Sunday 17 January 2021

शब्दवेध (77) अकादमिक प्रवंचना

मुझे  बात भाषा पर करनी है,  जिन लोगों का  हवाला देते हुए अभी तक  अपनी की बात की है, वे भी भाषा पर ही बात कर रहे हैं।  उनके पास -उनमें किसी के पास - एक भी, तथ्य और साक्ष्य नहीं थे, केवल दृढ़ संकल्प था कि साक्ष्य जो कुछ भी कहें, प्रमाण जो कुछ सिद्ध करें, हमें वही मानना है जो हमारी श्रेष्ठता और प्रभुत्व के लिए जरूरी है। चित या पट, जीत हर हाल में हमारी। हम खेल के नियमों का पालन करते हैं, खेल के नियम बनाते हैं। पैमाइश की  जरीब  का सिरा कहीं भी गिरे,  खूँटा  वहीं गड़ेगा जहां तक की जमीन  दखल करने का हमारा इरादा है।  इसे जबरदस्त का ठेंगा कहा जाता है।  यूरोप की  सभी भाषाओं में  यह न्याय की परिभाषा रही है।

‘हम खेलते हैं,  खेलने से पहले नियम भी बनाते हैं, खेलने के बाद नियम में सुधार भी करते हैं। नियम ऐसे बनाते हैं जिससे जीत हमारी ही हो फिर भी जिस नियम के पालन से हार से बच नहीं सकते, उनको बदल देते है और इस तरह हार को जीत में बदल देते हैं। हार हमें गवारा नहीं, इसलिए जीत के लिए नियम बलदना बाध्यता है। ऐसा खेल के नियम में ही नहीं होता, समाज के नियम में भी होता है, प्रशासन में भी होता है, राजनीति में भी होता होता है, कूटनीति में भी होता है और ज्ञानशास्त्र में भी होता है। इसे पाश्चात्य रैशनलिज्म कहा जाता है। इसे  विश्वसनीयता की कीमत पर किया जाता है और खो रही विश्वसनीयता की रक्षा के लिए प्रचार माध्यमों का इतनी चतुराई से से प्रयोग किया जाता है कि सचाई की परिभाषाएँ बदल जाती हैं।

मैं किसी को  गलत सिद्ध करने की जगह  सचाई को प्रस्तुत करना चाहता हूं जिससे यदि आप चाहे तो अपने विचारों में परिवर्तन कर सकते हैं या उतने ही स्पष्ट शब्दों में मेरा विरोध कर सकते हैं।

1- सत्य क्या था? सच यह था कि जिस विलियम जोन्स भारत आने से 14 साल पहले से यह मानते थे कि संस्कृत ग्रीक और रोमन में गहन समानताएँ हैं।  इसके लिए भारत आने की जरूरत न थी:
More than a hundred years ago, in a letter written to Prince Adam Czartoryski, in the year 1770, he says: “Many learned investigators of antiquity are fully persuaded, that a very old and almost primeval language was in use among the northern nations, from which not only the Celtic dialect, but even Greek and Latin are derived; in fact, we find πατήρ and μήτηρ in Persian, nor is θυγάτηρ so far removed from _dockter_, or even ὄνομα and nomen_ from Persian _nâm_, as to make it ridiculous to suppose that they sprang from the same root. We must confess,” he adds, “that these researches are very obscure and uncertain, and you will allow, not so agreeable as an ode of Hafez, or an elegy of Amr’alkeis.” In a letter,
dated 1787, he says: “You will be surprised at the resemblance between Sanskrit and both Greek and Latin.”

इसके लिए उन्हें भारत आने की जरूरत नहीं थी।   भारत आगमन मात्र  पहले से बनी हुई धारणा को कहने के लिए  उपयुक्त  पर्यावरण  की तलाश से अधिक से  कुछ न था।

2.  सच यह है  यूरोप की सभी जातियों के विषय में उनकी परंपरा स्वयं यह बताती थी कि वे बाहर से आए हुए हैं।  कुछ मामलो में पुराने ठिकानों की याद भी है।   इसी के आधार पर   मैक्समुलर  ने  आर्यों के  निवास से यूरोप के सभी जनों को एक-एक करके रवाना होने की कल्पना की थी।   परंतु भारतीय परंपरा के अनुसार सृष्टि के आरंभ से सभी भारतीय यहीं  निवास करते आए हैं उनमें अंतर बाहर से आने वालों और स्थानीय लोगों का नहीं था,अपितु  उत्पादन पद्धति और मूल्यों मान्यताओं के बीच टकराव का था। जोन्स ने यूरोपीय परंपरा को भारत पर  आरोपित  कर दिया, जो उनकी जरूरत थी, भारतीय परंपरा का सच नहीं 

3.  जोंस ने संस्कृत की प्रशंसा करते हुए जब कहा था कि The Sanscrit language, ...is of a wonderful structure; more perfect than the Greek, more copious than the Latin, and more exquisitely refined than either, yet bearing to both of them a stronger affinity, both in the roots of verbs and the forms of grammar, इसलिए ऐसा तभी हो सकता था जब ये एक ही मूल से निकली हों जो संभव है आज कहीं हो ही नहीं तो वह संस्कृतज्ञों को खुश करते हुए दलील यह दे रहे थे कि ये सारे गुण बोलचाल की भाषा में संभव नहीं, यह भारत में ब्राह्मणों को छोड़ किसी दूसरे द्वारा बोली नहीं जाती, इसलिए इसका चलन कहीं अन्यत्र रहा होगा। भाषा की निखोटता और परिष्कृति भाषा को अव्यावहारिक सिद्ध करने की दलीलें थीं और इसी के आधार पर उस भाषा के साथ ही इसे बोलने वालों को अपने घर से ही बेघर कर दिया गया। इसके लिए कुछ धन, मान, पद, पुरस्कार भी जुड़ा था इसलिए ब्राहमणों ने इसे मान लिया या चुप्पी साध गए।  वह प्राचीन भाषा - वैदिक -  भी भारत में बोली जाती थी जिससे संस्कृत को मानक रूप दो ढाई हजार साल बाद पाणिनि ने दिया यह कहने का साहस किसी ब्राह्मण नें नहीं किया। जिन्होने दूसरों को वेद पढ़ने के अधिकार से वंचित कर दिया वे स्वयं भी  केवल वेद की दुहाई देते रहे, पढ़ने और समझने वाले गायब थे।

4.  वेद की खोज ईसाई कर रहे थे जिससे किसी न किसी तरह उसकाे विकृत करके ईसाइयत को सर्वोपरि मत सिद्ध किया जा सके, जिस काम में बंसेन के आग्रह पर मैक्सुलर भी कंपनी को यह आश्वासन देते हुए कि इससे तुम्हारा ही काम ही सिद्ध होगा, जुड़ गए थे। पर जब वह प्राचीन भाषा जिससे उन सभी बोलियों का जिनका उल्लेख जोंस ने किया था,  मिल गई और उसके भौगोलिक क्षेत्र को भारत से बाहर कहीं पाया ही नहीं जा सकता था तो समस्या का हल तो निकल गया।  हम अपने शब्दों में नहीं, मैक्समुलर के शब्दों में ही इसे देखें    
If a botanist writes on germs, has he to defend himself, because he does not write on flowers? Why, it is simply because the Veda is so different from what it was expected to be,... it stands alone by itself, and reveals to us the earliest germs of religious thought, such as they really were; it is because it places before us a language, more primitive than any we knew before; it is because its poetry is what you may call savage, uncouth, rude, horrible, it is for that very reason that it was worth while to dig and dig till the old buried city was recovered, showing us what man was, what we were, before we had reached the level of David, the level of Homer, the level of Zoroaster, showing us the very cradle of our thoughts, our words, and our deeds. 

वह भाषा जिससे दूसरी भाषाएँ निकली थीं, वह तो भारत में ही मिल गई, फिर इतने लंबे समय तक आर्यों और उनके आदि देश की खोज क्यों की जाती रही? इस खोज में मैक्समुलर कैसे शामिल हो गए?  हमारे प्रकांड पंडित क्या करते रहे? अपने पहा महोपाध्याय की बारी की प्रतीक्षा ?

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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