Wednesday 6 January 2021

शब्दवेध (56) भावजगत

इष 
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इष - जल, रस, सोम रस। 
सोम जल तत्व का प्रतिनिधि है, इसलिए इसे धरती का जनक, द्युलोक का जनक, देवों का  जन्मदाता , प्रतिभा का जनक, और साथ ही अग्नि, सूर्य, इन्द्र और विष्णु का भी जन्मदाता है। [1] ऐसी दशा में यदि ईश और ईसा का भी जनक हो तो हैरानी क्या। ‘ईश’ का अर्थ आप जानते है, पर अधिकस्य अधिकं फलं के नियम से, उन्होंने उससे बडे़ मालिक की तलाश कर ली गई।

ईश्वर (ईश-वर)  और  महेश (महा-ईश) । पर वर का मूल आशय पानी है। जल के पुराने देवता जिनकी जल के नए देवता इन्द्र से इसी कारण प्रतिस्पर्धा बनी रही फिर मेल-मिलाप हो गया, वरुण और वरुणा नदी  के मूल में संभवतः यही वर है। इसका ऋग्वेद के समय तक 
इच्छा या कामना - वरं ब्रूहि
कृपा दान या प्रसाद - वरदान
सत्य - ver, very, verify, verily, L. verus- true;  E. virtue - exellence, valour; verdict (L. vere-truly आदि में अर्थान्तरण हो गया । E. virulent - highly poisonous < L. virulentus, virus में अवश्य गरल का भाव बना रह गया लगता है।  जो भी हो इष से निकले ईश पर वर से उपजा -वर के जुड़ने से इसमें श्रेष्ठता का भाव जुड़ गया जिस पर हम ध्यान नहीं देते। महेश का महा भी  पहले जलवाची था, इसे मघ>मह मेघ>मेह (मेहत्नु-मिह सेचने),फा. मेहरबान - कृपालु से समझा जा सकता है । 

पर ईश्वर ईश से कुछ ऊपर जाकर भी संतुष्ट न था। महेश ने बराबरी पर रुतबा कम कर दिया था। हैसियत ऊँची करके ही कोई सबसे  ऊपर हो सकता था इसलिए परमेश्वर (परम-ईश-वर) । विष्णु तक का ठिकाना सभी को पता है पर परमेश्वर का ठिकाना किसी को पता नहीं।  

त्रिदेव
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हमारी त्रिदेवों की कल्पना भी कम रोचक नहीं । ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम लिखित  साहित्य  भले हो उसमें उपलब्ध सूचनाएं  हमारे दीर्घ अतीत  के मध्यकाल की कुछ उलझी सुलझी  सूचनाएं मात्र हैं। दूसरे शब्दों में कहें ऋग्वेद आज से 5000 साल से कुछ पहले से आरंभ करके 4000 साल पहले तक की घटनाओं की जानकारी सुलभ कराता है।  कृषि का आरंभ वेद के  आरंभ से  कम से कम 5000 साल पीछे जाता है।  उस  दीर्घ  अतीत की  सुनी सुनाई कहानियों का उपयोग वैदिक  कवियों द्वारा  किया गया है,  परंतु  इस दौर में समाज इतना बदल चुका है अर्थव्यवस्था इतनी आगे बढ़ चुकी है  जिसका सही अनुमान  लगभग असंभव है।  आरंभ में  जो समुदाय अपने श्रम,  उद्यम,  और  अध्यवसाय के लिए जाना जाता था वह इस समय तक लगभग  निकम्मा  हो चुका था और दूसरों के  श्रम  और कौशल  पर पल रहा था।  यज्ञ  जो पहले उत्पादन कार्य था अर्थात्  कृषि उत्पादन था,  वह कर्मकांड के दबाव में  अपनी स्मृति तक हो चुका था।  आडंबर ने यथार्थ को ओझल कर दिया था।  इस पृष्ठभूमि से अवगत होने के बाद ही हम इन तीनों  देवों की  उद्भावना को समझ सकते हैं फिर भी यह तय नहीं कर सकते कि इस  मिथकीकरण का काल क्या है।

ऋग्वेद के समय तक अग्नि का तीन रूपों में उपयोग हो रहा था। एक था झाड़ झंखाड़ की सफाई का,  दूसरा कर्मकांडीय यज्ञ मे हव्यवाहन का, तीसरा उद्याेग और खनन से लेकर धातुशोधन।  पहला किसानों की जरूरत थी और इसलिए इसके हवाले विरल हैं , दूसरा कर्मकांडियों की जिनके बीच से ही अधिकांश कवि आते थे इसलिए इसका बाहुल्य है,,।  तीसरी उद्योग और कौशल से जुड़े जनों की जो सभी आसुरी या उस पृष्ठभूमि से आए थे जिनसे पहले वैदिक स्वामिवर्ग का विरोध था जो अब सैद्धांतिक विरोध तक सीमित रह गया था, अन्यथा वे विवश हो कर सहयोगी और सेवक की भूमिका में आ चुके थे।   

ब्रह्मा
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ऋग्वेद में ब्रह्म और ब्रह्मा का प्रयोग 1. अग्नि के लिए (ब्रह्मा च असि गृहपतिः च नो दमे),   2. यज्ञ के लिए (ब्रह्माणं ब्रह्मवाहसं); 3. पौरेहित्य करने वाले पदाधिकारियों में से उसके लिए जो पाठ की शुद्धता और पुरावृत्त का ज्ञान रखता था (ब्रह्मा  त्वो वदति जातविद्यां;  यत्र ब्रह्मा पवमान छन्दस्यां वाचं वदन् ; ब्रह्मा च गिरो दधिरे समस्मिन् );  4. स्तुति या प्रशस्तिगान के लिए (तुभ्यं ब्रह्माणि गिर इन्द्र.. ); 5. ब्राह्मण के लिए (तस्मै विशः स्वमेवा नमन्ते यस्मिन् ब्रह्मा राजनि पूर्व एति); 6.  सिद्ध मंत्र के लिए जो सभी विपत्तियों से रक्षा कर सकता था और संकट से सकुशल पार करा सकता था, (ब्रह्माकर्म भृगवो न रथम् ;  विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनम्); और 7.  देवों में सर्वोपरि देव के लिए (ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनां ऋषिर्विप्राणां महिषो मृगणाम्, श्येनो गृध्राणां स्वधितिर्वनानां सोमः पवित्रं अत्येति रेभन्)[2].  

इसका अर्थ है इस समय तक तीनों एक दूसरे से बड़े देवों (ब्रह्मा, विष्णु और महेश या महेन्द्र) की सत्ता कायम हो चुकी है, परन्तु ऋग्वेद से उस आदिम यथार्थ का परिचय नहीं मिल सकता,  क्योंकि इस समय तक कर्मकांड का आडंबर पुरातन यथार्थ को समझने में बाधक था। 

यज्ञ का शाब्दिक अर्थ है उत्पादन।  यह वह यज्ञ है जिसे कुशल कर्म (कर्मसु कौशलम्) या श्रेष्ठतम कर्म (यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म) कहा गया है। यज्ञ से प्रजनन होता है (यज्ञात् वै प्रजप्रजायन्ते।  इसमें कहीं विनाशकारी भूमिका के लिए छूट नहीं है, इसलिए यह दावा कि अग्नि ही यज्ञ है कर्मकांड की महिमा का परिणाम है। ब्रह्मा आदिम यज्ञ है, सृजन और उत्पादन है।  परन्तु इसके लिए तृण-गुल्म-रहित भूभाग चाहिए। कृषि-धान्यों को भयावने जानवरों, हिरनोे से और लुंचक वनचरों से जिनका प्रकोप अँधेरा होते ही बढ़ जाता था, सुरक्षा चाहिए और इनको भगाने के लिए आग के लुकाठों और दहकते क्षेप्यास्त्रों की भूमिका स्पष्ट है इसलिए यज्ञ तो विष्णु न थे, पर अग्नि और उसके सभी रूप विष्णु थे। उनके इस कर्म पर ही पूरा संसार टिका था  (व्यस्तभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीं अभितो मयूखैः)। 

आदिम आहारसंग्रही समाज का उत्पादन से, ब्रह्मा से कोई विरोध नहीं। उनका विरोध कंद, मूल, फल, शाक और आखेट पर निर्भरता के कारण इनको जलाने वालों से था। उनके देवता रुद्र थे जो इसी कारण अग्नि के इस पर्यावरण विनाशी देवों, इसमें प्रवृत्त जनों और, उनके पालतू पशुओं का संहार करने वाले  (गोघ्न, पूरुषघ्न) और यज्ञ के इस रूप के उच्छेदक (मखनाशन) हैं।  उनकेउपासकों के इसी उपद्रव का शमन उनके निर्मम संहार से करने के लिए विष्णु को अवतार लेना पड़ता है।  ब्रह्मा को यह कष्ट नहीं उठाना पड़ता यद्यपि सलाह देने के लिए वह सदा तैयार रहते हैं। संहारकारी प्रलय ज्वाला रुद्र के पास ही है जिसे दक्षक्रतु वैदिक धातुकर्मियों के चट्टानों को गलाने वाली आग का प्रतिरूप कहा जा सकता है।  ऋग्वेद के समय तक रुद्र  पशुपति बन जाते हैं, शंकर बन जाते हैं, उनके गण इन्द्र के सहायक बन जाते हैं यद्यपि इस लाचारी के समायोजन के बाद भी तनाव और टकराव बना रह जाता है और आज तक कायम है।  
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 [1] जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः, ऋ. 8.36.4; पिता देवानां जनिता सुदक्षो विष्टम्भो दिवो धरुणः पृथिव्याः, 9.87.2;  सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः, जनिता अग्नेः ज निता सूर्यस्य जनिता इन्द्रस्य जनित उत विष्णोः, 9.96.5।
[2] ऋग्वेद का कितना गहरा असर गीता पर है इसे समझने के लिए इसे ध्यान से पढ़ना चाहिए।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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