Monday 25 January 2021

शब्दवेध (94) सवाल हैं तो सही, सवाल हों तो सही

पहले  यह सुझा आए हैं वर्णिक ( अल्फाबेटिक)   और मात्रिक ( सिलेबिक)  दोनों  लिपियों का विकास  सिंधु सरस्वती सभ्यता़ से संपर्क रखने वाले भारतीयों ने किया।  यह सोच कर हैरानी होती  है कि इसमें पहल आसुरी परंपरा से  संबंध रखने वाले लोगों ने की, जिन्हें शूद्रों में गिना जाता है, न कि देव/ब्राह्मण परंपरा से आए  और कृषि भूमि से लेकर संपदा और तंत्र पर अधिकार करने वालों ने। 

यहां हम दो विरोधाभासी बातें कर रहे हैं : (1) हम यह सुझाव दे रहे हैं लिपि और लेखन का आविष्कार और विकास देव समाज ने नहीं किया, जबकि शिक्षा, लिखित साहित्य और सैद्धांतिक ज्ञान पर आज तक उसी का अधिकार बना रहा है।  (2) जिनको हम लिपि के विकास का श्रेय दे रहे हैं वे श्रम और कौशल के कामों से जुड़े रहे हैं और शिक्षा से इस सीमा तक वंचित रहे हैं कि वे अपना नाम तक नहीं लिख सकते, इसलिए अपनी कृति की पहचान के लिए वास्तुकार अपने हस्ताक्षर के रूप में शिल्पी चिन्हों का प्रयोग किया करते थे (ब्रजमोहन पांडे)। 

यह कुछ उसी तरह का विरोधाभास है जैसे यह  कि  सारा श्रम, कौशल और उत्पादन असुर परंपरा  से जुड़े हुए लोग करते रहे हैं,  पर उस पर अधिकार उनका रहा है  जो  शारीरिक श्रम और उपक्रम से  इस सीमा तक परहेज करते हैं कि इससे वे जाति-बहिष्कृत हो सकते थे।  

इस अंतर्विरोध को असुर परंपरा की उस वर्जना (हराम  या टैबू) के समानान्तर रख कर ही समझा जा सकता है जिसके चलते उन्होंने खेती के लिए जरूरी विविध आयोजनों का प्राणपण से विरोध किया और खड़ी खेती को बर्वाद करने (यज्ञ-विध्वंस या मखनाश) का प्रयत्न करते रहे और संख्याबल कम होने के कारण देवों को अपने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए लगातार छल-छद्म  का सहारा लेना पड़ा, जिसके लिए वे जातीय परंपरा में बदनाम भी रहे हैं। हजारों साल तक चलने वाले इस लंबे अन्तर्कलह के बाद देवों ने उत्पादन और समृद्धि का ऐसा स्तर पा लिया और अपनी संगठित शक्ति से बनांचलों को कृषिभूमि में बदलते हुए उन्हें आहार के लिए अपने ऊपर आश्रित बनने पर इसलिए बाध्य कर दिया   कि वे कृषिकर्म के लिए तैयार न थे।  उनमें से जिन्होंने  देर-सवेर कृषि कर्म अपनाया वे अपने क्षत्रिय या ब्राह्मण होने का दावा करते हुए सवर्ण समाज का अंग बनते चले गए। जो अपने कौल पर दृढ़ रहे उन्हें अंततः कृषिश्रमिक बनने को बाध्य होना पड़ा और वही काम भूस्वामियों के सेवक बन कर करना पड़ा जिससे बचने के लिए वे अपने प्राण दे सकते थे या ऐसा करने वालों के प्राण लो सकते थे।    

 हम यहां आर्थिक सामाजिक ढांचे की बारीकी में जाना नहीं चाहेंगे,क्योंकि  इससे विषयांतर होगा, यहां केवल लिपि के संबंध में अपनी बात रखना चाहेंगे।  हमारा यह मत कि लेखन का आविष्कार और विकास असुरों (तथाकथित शूद्रों ने किया निम्न साक्ष्यों पर आधारित  है:
1.  जिन दो व्यक्तियों का नाम  लेखन के संदर्भ में आता है  वे हैं  जमदग्नि और विश्वामित्र हैं  जो, असुर परंपरा से संबंध रखते [1] इनके अतिरिक्त जिनका लेखन से लेकर आरेखन के सभी रूपों पर अधिकार था, वे हैं महिलाएँ. परन्तु औपचारिक शिक्षा से वंचित कर दिए जाने के बाद वे भी अपने कौशल में दक्षता और प्रतीकात्मक संचार के लिए चित्रलेखन तक ही रुकी रह गईँ।[2]  

2.  वेद  और ज्ञान पर एकाधिकार रखने की चिंता करने वाले गूढ़ता पर बल देते थे, यहाँ तक कि व्यक्ति के भी दो नाम। एस असल, दूसरा नकली जिसे पुकार नाम कहते हैं।  वे अपने ज्ञान को  किसी ऐसे माध्यम में लाने के पक्षधर नहीं लगते जिस तक दूसरों की पहुँच हो सके। 

3.  कविगण अपनी रचनाओंं में उसी दक्षता और सतर्कता का दावा करते हैं जो शिल्पियों में पाई जाती है अर्थान अपनी तुलना में उनकी प्रतिभा की विलक्षणता के कायल हैं। वैसी ही काट, छाँट, सही जोड़ की महत्वाकांक्षा से प्रेरित हैं -इमां ते वाचं वसूयन्त आयवो रथं न धीरः स्वपा अतक्षिषुः सुम्नाय त्वामतक्षिषुः; अभि तष्टेव दीधया मनीषां;  एतं ते स्तोमं तुविजात विप्रो रथं न धीरः स्वपा अतक्षम् ;   वस्त्रेव भद्रा सुकृता वसूयू रथं न धीरः स्वपामतक्षम्;  इयं ते अग्ने नव्यसी मनीषा युक्ष्वा रथं न शुचयद्भिरङ्गैः;  अस्मा इदु स्तोमं सं हिनोमि रथं न तष्टेव तत्सिनाय इत्यादि।
  
4. ऋभुओं के विलक्षण चमत्कारों में अपने बुद्धिबल से बिना चमड़े का गाेरू बनाना, निश्चर्मणो गामरिणीत धीतिभिः तो शामिल है ही, फिर बछड़े के साथ माता का सृजन करने की क्षमता भी आती है, निश्चर्मणा ऋभवो गामापिंशत संवत्सेनासृजता मातरं पुनः, जो मात्रायुक्त अक्षरों के अंकन का द्योतक है। अर्थात् लेखन का कार्यभार क्रतुविद शिल्पियों का ही था। मुद्राओ का उत्खचन उनके ही वश का काम था, अतः लेखन का प्रचलन हो जाने के बाद इसका लाभ सभी को मिल सकता था, परन्तु इसमें नए प्रयोग वे ही कर सकते थे।  वास्तव में मुद्रण के बाद जो भूमिका प्रेस की थी वही मुहरों आदि के मामले में शिल्पियों की थी।

5. फिनीशियन के साथ जिन विद्याओं प्रवेश भूमध्यसागर के तटीय देशों में हुआ था वे उनके वहाँ पहुँच कर किए गए आविष्कार न थे, अपितु वे अपनी दक्षता अपने पूर्ववर्ती निवास से ले कर पहुँचे थे। फिनीशियनों पर विकापीडिया के लेख में उद्धृत जर्मन विशेषज्ञ Hans G. Niemeyer के अनुसार the Phoenicians "sparked Western civilization" through their "transfusion of Eastern goods, technologies, and ideas that, in turn, became the foundations of Greco-Roman civilization.  कहें यह ग्रीक-रोमन सभ्यता की नींव भले हो, वे जहाँ से गए थे वहाँ के वे उत्पाद थे, यह दूसरी बात है कि वहाँ पहुँच जाने के बाद नई परिस्थितियों के अनुसार उन्होंने पर क्षेत्र में अपने हजार डेढ़ हजार साल के इतिहास में बहुत सारे नए प्रयोग किए जिनमें लिपि को पश्चिम एशिया की सामी भाषाओं की व्यंजनप्रधानता के अनुरूप अपनी मात्रिक लिपि को वर्णिक बनाना भी शामिल था।

फिनीशियन
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राजबली पांडे ने फिनीशियन को पणि का अपभ्रंश माना था।  पणि का पण्, पणन और वणन अर्थात् वाणिज्य से संबंध बहुत साफ दिखाई देता है। ऋग्वेद में पणि के दो चित्र उभरते हैं।  एक की पहचान हमने विस्तार में जा कर उत्तरी अफगानिस्तान के उन जनों के की थी जो अपनी खनिज संपदा के दोहन से परिचित न थे पर दूसरा कोई उनके प्रभावक्षेत्र में किसी प्रकार हस्तक्षेप करे तो इसका विरोध करते थे।  इनकी पहचान में हिल्लेब्रांट की पणियों पर की गई लंबी टिप्पणी और पार्नियन कबीलों की पहचान का भी प्रभाव रहा हो सकता है ।  परन्तु पणि का शाब्दिक अर्थ था  धनी व्यक्ति या समूह ।  ऋग्वेद सें यह शब्द निंदापरक है।  इससे उनकी जो विशेषताएँ  प्रकट होती हैं वे हैं कि वे कंजूस थे, क्रूर थे, दान और उपहार नहीं करते थे, वैदिक समाज के प्रभावशाली वर्ग से  उनका संबंध तनावपूर्ण  था। इसी का लाक्षणिक विस्तार उत्तरी अफगानिस्तान के उन घुमंक्कड़ कबीलों के लिए वैदिक उद्यमियों ने किया था।

पणि  महत्वाकांक्षी वैदिक व्यापारियों के लिए चुनौती हैं, प्रतिस्पर्धा में वैदिक उपक्रमों को मात देने में सक्षम हैं, वे कामना करते हैं कि होड़ में वे पणियों के बाजी मार ले जाएँ - पणिं गोषु तरामहे।  पणि स्वभाव से अहंकारी हैं या ऐसा प्रतीत होते हैं और इसलिए वैदिक कवि पूषा (पालनहार) देव से उनके हृदय को कोमल और अपने अनुकूल बनाने की याचना करते हैं । वे धनी हैं, परन्तु आस्था के मामले में एक भिन्न परंपरा से जुड़े हैं - न रेवता पणिना सख्यमिन्द्रोऽसुन्वता सुतपाः सं गृणीते।  आस्य वेदः खिदति हन्ति नग्नं वि सुष्वये पक्तये केवलो भूत्। 4.25.7

हमारे सामने पूरी स्थिति इतनी धुँधली है कि हम कुछ संभावनाओं का उल्लेख बिना दावे के कर सकते है पर इनका फलितार्थ स्वतः एक दावा बन जाता है।  इस संदर्भ में कुछ तथ्यों पर प्रकाश डालना ही पर्याप्त होगा।  पहला यह कि फिनीशियन उनका अपना नाम न था अपितु एक अटकलबाजी पर ग्रीकों द्वारा दिया गया नाम था।  इसका विस्तार जरूरी तो है पर आज संभव नहीं।
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[1] आविष्कार, सूझ और निष्पादन के  क्षेत्र में-  चाहे वह धातु विद्या हो, काष्ठकला हो, नौवहन हूं,  यातायात हो,   वन्य  पशुओं को ने पालने प्रशिक्षित करने और उनसे आम लेने का सवाल हो, रेशम,  ऊन,  सूत के उत्पादन और बुनाई का प्रश्नों गृह निर्माण निर्माण और उसके पशुपालन हो, यहाँ तक कि मनोरंजन के लिए साँप, रीछ, बंदर, खरगोश, तोता, मैना, पकड. कर उन्हें काबू करके सिखाने और इच्छित व्यवहार कराने और अपने पर निर्भर कराने की सूझ, पहल और निपुणता केवल, शहद, चिकित्सा के लिए जड़ियों, बूटियों, खनिजों, रसायनों  की खोज, सारे काम वे  करते आए थे जिन्हें कृषि उत्पाद में अपना हिस्सा (रोजी-रोटी) पाने के लिए विविध रूपों में योग्यताएं  पहचान करनी पैदा करनी पढ़ रही थी और प्रतिस्पर्धा में उन कौशलों को अधिक से अधिक उन्नत बनाने की प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही थी।  वे सब कुछ करने को तैयार थे, केवल ऐसी करने को तैयार नहीं उनके लिए जघन्य कर्म था।  और विडंबना यह कि यह कर्म भी उन्हीं को करना पड़ा। 

[2] महिलाओं के अधिकाश व्रतों और आयोजनों में चित्रांकन, अल्पना, रंगोली अथवा अंतर्कथाएँ जो पहले के रेखांकनों से जुडी लगती हैं, आज तक देखने में आती हैं।  
आप यदि ऐसे क्रांतिकारी हैं जिसकी न अपनी जमीन है न अपना दिमाग, तो भारतीय समाज अमानवीयता और अन्याय का  मूर्त  रूप  मिलेगा,  परंतु धैर्य से काम लें तो पता चलेगा यह केवल भारत की समस्या नहीं, पूरे विश्व की समस्या है।   संपदा पर केवल कुछ लोगों का अधिकार,  संपदा से वंचित  शेष समाज को अमानवीय  यातना  में  रख कर उसका उसी तरह अपने हित में उपयोग जैसे मनुष्य पशुओं का करता है,  विश्व के सभी सभ्य कहे जाने वाले देशों में होता रहा। उनका  तुलना में भारत में यह उतना क्रूर न था। हम इसके विस्तार से बच कर ही अपना ध्यान अपने विषय पर केंद्रित रख सकते हैं।  इतने विस्तार में भी इसलिए जाना पड़ा कि यह मैंने पहले कभी सोचा ही न था कि लेखन के विकास में असुर परंपरा के उन उत्तराधिकारियों का योगदान है जिन्हें शूद्रों में परिगणित माना जा सकता है और जिन्हें अपने ही आविष्कार के लाभों से वंचित कर दिया गया।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


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