्रमुख को रातोरात हटा देने के सरकार के गलत निर्णय, अनुच्छेद 370, यूएपीए कानून, सीएए आदि महत्वपूर्ण याचिकाओं पर विलंबित सुनवाई, अर्णब गोस्वामी के मुकदमो पर ज़रूरत से अधिक तवज़्ज़ो आदि ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिनके कारण सुप्रीम कोर्ट पर सीधे सवाल खड़े हुए और सबको कठघरे में रखने की हैसियत रखने वाली न्यायपालिका खुद जनता के कठघरे में है। 

सरकार ने आरबीआई की साख को नुकसान पहुंचाया। दो महत्वपूर्ण जांच एजेंसियां, सीबीआई, ईडी की यह हालत हो गयी है कि उनके हर छापे सन्देह की दृष्टि से देखे जाने लगें। यहां तक कि सेना के भी अराजनीतिक चरित्र को बदलने की कोशिश की गयी। योजना आयोग तो तोड़ कर नीति आयोग बनाया गया जिसका अब तक यही एक मक़सद सामने आया है कि वह सभी सरकारी कंपनियों को कुछ चहेते पूंजीपतियों को सौंप दिया जाय। आरटीआई सिस्टम को कमज़ोर किया गया। 

लेकिन जब सरकार ने एपीएमसी सिस्टम को तोड़ने के लिये कदम बढ़ाए तो किसान, विशेषकर उन क्षेत्रो के किसान, जो सरकारी मंडी की बदौलत सम्पन्न हैं ने, इसे भांप लिया और वह अपने अस्तित्व के लिये एकजुट हो गए। यह किसान आंदोलन इस गणतंत्र के लिये एक नयी उम्मीद बन कर आया है। गणतंत्र दिवस 2021 पर होने वाली किसानों की ट्रैक्टर परेड एक ऐतिहासिक क्षण होगा, जब जनता, इस महापर्व में अपनी भागीदारी देगी। लोगों  को इस परेड में उत्साह और शांति के साथ भाग लेना चाहिए। इस किसान आंदोलन को हतोत्साहित करने के लिये न केवल इन्हें ट्रोल किया गया, बल्कि कुछ मीडिया चैनलों पर इनके विरुद्ध दुष्प्रचार भी किया गया। सरकार ने ईडी को सक्रिय किया और खालिस्तानी, पाकिस्तानी आदि नारों से उन्हें विभाजनकारी भी बताया गया। 

सरकार ने इन किसानों का मनोबल तोड़ने के लिये, कुछ फर्जी किसान संगठन भी खड़े किए, इस आंदोलन को आढ़तियों और बिचौलियों का आंदोलन कह कर प्रचारित किया गया और दो महीनों में लगभग सौ से अधिक किसानों की दुःखद मृत्यु पर न तो प्रधानमंत्री जी ने कुछ कहा और न ही, सरकार ने। ऐसा लगा मरने वाले किसान, इस मुल्क के हैं ही नहीं। पंजाब के बाद जब हरियाणा के किसान खुल कर सामने आए तो दोनो राज्यो में विवाद का विंदु सतलज यमुना लिंक कैनाल का मुद्दा तक उछाल दिया गया। पर किसान समझदार निकले और वे भ्रमित नहीं हुए। धर्म के नाम पर तोड़ने की कोशिश की गयी। अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त स्वयंसेवी संस्था, खालसा एड इंटरनेशनल को ईडी की नोटिस दी गयी, पर जब इस संस्था को नोबेल पुरस्कार के लिये नामित करने की खबर आयी तो यह नोटिस वापस ले ली गयी। खालसा एड लम्बे समय से आंदोलन में अपना लंगर चला रही है। लेकिन, सरकार का आकलन इस आंदोलन को लेकर गलत दिशा में है। यह आंदोलन इतिहास मे इससे पहले किये गए अनेक जन आंदोलनों की तरह व्यापक हैं। और इसे दबाना अब सरकार के लिये आसान भी नहीं है। 

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि शहरी मिडिल क्लास इस आंदोलन को लेकर, बिल्कुल इससे अलग है। आखिर शहरी मिडिल क्लास की जड़ भी तो कहीं न कहीं गांवों से ही है। उन्हें भी किसानों का दुखदर्द पता है। उन्हें भी 18 रु का गेहूं खेत मे और 48 रुपये का आटा मॉल में, का गणित पता है। सरकार के समर्थक मित्रो की बात अलग है। जो हस्तिनापुर से निर्ममता की तरह जुड़े हैं, वे तो धृतराष्ट्र के साथ रहेंगे ही, पर अधिकांश देश की अर्थव्यथाकथा से पीड़ित हैं और इसे समझ भी रहे हैं। 2018 में जब मुंबई में लाखों किसान पैदल मार्च करते हुए आये थे तो मुंबई का शहरी मिडिल क्लास उनके स्वागत और उन्हें खिलाने पिलाने के लिये सड़को पर उतर आया था। यही हाल, दिल्ली में भी हो रहा है। लोग जा जा कर न केवल किसानों का हौसला बढ़ा रहे हैं, बल्कि उनकी ज़रूरतों की चीजें उन्हें दे रहें हैं। 

यह किसान गरीब नहीं है। खाते पीते, और सम्पन्न किसान हैं। जम कर पिज्जा, बर्गर, और बढ़िया खाते पीते हैं। जम के मेहनत करते हैं। ट्रैक्टर, और मशीनों से खेती करते हैं। इनके बच्चे अच्छे और कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं। जो बच्चे पढ़ने में तेज होते हैं वे उच्च शिक्षा लेकर अगर मौका मिलता है तो विदेश चले जाते हैं। सिविल सेवा और पुलिस, फौज में भर्ती होते हैं। मस्ती से जीते है । यह जीवनशैली है पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड के तराई के किसानों की और देश के कुछ हिस्सों में खेती के दम पर बेहतर जीवनशैली जीने वाले किसानों की। 

क्या ऐसी जीवनशैली जीने वाले किसानों से ईर्ष्या करनी चाहिए ? जी नहीं, यह ईर्ष्या का काऱण नहीं बल्कि यह चिंतन का विषय होना चाहिए कि यही सम्पन्नता देश के अन्य उन किसानों के जीवन मे क्यों नहीं है जो प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में चित्रित और विम्बित किसानों की तरह आज भी बने हुए हैं ? किसान कहने पर, होरी, गोबर, और धनिया और दो बैलों की जोड़ी का ही अक्स कल्पना में क्योँ उभरता है ? किसान एक बेहतर और ऐशो आराम का जीवन क्यों नहीं जी सकता है ?

पर आज मीडिया का वह हिस्सा जो, सरकारी दल की कृपा पर जी रहा है और जो जनता के लिये जनसंचार माध्यम में नहीं बल्कि अपने वेतनदाता के हित के लिये खबरें लेता और देता रहता है, उसकी सबसे बडी चिंता यही है कि इस आंदोलन की फंडिंग कौन कर रहा है। 

उन्हें कभी यह चिंता नहीं सताती कि, पीएमकेयर्स में धन कहाँ से आता है और वह धन कहां खर्च हो रहा है। इलेक्टोरल बांड में किस दल में कितना धन आया और किस दल का कितना धन खर्च हुआ। यह पूछने का साहस भी न तो सरकार समर्थक जुटा पा रहे हैं और न ही सरकारी कृपा पर पलने वाले कुछ चाटुकार मिडिया समूह और उनके पत्रकार। धरनास्थल पर तो लंगर खुला है। बहुत मन हो तो वही जा कर पूछ लीजिए कि यह फंडिंग कहाँ से हो रही है। वैसे भी आयकर, और ईडी तो यह सब सूंघ ही रही होगी। वह सरकार को बता भी रही होगी। 

दरअसल यह सम्पन्नता, यह अस्मिता, यह स्वाभिमान और यह ठसक जो आज किसानों में दिख रही है वही सरकार और सरकार समर्थकों के आंख की किरिकरी भी है। सरकार खास कर पूंजीवादी तंत्र की सरकार, जन की सम्पन्नता औऱ उनके बेहतर जीवन शैली से बहुत असहज होती रहती है। जहाँपनाह, जहां को पनाह में रखने के ईगो से मुक्त नहीं होना चाहते। वे, चार महीने में, 2000 रुपये यानी 16 रुपये रोज की सम्मान निधि के इश्तहार में लपेट कर देने के, जहाँपनाही सुख से वंचित नहीं रहना चाहते है। वह 80 करोड़ जनसंख्या की गरीबी से द्रवित नहीं होते हैं पर उस गरीब को, 5 किलो, गेहूं 2 किलो चावल और एक किलो दाल बांट कर आत्ममुग्धता के अश्लील तोष के सुख में मिथ्या आनन्द में ज़रूर ऊबचूभ होते है। गरीब की गरीबी दूर कैसे हो, उसकी जीवन शैली कैसे बदले और उन्नत हो, इस विषय पर न तो सरकार का कोई चिंतन रहता है और न ही, कोई एजेंडा। 

दो महीने से चल रहा आंदोलन, कमज़ोर, गरीब किसानों के बस का हो, यह मुश्किल हो सकता है। क्योंकि न तो वे इतने सांधन सम्पन्न हैं, औऱ न ही वे लंबे समय तक वे सड़कों पर रह सकते हैं। दो वक्त के भोजन के बाद अगले दिन के लिये पेट भरने की समस्या उनके सामने खड़ी रहती हैं। आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को, फुसलाना, बहकाना और जुमले सुनाकर तोड़ देना आसान होता है। आज आंदोलनकारी किसानों की यही सम्पन्नता सरकार को असहज कर रही है। और सरकार के समर्थक भी आंखे फैला कर कहते हैं 
" यार यह किसान तो कही से, दिखते भी नही। देखो यह तो पिज्जा बर्गर खा रहे है। इनके बच्चों को देखो यह तो फर्राटे से अंग्रेजी बोल रहे है । किसान बिलो पर बहस कर रहे हैं। गोदी मीडिया के सवालों के जवाब में उन्ही से जवाब तलब कर रहे हैं।"

दरअसल पूंजीवादी व्यवस्था लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विपरीत सोचती है। वह मुनाफा, पूंजी के विस्तार, पूंजी के एकत्रीकरण और सर्वग्रासी भाव से संक्रमित होती है, न कि वह उस समाज या अपने कामगारों के जीवनशैली की गुणवत्ता के प्रति सचेत और चिंतित रहती है, जिसके दम पर पूंजीवाद अपना शोषण से भरा साम्राज्य फैलाता रहता है। देयर इस नो फ्री लंच, भोजन मुफ्त में नही  मिलता है यह पूंजीवाद का मूल मंत्र है। इसीलिए, सरकार द्वारा जनहित की योजनाएं जो जनता को मुफ्त चिकित्सा, शिक्षा आदि की सुविधाएं देती हैं तो पूंजीवाद के समर्थकों को यह सब मुफ्तखोरी लगती है। वे ऐसी कमज़ोर जनता को फ्रीबी कह कर हिकारत की नज़र से देखते हैं। जब कि लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा में वंचितों और आर्थिक, सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों के उत्थान के कार्यक्रम को प्राथमिकता दी गयी है। 

आर्थिक रूप से कमज़ोर तबका पूंजीवाद को अक्सर रास आता है। क्योंकि उन्हें सस्ता श्रम मिलता है और उसकी मजदूरी या वेतन वे सौदेबाजी से तय करते हैं। आज नीति आयोग के विचारकों की एक समस्या यह भी है कि शहरों में श्रमिकों की कमी है। दरअसल कमी श्रमिको की नहीं है, पर उन्हें बेबस, बेजुबान और इफरात में ऐसे लोग चाहिए जो उनकी मर्जी से उनकी शर्तो पर काम करें और अपने आर्थिक शोषण के खिलाफ कुछ न कहें। संगठित क्षेत्र के कामगारों को मिलने वाली सुविधाएं और भत्ते भी इन्हें चुभते हैं। अपने हक़ के लिये तन कर खड़े हो जाना और अपनी बात रखना, पूंजीवादी व्यवस्था में अक्सर अनुशासनहीनता और विद्रोह के रूप में देखा जाता है। आज इन सब के लिये तंत्र ने एक नया शब्द ढूंढ लिया है नक्सल। आज इस बात पर बहस, और चिंतन होनी चाहिए कि देश के अन्य क्षेत्रों के किसान, पंजाब और हरियाणा के किसानों के समान खुशहाल क्यों नहीं है तो इस बात पर समाज का एक वर्ग चिंतित है, कि पंजाब और हरियाणा के किसान इतने मज़बूत और सम्पन्न क्यों हैं ? 

सरकार या पूंजीवादी सिस्टम यह नहीं चाहता कि, संगठित क्षेत्र बढ़े और वह मज़बूत हो। वह श्रम के बाजार के रूप में एक ऐसा समूह चाहता है जो मांग और पूर्ति के आधार पर अपनी मजदूरी ले और वह मजदूरी भी नियोक्ता अपनी शर्तों पर ही तय करे, न कि व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं को देखते हुए तय हो। लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा में किसी भी व्यक्ति को उसके मौलिक आवश्यकताओ का ध्यान रखा जाता है। उनकी जीवन शैली का ध्यान रखा जाता है। उन्हें पौष्टिक भोजन और रहने, स्वास्थ्य और शिक्षा की कम से कम मौलिक ज़रूरतें तो पूरी हों, इन सबका ध्यान रखा जाता है। पूंजीवादी व्यवस्था के लिये यह उनकी प्राथमिकता में नहीं आता है। 

26 जनवरी से जुड़े, तीन ईसवी सन, भारत के इतिहास में अमिट रहेंगे। 26 जनवरी 1930 जब देश की पूर्ण स्वतंत्रता के लिये लाहौर में संकल्प लिया गया था। 26 जनवरी 1950, जब हम भारत के लोगों ने एक संप्रभु लोककल्याणकारी राज्य के संविधान को अंगीकृत किया था। और अब 26 जनवरी 2021 जब देश के जन ने एक अनोखे अंदाज में गणतंत्र दिवस के आयोजन का निश्चय किया है। ऐसा बिल्कुल नहीं था कि 26 जनवरी 1950 के बाद से जनता द्वारा मनाया जाने वाला यह पहला आयोजन है। बल्कि राजपथ पर भव्य परेड से लेकर बीटिंग रिट्रीट तक के उत्सव भी जनता के ही थे। पर इस बार जो गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा है उसकी पृष्ठभूमि में किसानों द्वारा आयोजित एक व्यापक जनआंदोलन है। यह आंदोलन 26 जनवरी के लिये नहीं चल रहा है बल्कि इस जन आंदोलन के बीच 26 जनवरी पड़ रही है। यह आंदोलन किसानों से जुड़े तीन कृषि कानून जो कृषि सुधार के नाम पर लाये गए हैं के विरोध में किसान उन्हें वापस लेने के लिये आंदोलन कर रहे हैं। 

( विजय शंकर सिंह )

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